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Showing posts from June, 2018

गुमराह करने वाले विज्ञापन

कभी कभी कुछ कम्पनियॉं ऐसे विज्ञापन बना देती है जो हक़ीक़त से मीलों दूर होते है ।एड बनाओ पर ऐसा एड नहीं बनाना चाहिये जो किसी को नुक़सान पहुँचा सकता हो । जैसे पहले एक एड आता था ज़िसमें ट्रैफ़िक पुलिस से बचने के लिये स्कूटर चालक तरबूज को हैलमेट के तौर पर पहनता है और ट्रैफ़िक पुलिस उसे पकड़ नहीं पाता है। आजकल रॉयल चैलेंजर जो कि एक बहुत बड़ा ब्रांड है उसका एक एड आ रहा है जिसमें विराट कोहली और एक और लड़के को दिखाया गया है कि दोनों ट्रेन में सफ़र कर रहे है ।और अपनी परेशानी के बारे में सोच रहे है । वैसे दोनों को अलग अलग दिखाया है । ट्रेन पूरी तेज़ रफ़्तार से चल रही है । जहाँ विराट कोहली खड़े होकर कुछ सोचते हुये चल रहे है वहीं दूसरी ओर लड़का अपने लैपटॉप पर अपना इस्तीफ़ा टाइप करता है और कुछ सोच रहा है । और फिर अपना इस्तीफ़ा किसी को इ-मेल से भेज देता है । यहाँ तक तो ठीक है । फिर विराट कोहली को दिखाते है वो अचानक ट्रेन रोकने वाली इमर्जेंसी चेन खींचते है और ट्रेन एक ज़ोर की आवाज़ करते हुये रूक जाती है और विराट कोहली शान से ट्रेन से नीचे कूदते है और चले जाते है ।और एक कैप्शन लिखा आता है मेक

रेलगाड़ी का सफ़र

रेलगाड़ी के सफ़र का अलग ही मजा होता है । पहले जब हम लोग लखनऊ ,कानपुर ,इलाहाबाद और बनारस रेलगाड़ी से जाते थे तो उसका वो काला इंजन भक- भक करके धुआँ उड़ाता जब चलता था तो कई बार खिड़की से बाहर झाँकने पर धुयें के कण आँखों में भी पड़ जाते थे । पर फिर भी बाहर झाँकने से बाज़ नहीं आते थे 😊 बाद में डीज़ल और बिजली वाले इंजन आने के बाद वो कोयले से चलने वाले काले इंजन का ज़माना ही समाप्त हो गया । हालाँकि पहले इतनी जनसंख्या नहीं थी पर तब भी ट्रेन में हमेशा भीड़ ही होती थी । उस समय तो रेल के डिब्बों की खिड़कियों में ग्रिल भी नहीं होती थी ,एकदम खुली खिड़की जिसमें से लोग बच्चों को वहीं से सीट रोकने के लिये अन्दर कर देते थे क्योंकि छोटी दूरी के लिये तब कोई रिज़र्वेशन नहीं होता था । और दरवाज़े पर ज़बरदस्त धक्का - मुक्की होती थी । 😁 सत्तर के दशक तक तो ज़्यादातर ट्रेनों में थर्ड क्लास ,सेकेंड क्लास और फ़र्स्ट क्लास ही होता था और बाद में राजधानी में ही ए.सी के डिब्बे और चेयर कार होती थी । पहले सेकेंड और फ़र्स्ट क्लास में खूब यात्रा की है और बड़ा मजा़ भी आता था । स्टेशन पर पहुँचते ही सबसे पहले बुक स्टा

