गरमी की छुट्टियाँ और ननिहाल

ननिहाल शब्द में ही कुछ खास एहसास है जिसमें प्यार दुलार झलकता है।

आजकल तो गरमी की छुट्टियाँ आने के पहले ही लोग अपने प्रोग्राम बना लिया करते है ,कुछ लोग कहीं बाहर अपने देश में तो कुछ विदेश घूमने जाते है तो कुछ लोग अपने घर पर ही रह कर छुट्टियों का मज़ा लेते है । तो कुछ लोग बच्चों को किसी खेल में या फिर स्वीमिंग सिखाने के लिए ले जाते है । आजकल तो स्कूल से बच्चों को छुट्टी में भी पढ़ने के लिए होमवर्क दिया जाता है।

पर आज भी ननिहाल या नानी के घर जाना सुनकर बच्चे अपने आप ही जोश से भर जाते है। वैसे आजकल तो कम्प्यूटर और मोबाइल फ़ोन और टी .वी. का ज़माना है और बच्चे घर के बाहर खेलने से ज़्यादा घर में ही खेलना पसंद करते है। वैसे अब धीरे धीरे आज की पीढ़ी भी बच्चों को बाहर खेलने के लिए भेजने की कोशिश करने लगी है ।

पर जब हम लोग बच्चे थे उस ज़माने में ना तो मोबाइल फ़ोन था और ना ही कम्प्यूटर और ना ही टी.वी होता था बस रेडियो होता था जिसपर ज़्यादातर या तो विविध भारती या सिलोन सुना जाता था । एक समय में छुट्टी का मतलब बस छुट्टी ही होता था स्कूल से कोई होमवर्क नहीं मिलता था ।

नानी के यहाँ सब मौसी, और मामा लोग इकट्ठा होते थे । पूरे घर में शोर शराबा और चहल पहल सी होती थी। घर के बीचोबीच का कमरा जिसे हम लोग तिनदरा बोलते थे क्यों कि उस कमरे में तीन दरवाज़े है और इसी कमरे में सब लोग बातें करते ,ताश खेलते थे । और नानी सबको कहती रहती बिटिया कुछ खाए लो पर हम सब तो धमाल मचाने में लगे रहते थे।

स्टोर रूम में तरह तरह के अचार रकखे होते थे और दोपहर में जब मम्मी और मौसी लोग तिनदरे में कूलर की हवा (क्योंकि उस समय ए. सी नहीं होता था) का मज़ा लेते हुए सोती थी तो हम सब छोटी बहने छुपके से कमरे से बाहर निकल कर खेलने लगती थी ,कभी मममी की साड़ी पहनते थे और कभी आम की खटाई को निकाल कर तो कभी कच्चे आम खाते थे और जिसके लिये कई बार ख़ूब डाँट भी पड़ती थी ।

रात में छत पर सभी लोग सोते थे । छत को ठंडा करने के लिए ख़ूब पानी से धुलाई होती थी फिर लाइन से गद्दे बिछते और कौन कहॉ और किसके पास सोयेगा इसे लेकर आपस में तकरार होती थी । हालाँकि सब बड़ी बहने हम छोटी बहनों को समझा बुझा कर शान्त करती थी। और फिर रात में खुले आसमान के तले हम सब अंताकक्षरी खेलते ख़ूब नाचते गाते। :)

वाह क्या दिन थे ना कोई चिन्ता ना कोई फ़िकर । :)

आम तो गरमी में ही मिलता था तो देसी आम (छोटे वाले ) को बालटी में पानी में भीगा दिया जाता था और सब भाई बहन में कॉमपटीशन होता था कौन ज़्यादा खा सकता है। कई बार गुठली कम ज़्यादा होने पर एक दूसरे के ढेर से चुपके से अपने ठेर में गुठली कर ली जाती थी । लू ना लगे इसलिए सत्तू को घोलकर पिलाया जाता था।

इस तरह कब छुटटियॉ ख़त्म हो जाती थी पता ही नहीं चलता था और वापिस घर को लौटते हुए एक तरफ़ मम्मी नानी और मौसी से गले लग कर रोती थी तो वहीं दूसरी ओर हम बहने गले लग कर रोती थी । और अगली छुट्टी में फिर मिलने का वादा करते थे । :)

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