जब फिल्मी गीतों की किताब ने खोली पोल .... :)
सिनेमा या फ़िल्म इस शब्द का ऐसा नशा था क्या अभी भी है कि कुछ पूछिए मत ।वैसे भी ६०-७० के दशक मे film देखने के अलावा मनोरंजन का कोई और ख़ास साधन भी तो नही था । बचपन मे भी कभी पापा या मम्मी ने film देखने पर रोका नही मतलब हम लोगों के घर मे फ़िल्म देखने पर कभी भी कोई भी रोक- टोक नही थी ।बल्कि अच्छी इंग्लिश फ़िल्म तो पापा हम लोगों को ख़ुद ही दिखाने ले जाते थे .
और हम लोग अक्सर सपरिवार film देखने जाया करते थे ।और वो भी शाम यानी ६-९ का शो ।और फ़िल्म देखने के लिए स्कूल से आते ही फटाफट पढ़ाई करके बस तैयार होने लग जाते थे । पर हाँ पापा इस बात का जरुर ध्यान रखते थे कि film अच्छे हॉल मे लगी हो । इलाहाबाद मे उस ज़माने में सिविल लाईन्स का पैलेस और प्लाजा और चौक मे निरंजन सिनेमा हॉल हम लोगों का प्रिय हॉल था । वैसे अगर पिक्चर अच्छी हो तो कभी-कभी चौक मे बने विशम्भर और पुष्पराज हॉल मे भी देख लेते थे ।
उस समय film लगी नही कि film देखने का प्लान बनना शुरू हो जाता था । रेडियो पर बिनाका गीत सुन-सुनकर film देखने का तै होता था । और घर मे चूँकि हम ५ भाई-बहन थे तो उस ज़माने का कोई न कोई हीरो या हेरोईन हम पांचों मे किसी न किसी को ख़ास तौर पर पसंद होता था । इसलिए film देखने के लिए बहाने की ज्यादा जरुरत ही नही थी ।पर फ़िर भी हमें कभी-कभी छोटे होने का नुकसान भुगतना पड़ता था ।
इसी बात पर एक वाकया सुनाते है । अपने भाई-बहनों मे चूँकि हम सबसे छोटे है और हम film देखते हुए बहुत रोते थे जैसे मझली दीदी film को देखते हुए हमने रो-रोकर अपनी आँखें सुजा ली थी । :) वैसे अब भी रोते है :)
उस ज़माने मे मीना कुमारी की film देख कर अधिकतर महिलायें रोती ही थी क्योंकि उनकी एक्टिंग इतनी लाजवाब होती थी । और फ़िर हम तो बच्चे ही थे ।
खैर ये बात उन्ही दिनों की है हमें अच्छे से याद है वो गर्मियों के दिन थे जब काजल film आई थी तो सभी लोगों ने सोचा की ममता तो film मे बहुत रोती है तो इसे काजल film न दिखाई जाए और इसलिए पापा और दीदी लोगों ने रात का शो ९-१२ का देखने का प्रोग्राम बनाया । और बस फ़िर क्या था सारे लोग यानी हमारी दीदी लोग हमसे कुछ ज्यादा ही प्यार से बात करने लगी थी । पर हम भी कुछ कम नही थे हमें लग रहा था की जरुर कुछ माजरा है पर कुछ समझ नही पा रहे थे ।
खैर शाम को मम्मी ने सबको फटाफट खाना खिलाया और आँगन मे हमें लेकर लेट गई और दीदी लोगों को बोला कि तुम लोग जाओ और पढ़ाई करो । आम तौर पर हम जल्दी सोने वालों मे से थे पर उस दिन हमें नींद ही नही आ रही थी । और हम आँगन में लेटे-लेटे देख रहे थे कि दीदी लोग धीरे-धीरे तैयार भी हो रही थी । हम जब भी उठने कि सोचते मम्मी कहती कि बेटा सो जाओ । तभी हमें कार कि आवाज सुनाई पड़ी तो हमने मम्मी से पूछ कि पापा कहाँ गए है तो मम्मी ने कहा कि दीदी लोग पढ़ाई नही कर रही थी इसलिए पापा उन्हें डॉक्टर से इंजेक्शन लगवाने गए है । (उस जमाने का ये बहुत ही आम सा बच्चों को फुसलाने का बहाना था ) :)