ढेर सारे भाई-बहन का ज़माना

हमारे स्कूल के वहाटसऐप गुरुप पर हम लोगों की दोस्त ने एक लड़की ( अब हम लोग अपने गुरूप में सबको लड़की ही बोलते है 😀 ) की फ़ोटो शेयर की और कहा कि इसे पहचानो और इसका नाम बताओ । खैर हमने नाम और शक्ल तो नहीं पहचानी पर उसके दिये हुये हिंट पर ये पूछने पर कि क्या ये कई सारी बहनें है । तो हमारी दोस्त ने कहा हाँ । वैसे उस ज़माने में तो रिवाज ही ज़्यादा बच्चों का था । 😋 अब पहले के ज़माने में तो बच्चों को भगवान की देन माना जाता था और इसीलिये हर घर में ढेर सारे बच्चे होते थे । हमारी मम्मी कुल सात भाई बहन थे । और हर एक के कम से कम पाँच बच्चे या उससे ज़्यादा बच्चे ,बस हमारे दो छोटे मामा में एक मामा के दो बेटे और दूसरे मामा के दो बेटे और एक बेटी है । कुल मिलाकर ३७ भाई बहन । 😛 हमारे मोहल्ले में भी हर घर में पाँच से ज़्यादा ही बच्चे थे । एक परिवार में तो पाँच भाई और पाँच बहन है । कुल मिलाकर दस ।हर घर में लड़कियों की संख्या ज़्यादा । सबसे मज़ेदार सारी बहनें चूँकि एक ही स्कूल में पढ़ती थी तो हर उम्र की बहन के साथ दूसरी लड़की की कोई ना कोई बहन पढ़ती ही थी । वैसे हमारे स्कूल वाले वहाटसऐप गुरूप में ज

प्लास्टिक के कूड़े की जटिल समस्या

दो दिन पहले महाराष्ट्र सरकार ने प्लास्टिक के उपयोग पर पूरी तरह से रोक लगा दी है और प्लास्टिक के बैग के साथ पाये जाने पर फ़ाइन भी देना पड़ेगा । और उम्मीद करते है कि ये अभियान सफल हो । वैसे कुछ महीने पहले दिल्ली में भी प्लास्टिक बैग और अन्य प्लास्टिक की चीज़ों पर बैन लगाया था और फाइन भी लगाया था पर बस कुछ दिन बाद सब कुछ फिर पहले जैसा हो गया । मललब हर जगह प्लास्टिक का प्रयोग दुबारा शुरू हो गया । क्योंकि यहाँ पर फाइन शायद कम था । 🙁 वैसे इस प्लास्टिक की समस्या और पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाने में हम सबका भी बड़ा हाथ है । क्यों आपको ऐसा नहीं लगता है । हमें याद है हमारी मम्मी घर में कपड़े के झोले जी हाँ पहले झोला ही हुआ करता था ,जिसे अब बैग कहते है बनाकर रखती थी और जब भी नौकर फल सब्ज़ी या कुछ और सामान लेने जाता था तो हमेशा कपड़े के झोले में ही सामान लाता था । और सभी दुकानों पर वो चाहे फल -सब्ज़ी की हो या फिर राशन या पंसारी की हो सभी अखबार के बने हुये पैकेट रखते थे । और इनमें ही सामान देते थे । अस्सी के दशक तक तो प्लास्टिक का कम ही इस्तेमाल होता था । उस समय तो शादी ब्याह में भी खाने पी

पेड़ों की क़ुर्बांनी क्यों ?

आज सुबह अखबार में ये ख़बर पढ़ी कि दिल्ली के कुछ एरिया जैसे सरोजनी नगर ,नैरोजी नगर तथा कुछ और पश्चिमी दिल्ली की पुरानी कॉलोनियों को तोड़कर वहाँ दुबारा बहुमंज़िला इमारत बनने वाली है । बहुमंज़िला बिल्डिंग बनाना तो ठीक है पर इन्हें बनाने के लिये पेड़ों को भी काटना पड़ेगा । और पेड़ भी हज़ार दो हज़ार नहीं बल्कि सत्रह हज़ार से ज़्यादा पेड़ों की क़ुर्बांनी होगी । जबकि अभी तकरीबन इक्कीस हज़ार से ज़्यादा पेड़ है । तो सोचिये भविष्य में दिल्ली का क्या होगा । एक तरफ़ तो कहा जाता है कि पेड़ लगाओ और दूसरी तरफ़ सालों पुराने पेड़ों को काटकर बिल्डिंग बनाई जा रही है । वैसे ही दिल्ली में अब काफ़ी कम पेड़ रह गये है । पर अगर इसी तरह पेड़ काटकर बिल्डिंग बनती रही तो वो दिन दूर नहीं जब हर तरफ़ सिर्फ़ बिल्डिंग ही बिल्डिंग दिखाई देगी ।

अन्तराष्ट्रीय योग दिवस

आज २१ जून को ना केवल हिन्दुस्तान बल्कि पूरे विश्व में योग दिवस मनाया जा रहा है । तो सबसे पहले तो योग दिवस की आप सबको बधाई । वैसे योग हज़ारों सालों से हमारे ऋषि मुनि लोग करते रहे है । और ये माना जाता है कि योग से तन और मन दोनों स्वस्थ रहते है । योग से जहां मन शांत रहता है तो वहीं शरीर स्वस्थ रहता है । योग हमेशा से ही स्वास्थ्य के लिये अच्छा माना जाता रहा है ।जब हमने नब्बे के दशक में योगा सीखा था तब भी लोग स्वस्थ रहने के लिये योगा किया करते थे । वैसे आजकल लोग योगा को लेकर कुछ ज़्यादा ही जागरूक हो गये है जो कि बहुत अच्छी बात है । अपने देश में समय समय पर दूरदर्शन पर भी योग गुरू होते रहे है। जैसे पहले धीरेन्द्र ब्रह्मचारी थे और एक सहगल नाम के भी योग गुरू होते थे । और फिर आये बाबा रामदेव जिन्होंने आस्था चैनल पर सुबह चार बजे से जो योग सिखाना शुरू किया कि बस हर कोई योगमय हो गया । अब तो योगा इतना अधिक प्रचलित हो गया है कि बहुत सारे योग संस्थान खुलते जा रहे है और अच्छी खासी फ़ीस देकर लोग योगा में प्रशिक्षण लेने लगे है । आज जहाँ मोदी जी ने पचास हज़ार लोगों के साथ देहरादून में योग किया व

अर्बन क्लैप से दुखी हो गये

वैसे आमतौर पर अर्बन क्लैप की सर्विस से हम ख़ुश ही रहते है पर अबकी बार हम इनकी सर्विस से ख़ुश नहीं बल्कि चीटेड महसूस कर रहें है । वो क्या है कि हमारे एक ए.सी. से पानी गिर रहा था तो हमने अर्बन क्लैप में ए.सी रिपेयर के लिये बुक किया जिसमें पूरी तरह से ए.सी. को देख कर उसकी प्रोब्लम को पकड़ना और ठीक करना लिखा था । साथ ही ये भी लिखा था कि फ़ाइनल चार्जेज़ इन्सपेकशन पर आधारित होगा और २४९ रूपये विजिटिंग चार्ज है अगर कोई सर्विस नही ली जाती है तो । खैर हमने ऑनलाइन २४९ रूपये का पेमेंट किया । और अगले दिन उनका आदमी काम करने आ गया । उसने ए.सी. देखा और छत पर लगे यूनिट को भी देखा और फिर नीचे तार देखकर बताया कि तार जल गया है और फिर उसने तार काटकर टेप लगा दिया और ए.सी चलाया तो ए.सी. काम करने लगा । फिर उसने हमसे २४९ रूपये माँगे तो हमारे कहने पर कि हमने ऑनलाइन पेमेंट की हुई है उसने कहा कि ये ए.सी.रिपेयर का चार्ज है । तो हमें बड़ा अजीब लगा और हमने उनके कसटमर केयर पर फोन किया और सब बताया तो उन्होंने अपने टेक्नीशियन से बात की और हमसे कहा चूँकि उसने तार जोड़ा है तो इसलिये हमें २४९ रूपये और देने पड़ेंगे ।