वो तो अगले दिन पता चला कि कौन सा इंजेक्शन लगवाने गई थी हमारी दीदी लोग क्योंकि अगले दिन घर मे फिल्मी गाने की किताब मिली ।और फ़िर तो रो-रो कर हमने घर सिर पर उठा लिया था ।फिल्मी गाने की किताब आपको याद है की नही । भई उस ज़माने मे सिनेमा हॉल के बाहर गाने की किताब भी खूब बिका करती थी जिसमे ५-६ film के पूरे-पूरे गाने हुआ करते थे और उन गाने की किताबों को खरीदे बिना तो पिक्चर देखना पूरा ही नही होता था । :)
वो दिन और आज का दिन हमने काजल film नही देखी है । क्योंकि उसके बाद कभी काजल फ़िल्म हॉल मे देखने गए नही और t.v पर कभी देखी नही ।
और हम लोग अक्सर सपरिवार film देखने जाया करते थे ।और वो भी शाम यानी ६-९ का शो ।और फ़िल्म देखने के लिए स्कूल से आते ही फटाफट पढ़ाई करके बस तैयार होने लग जाते थे । पर हाँ पापा इस बात का जरुर ध्यान रखते थे कि film अच्छे हॉल मे लगी हो । इलाहाबाद मे उस ज़माने में सिविल लाईन्स का पैलेस और प्लाजा और चौक मे निरंजन सिनेमा हॉल हम लोगों का प्रिय हॉल था । वैसे अगर पिक्चर अच्छी हो तो कभी-कभी चौक मे बने विशम्भर और पुष्पराज हॉल मे भी देख लेते थे ।
उस समय film लगी नही कि film देखने का प्लान बनना शुरू हो जाता था । रेडियो पर बिनाका गीत सुन-सुनकर film देखने का तै होता था । और घर मे चूँकि हम ५ भाई-बहन थे तो उस ज़माने का कोई न कोई हीरो या हेरोईन हम पांचों मे किसी न किसी को ख़ास तौर पर पसंद होता था । इसलिए film देखने के लिए बहाने की ज्यादा जरुरत ही नही थी ।पर फ़िर भी हमें कभी-कभी छोटे होने का नुकसान भुगतना पड़ता था ।
इसी बात पर एक वाकया सुनाते है । अपने भाई-बहनों मे चूँकि हम सबसे छोटे है और हम film देखते हुए बहुत रोते थे जैसे मझली दीदी film को देखते हुए हमने रो-रोकर अपनी आँखें सुजा ली थी । :) वैसे अब भी रोते है :)
उस ज़माने मे मीना कुमारी की film देख कर अधिकतर महिलायें रोती ही थी क्योंकि उनकी एक्टिंग इतनी लाजवाब होती थी । और फ़िर हम तो बच्चे ही थे ।
खैर ये बात उन्ही दिनों की है हमें अच्छे से याद है वो गर्मियों के दिन थे जब काजल film आई थी तो सभी लोगों ने सोचा की ममता तो film मे बहुत रोती है तो इसे काजल film न दिखाई जाए और इसलिए पापा और दीदी लोगों ने रात का शो ९-१२ का देखने का प्रोग्राम बनाया । और बस फ़िर क्या था सारे लोग यानी हमारी दीदी लोग हमसे कुछ ज्यादा ही प्यार से बात करने लगी थी । पर हम भी कुछ कम नही थे हमें लग रहा था की जरुर कुछ माजरा है पर कुछ समझ नही पा रहे थे ।