फ़ीफ़ा फीवर

आजकल विदेश ही नहीं अपने हिन्दुस्तान में भी लोग फ़ुटबॉल के दीवाने हो रहे है । जब से फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप शुरू हुआ है तब से हर तरफ़ फ़ुटबॉल का सुरूर सा दिखाई दे रहा है । वैसे अपने हिन्दुस्तान में बंगाल,गोवा,अंडमान निकोबार और उत्तर पूर्व के राज्यों में फ़ुटबॉल एक लोकप्रिय खेल है और लोगों मे ये खेल काफ़ी प्रचलित भी है । वैसे अब तो लोग भारतीय फ़ुटबॉल खिलाड़ियों के नाम जानने लगे है जैसे बाइचंग भूटिया , सुनील छेत्री और भारतीय गोलकीपर गुरप्रीत सिहं ,वरना पहले तो फ़ुटबॉल के नाम पर पेले को ही जानते थे पर बाद में माराडोना ,बैखम,मैसी,जिडान ,रोनालडो,रोनालडिनो, जैसे खिलाड़ियों के ही नाम जानते थे । वैसे जब भी फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप होता है तो हम भी कुछ मैच देखते है । हाँ हर मैच तो नहीं पर ब्राज़ील ,जर्मनी ,अर्जेंटीना,फ़्रांस पुर्तगाल जैसी टीमों के मैच देखते है अगर बहुत रात में नहीं आते है तो । पर अगर गोल नहीं होता है तो मैच बड़ा बोरिंग लगता है । जैसे शनिवार को अर्जेंटीना वाले मैच में मैसी कोई गोल नहीं कर पाये तो वहीं रविवार वाले जर्मनी के मैच में जर्मनी की टीम कोई गोल नहीं कर पाई जबकि जर्मनी पिछले वर्ल

आख़िर लोग पैट (डॉगी ) क्यूँ पालते है

द्वारका में आजकल बड़ी आम सी बात हो गई है कि लोग अपने पालतू डॉगी यहाँ छोड़ जाते है । अगर डॉगी पाला है तो फिर उसे इस तरह से सड़क पर कैसे छोड़ देते है । अगर उसे एक दिन सड़क पर लावारिस छोड़ना ही है तो पालते ही क्यूँ है । तीन चार दिन पहले जब हम लोग वॉक के लिये गये तो एक पॉमरेनियन डॉगी दिखाई दिया था पर फिर दो दिन तक वो नहीं दिखा तो लगा कि वहीं आस पास रहने वाले किसी का पालतू डॉगी होगा जो बिना लीश के घूम रहा होगा । पर आज जब हम वॉक के लिये गये तो देखा कि वो फिर से सड़क पर है । सबसे बड़ी बात कि अगर अपने प्यार से पाले हुये डॉगी को घर में नहीं रख सकते है तो कम से कम सड़क पर तो मत छोड़ो । ऐसी कितनी सारी संस्थायें है जहाँ लोग अपने बीमार डॉगी को छोड़ सकते है । पर शायद संस्था में ये बताना पड़ता होगा कि आप अपने डॉगी को संस्था में क्यूँ रखना चाहते है । और शायद इसी सवाल से बचने के लिये वो इन बेज़ुबानों को सड़क पर छोड़ जाते है । इससे अच्छा है कि पालो ही मत ।

पापा

परिवार में माँ और पापा दोनों का स्थान बराबर होता है । पापा एक ऐसा स्तंभ जिसकी छत्र छाया में हम बच्चे बडे होते है । पिताजी,पापा,बाबूजी जैसे ये सारे सम्बोधन हमें ये एहसास दिलाते है कि हमारे सिर पर उनका प्यार भरा हाथ है । और हम बिना किसी चिन्ता या फ़िकर के रहते है क्योंकि हमें पता है कि हम तक पहुँचने से पहले उस चिन्ता या परेशानी को पापा से होकर गुज़रना है । हमारे पापा से ना केवल है हम भाई बहन बल्कि हमारे सभी कज़िन भी बहुत खुलकर बात कर लेते थे क्योंकि ना तो मम्मी ने और ना ही पापा ने कभी हम बच्चों से कोई दूरी रकखी । हम लोगों को कोई भी परेशानी होती तो झट से पापा को बताते थे । कभी कभी मम्मी हम लोगों को ज़रूर डाँटती थी और पिटाई भी कर देती थी पर पापा ने कभी भी हम लोगों को डाँटा हो ,ऐसा कभी याद हुआ । कई बार मम्मी कहती भी थी कि बच्चों को कभी कभी डाँटा भी करिये । पर पापा तो पापा ही थे । बचपन से हम सब की आदत थी कि जब पापा शाम को घर आते थे तो सारा परिवार उनके कमरे में बैठता था और एक डेढ़ घंटे खूब बातें हुआ करती थी ।पापा अपने क़िस्से सुनाते और हम सब अपनी बातें बताते थे । बाद में जब हम सबकी शादी

चलती का नाम जिंदगी

क्यूँ ग़लत तो नहीं कह रहे है ना । जन्म लेने के पहले से ही ज़िंदगी चलने लगती है ।और इसकी शुरूआत माँ की कोख से शुरू हो जाती है । जन्म लेने के बाद जैसे जैसे ज़िंदगी चलने लगती है वैसे वैसे हम बहुत कुछ सीखते जाते है । कभी गिरते है तो कभी उठते है कभी हँसते है तो कभी रोते है ,कभी जीतते है तो कभी हारते है पर कभी रूकते नहीं है । और शायद इसी का नाम ज़िंदगी है । वो गाना तो सुना ही होगा --- जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबहो शाम । एक और पुराना दोस्त फ़िल्म का गाना याद आया ---गाड़ी बुला रही है ,सीटी बजा रही है ,चलना ही ज़िंदगी है चलती ही जा रही है । नीचे वाले गाने में जीवन और जीवन से जुड़ी समस्याओं और ट्रेन की इतनी सुंदरता से बराबरी करी गई है कि उस समय के गीतकार की सोच की तारीफ़ किये बिना नहीं रह सकते है । जो लोग रेल से कटकर आत्महत्या करते है उनके लिये बहुत ही सुंदर संदेश गीत के माध्यम से दिया है -- गाड़ी का नाम ना कर बदनाम पटरी पर रख कर सिर को , हिम्मत ना हार पर कभी कभी लोग जीवन के इसी उतार चढ़ाव से घबराकर अपनी ज़िंदगी ही ख़त्म कर देते है । पर ऐसा करते हुये क्या वो एक बार भी अपने परिवा

धूल धूसरित दिल्ली

इस साल गरमी का मौसम कुछ अलग ही चल रहा है । अभी तक गरमी,तपन और लू तो चल ही रही थी पर आजकल तो दिल्ली और एन.सी.आर धूल धूसरित हो रहे है । जहाँ तक हमें याद है ऐसा धूल धूसरित मौसम हमने पहले नहीं देखा है । हाँ आँधी ज़रूर चलती थी पर उसके बाद बारिश हो जाती थी और मौसम ख़ुशगवार हो जाता था । वैसे हर साल कम से कम एक -दो बार तो ज़बरदस्त आँधी तूफ़ान के साथ बारिश होती ही थी पर इस साल ज़रा अलग सा मौसम चल रहा है ।पिछले हफ़्ते चली आँधी में तो हमारा अचार भी उड़ गया । अब हँसिये मत वो क्या है ना कि जब तेज़ आँधी चली तो हम अचार का जार (छोटा ) बालकनी से उठाना भूल गये और जब आँधी के शांत होने के बाद हमें अचार की याद आई तब तक बड़ी देर हो चुकी थी । पिछले कुछ दिनों में २-३ बार तो खूब तेज़ धूल भरी आँधी चली और जब ये आँधी आती है तो पूरा घर धूल से भर जाता है । सब कुछ खुस खुस करने लगता है । जहाँ हाथ रकखो वहाँ बस धूल ही धूल । कितनी भी सफ़ाई कर लो धूल वापिस आ जाती है और हर चीज़ खसराती सी है । और अब तो पिछले दो दिनों से तो धूल भरा वातावरण हो गया है । आसमान तो दिखता है मगर भूरा भूरा सा । धूल की भूरी सी एक चादर चारों

लोग ऐसे कैसे होते है

हमारे पड़ोस में एक परिवार रहता है ,पति पत्नी दोनों आर्मी में डाक्टर है । परिवार छोटा है मतलब पति पत्नी और एक डेढ़ साल की बेटी । अब चूँकि बच्ची छोटी है इसलिये वो सुबह सुबह सात बजे ही कूड़ा घर के बाहर रख देती है और समझाने पर कि जब कचरे वाला आये तो कूड़ा डालना चाहिये तो उनका कहना है कि बेटी सोती है और घंटी की आवाज़ से वो डिस्टर्ब्ड हो जायेगी और इसलिये वो सुबह सबेरे कचरा बाहर रख देती है । हालाँकि अब बच्ची सुबह खेलती हुई भी दिखती है । हमने तो उनसे ये भी कहा कि आप तो डाक्टर हो फिर भी ऐसा काम करती हो तो उसका ये कहना था कि कचरे वाले के आने का समय निश्चित नहीं है इसलिये वो कचरा घर के बाहर रख देती है । जबकि आम तौर पर कचरे वाला सुबह नौ से दस के बीच में आता है । अब उन्हें कौन समझाये कि इस कचरे की वजह से कभी कभी बिल्ली भी आ जाती है और सब कचरा फैला जाती है । ऐसा लगता है मानो आजकल के लोग ही सिर्फ़ बच्चा पालना जानते हों ।बच्चा सो रहा है तो कोई चूँ भी ना करे । कोई घंटी ना बजाये । ऐसा लगता है मानो हमने तो बच्चे ही नहीं पाले है । अरे हम ने भी दो बच्चे पाले पर कभी भी उनके सोने या जागने को लेकर इतन