खैर शाम को मम्मी ने सबको फटाफट खाना खिलाया और आँगन मे हमें लेकर लेट गई और दीदी लोगों को बोला कि तुम लोग जाओ और पढ़ाई करो । आम तौर पर हम जल्दी सोने वालों मे से थे पर उस दिन हमें नींद ही नही आ रही थी । और हम आँगन में लेटे-लेटे देख रहे थे कि दीदी लोग धीरे-धीरे तैयार भी हो रही थी । हम जब भी उठने कि सोचते मम्मी कहती कि बेटा सो जाओ । तभी हमें कार कि आवाज सुनाई पड़ी तो हमने मम्मी से पूछ कि पापा कहाँ गए है तो मम्मी ने कहा कि दीदी लोग पढ़ाई नही कर रही थी इसलिए पापा उन्हें डॉक्टर से इंजेक्शन लगवाने गए है । (उस जमाने का ये बहुत ही आम सा बच्चों को फुसलाने का बहाना था ) :)
वो तो अगले दिन पता चला कि कौन सा इंजेक्शन लगवाने गई थी हमारी दीदी लोग क्योंकि अगले दिन घर मे फिल्मी गाने की किताब मिली ।और फ़िर तो रो-रो कर हमने घर सिर पर उठा लिया था ।फिल्मी गाने की किताब आपको याद है की नही । भई उस ज़माने मे सिनेमा हॉल के बाहर गाने की किताब भी खूब बिका करती थी जिसमे ५-६ film के पूरे-पूरे गाने हुआ करते थे और उन गाने की किताबों को खरीदे बिना तो पिक्चर देखना पूरा ही नही होता था । :)
वो दिन और आज का दिन हमने काजल film नही देखी है । क्योंकि उसके बाद कभी काजल फ़िल्म हॉल मे देखने गए नही और t.v पर कभी देखी नही ।
Comments
नीरज
और हां! मेरे ब्लॊग पर आपकी भी " चतुर पन्क्तियां" आमन्त्रित है.. कोशिश करियेगा! :)
रचना. (www.rachanabajaj.wordpress.com)
Kajal film Tv par dekhi hai..bahut achchee hai..jarur dekheeyega...
-geeton ki kitaaben aaj bhi -'sunday-monday-tuesday etc wale bazaron' mein patri par mil jaati hain...jaise--rafi dard bhare naghme..:D...etc.
main ne kabhi nahin li kyonki gana sun kar usey likhna jayda sahi rahta hai.
--waise bhi Ab ham modern ho gaye hain internet se lyrics le lete hain...
:)
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रोंधी लड़की! मेरी बिटिया भी ऐसी है। रोती भी खूब है और हंसती भी खूब है!
sorry
मैं कन्फ्यूज हो गया था.. आपका लेख तो आज का ही है, लेकिन चूँकि मैंने इसे दुसरे ब्लॉग पर बहुत पहले पढ़ा था, इसलिए भूल होनी स्वाभाविक है... मैं वाकई भूल गया की अभी मार्च का ही महिना चल रहा है... again sorry
गँगा जमुना बह निकलती है काजल फिल्म है अच्छी - अब देख ही लीजिये ..
स स्नेह,
- लावण्या
अल्पना जी किताबें तो मिलती है पर अब जैसा कि आपने कहा कि अब सभी गीत नेट पर ही मिल जाते है ।
संदीप जी आपने हिन्दी टाकीज पर ये लेख पढ़ा होगा ।
और आज हमने इसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया है इसीलिए आपको ये जाना -पहचाना सा लगा ।
आप सबकी राय है तो सोच रहे है कि अब फ़िल्म देख ही ले । :)
इलाहाबाद का विद्यार्थी रहा हूँ। आठ महीने पहले गया था तो पता चला कि पैलेस, प्लाजा, निरन्जन, पुष्पराज और दूसरे भी कुछ पिक्चरहाल बन्द हो चुके हैं। बिना बालकनी की ‘लक्ष्मी’ टॉकीज भी बन्द है। बिशम्भर तो कीडगंज में था शायद।
संस्मरण मजेदार है। अब टीवी और सीडी के बाद पिक्चर जाने का मजा ही खराब हो गया है।
चौक से आपको कुछ ज्यादा ही लगाव था शायद।
अब कहां है...
आप का धन्यवाद