कारा नेल पॉलिश रिमूवर वाइप्स

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इस बार हफ़्ते की शॉपिंग में हमने नेल पॉलिश रिमूवर ख़रीदा । अब इसमें नया क्या है क्योंकि नेल पॉलिश रिमूवर तो सभी लोग ख़रीदते रहते है । चलिये बताते है दरअसल में ये कारा नेल पॉलिश रिमूवर वाइप्स ऑरेंज है । और इन वाइप्स में संतरे यानि ऑरेंज के साथ साथ ऑलिव ऑयल और विटामिन ई भी है । और ये ऐसीटोन रहित है । मतलब कैमिकल्स नहीं है । इसके एक डिब्बी में ३० वाइप्स है और एक वाइप्स से १० नाखूनों पर लगी नेल पॉलिश हटा सकते है । ऐसा ये कम्पनी कहती है । स्पाइका टैक्नीटेक प्राइवेट लिमिटेड जो सावली ,वडोदरा ,गुजरात की कम्पनी है ने ये नेल पॉलिश रिमूवर वाइप्स बनाई है । इसकी एक डिब्बी का दाम ९५ रूपये है पर ऑफ़र में ९५ में दो डिब्बी दी है । :) अब यूँ तो इसकी एक्सपाइरी डेट मई २०१९ तक है । देखते है कितने दिन चलती है । वैसे हमने इसे इस्तेमाल किया और एक वाइप से हाथ की पाँच उँगलियों की नेल पॉलिश हटाई । हालाँकि जब इसे इस्तेमाल करते है तो संतरे की महक सी आती है और थोड़ा सा तैलीय मतलब ऑयल सा नाख़ून पर और हाथ में लगता है ।वो शायद इसलिये क्योंकि इसमें ऑलिव ऑयल है । इसीलिये नेल पॉलिश हटाने के बाद हमने हाथ धो लिया

मिलावट की इंतहा

मिलावट का ज़माना है जी । कुछ ग़लत तो नहीं कह रहें है ना । आजकल तो हर खाने पीने की चीज़ में मिलावट होने लगी है । चीनी ,चावल,मसाले ,घी,तेल हर चीज़ में मिलावट होने लगी है ।समझ नहीं आता है कि खायें तो क्या खायें । अब ऐसा नहीं है कि पहले ऐसी बातें नहीं होती थी । पहले भी कभी दूध में तो कभी खोये (मावा ) में मिलावट होने की ख़बर आती थी । और कभी कभार मसालों में कुछ कुछ मिला होने की ख़बरें आती थी । पर फल और सब्ज़ी में कम से कम मिलावट की बात नहीं होती थी । पर आजकल तो ऐसा लगता है कि फल और सब्ज़ियों में सबसे ज़्यादा मिलावट होने लगी है । कैमिकल्स की मदद से पकाया हुआ केला हो या ज़रूरत से ज़्यादा मीठा ख़रबूज़ा और तरबूज़ा । जाड़े में मिलने वाला अमरूद बाहर से हरा और अन्दर से बिलकुल गुलाबी होता है और जिसे बेचने वाले इलाहाबाद का अमरूद कहकर धड़ल्ले से बेचते है । अब इलाहाबाद के सारे के सारे अमरूद तो अन्दर से गुलाबी नहीं होते है । जबकि बाहर से लाल ज़रूर होते है । हमेशा नही पर कभी कभी जब जामुन को थोडी देर पानी में भिगा देते है उसमें से नीला सा रंग निकलता है । हमें अच्छे से याद है कि पहले तरबूज़ा ,ख़रबू

पानदान

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चंद रोज़ पहले हम डी.एल.एफ के एक रेस्टोरेंट नमक मंडी में खाना खाने गये थे । और वहाँ खाने के बाद में सौंफ और सुपारी एक पानदान में पेश की गई और उस पानदान को देखकर बहुत सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गई । हमारे घर में हमारी मम्मी को पान खाने का बहुत शौक़ था और वो हमेशा पानदान रखती थी । पानदान जिसे हम लोग पनडबबा भी कहते थे । दरअसल हमारे ननिहाल में भी सभी लोगों को पान खाने का बेहद शौक़ था । और वहाँ भी हमेशा पानदान रहता था । चाय की तरह ही हमारे मौसी और मामा लोग पान खाया करते थे मतलब हर समय पान खाने को तैयार । 😋 मम्मी को जितना पान खाना पसंद था पापा को पान उतना ही नापसंद था पर पापा ने मम्मी को कभी भी पान खाने से रोका नहीं । पहले घरों मे बॉक्स रूम होता था और चूँकि पापा को पान नापसंद था इसलिये मम्मी पनडबबा बॉक्स रूम में ही रखती थी क्योंकि जब भी मम्मी पानदान खोलती थी तो एक ख़ुशबू से फैल जाती थी । पानदान में सबसे ऊपर प्लेट में एक पतले ,गीले से झींने से कपड़े में पान के पत्ते रखे होते थे । उस प्लेट के नीचे छोटी छोटी ढक्कनदार कटोरियाँ और उनमें छोटे छोटे चम्मच (डंडियां ) होते थे जिनमें कतथा, चूना ,

तमीज़ और अदब

कल हमारे एक वहाटसऐप ग्रुप पर हमारी एक दीदी ने पोस्ट लगाई और उस पर हमारी एक कज़िन ने उनका नाम लिखते हुये लिखा कि ....जोक्स बडे अच्छे थे । पाँच या दस मिनट बाद जब हमारी कज़िन दुबारा ग्रुप पर गई तो उसे अपना लिखा हुआ कमेंट देख कर बहुत बुरा लगा और उसने फ़ौरन लिखा कि ग़लती से ऐसा लिख गया था । और उसने ये भी लिखा कि सब ग्रुप पर सोचेंगे कि हम कितने बदतमीज़ हो गये है जो दीदी का नाम ले रहे है । हमारे कहने पर कि सब जानते है कि तुम हम सबकी कितनी इज़्ज़त करती हो । पर तब भी उसे बुरा लग रहा था कि उसने दीदी को नाम लेकर कैसे लिख दिया । क्योंकि हमारी कज़िन हम लोगों से छोटी है । हम लोग भी अपनी हम उम्र दीदी को नाम से ही बुलाते है । पर जो पाँच दस साल बड़ी है उन्हें हमेशा दीदी ही बोला है । पर आजकल तो छोटे भाई -बहन बडे का खूब नाम लेते है । भले वो दस साल छोटे ही क्यूँ ना हो । और कमाल की बात ये है कि माँ बाप भी ख़ुश होते है । कि कितने प्यारे अंदाज में नाम लेकर बोल रही है । भइया और दीदी कहने का ज़माना अब नहीं रहा । वैसे भी आजकल एक या दो बच्चों का चलन है । पर फिर भी सवाल ये है कि अगर बच्चों को सिखाया या बताया

वीरे दी वैडिंग

कल हमने वीरे दी वैडिंग फ़िल्म देखी । अब मूवी देखूँ और लिखूँ नही ऐसा कैसे हो सकता है । कभी कभी तो फ़िल्म के नाम से फ़िल्म के बारे में पता चल जाता है पर इस फ़िल्म के नाम से कुछ समझना मुश्किल है । चार बचपन की सहेलियाँ जो दस साल बाद वीरे की शादी के लिये दिल्ली में इकट्ठा होती है । इन दस सालों में सबकी ज़िन्दगी बदल गई है । एक सहेली चूँकि घर से भागकर शादी करती है इसलिये परिवार उसे अपनाने के लिये तैयार नहीं तो वहीं दूसरी जिसकी शादी में मॉ बाप ने करोड़ों रूपये ख़र्च करे वो तलाक़ ले रही है तो तीसरी की मम्मी शादी करने के लिये उसके पीछे पड़ी रहती है और चौथी सहेली लव मैरिज करने को तैयार है । इन चारों सहेलियों के सोच विचार ,रहन सहन सब कुछ तकरीबन एक जैसा है । अमीर परिवार, ऊपर से सब अच्छा पर असलियत में सब कुछ टूटा हुआ ,आज़ादी जिसके मायने इस फ़िल्म में कुछ अलग से दिखे । कुछेक डॉयलॉग्स बड़े मज़ेदार है जैसे शादी झगड़े की फ़ाउन्डेशन है या जब हीरो घर आता है और माँ उसे देखकर पूछती है कि बेटा तुम आ गये तो वो बडे मज़े से जवाब देता है कि नहीं रास्ते में हूँ । 😀 कुछ शब्द जिन्हें पहले सिर्फ़ इंगलिश फ

हर कोई चाहता है

इस भीषण गरमी से राहत पाना । 😀 पर लगता है इन्द्र देव अभी कृपा करने के मूड में नहीं है । आते भी है तो वायु देव उन्हें उड़ाकर ले जाते है । आजकल तो तापमान पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं है बाहर की खिली हुई धूप देखकर ही अंदाजा हो जाता है । सुबह सबेरे से ही सूर्य देव अपनी कृपा बरसाने लगते है तो भला दिन में वायु देव कैसे पीछे रहें । 😊 दोपहर तो दूर की बात है दस बजे के बाद तो ऐसा लगता है मानो बारह बज गये हों । और लू का तो अपना ही मिज़ाज है । आजकल तो ए.सी.का ज़माना है पर चूंकि गरमी इतनी ज़्यादा होने लगी है कि बहुत बार ए.सी. भी असर कम करता है । पर एक समय था जब खस के परदे ( जिन्हें बीच बीच में पानी से तर किया जाता था )और कूलर से ही इतनी ठंडक मिल जाती थी कि दिन की गरमी का एहसास ही नहीं होता था और रात तो छत पर सोने में मज़े से गुज़र जाती थी । आज सुबह ही हम अख़बार में पढ़ रहे थे कि प्लास्टिक की वजह से गरमी और लू दोनों ज़्यादा होने लगी है । पर हम लोग ये कैसे भूल जाते है कि दिनों दिन पेड़ों की संख्या घटती जा रही है । जब पेड़ नहीं होगें तो बारिश कैसे होगी । अब जब बारिश नहीं होगी तो गरमी से बचने का उपाय

दिनों दिन मिलते नम्बर

चंद रोज़ पहले दसवीं और बारहवीं के इम्तिहान के नतीजे आये थे जिसमें कुछ बच्चों को तकरीबन सौ प्रतिशत नम्बर मिले अब अगर ५०० में से ४९९ मिले है तो सौ प्रतिशत ही हुआ ना । इन बच्चों के रिज़ल्ट पढ़ और देख कर लगा कि वाक़ई आजकल के बच्चे बड़े तेज़ होते है । अब हम लोगों के समय में तो अगर साठ प्रतिशत नम्बर आ जाता था तो सब लोग ये सोचकर खूब ख़ुश होते थे कि चलो फ़र्स्ट क्लास में पास हो गये । वैसे तब तो पचास -पचपन प्रतिशत भी अच्छा ही माना जाता था पचपन प्रतिशत के ऊपर वाले को गुड सेकेंड क्लास कहा जाता था ।और जहाँ तक हमें याद है तब तो सत्तर या ज़्यादा से ज़्यादा पचहत्तर प्रतिशत पर लोग टॉप कर जाते थे । हम लोगों के समय में भी कुछ लोगों को अस्सी प्रतिशत नम्बर मिलते थे पर ऐसे बच्चों की संख्या काफ़ी कम होती थी । । मैथ्स और साइंस के अलावा संस्कृत और म्यूज़िक वाले विषयों में ही डिस्टिंशन मिलता था मतलब ७५ से ऊपर नम्बर आना । और बहुत कम लोगों को पूरे सौ नम्बर मिलते थे । पर अब तो गुड सेकेंड क्लास और फ़र्स्ट क्लास की कोई पूछ ही नहीं है । कहीं गिनती में भी नही आते है । हालाँकि हमारे बेटों के समय में बच्चों को