हो गई होली

होली की थकान और ख़ुमारी उतरी या नहीं । 😜

हर साल फ़रवरी बीतने के साथ ही होली के आने का इंतज़ार शुरू हो जाता है । हालाँकि इस साल होली थोड़ा देर से आई पर अच्छा ही हुआ क्योंकि मौसम का जो मिज़ाज चल रहा था मतलब इस साल तो जैसे जाड़ा जाने का नाम ही नहीं ले रहा था । इस साल मार्च के महीने तक ठंडक रही । एक हफ़्ते पहले तक ऐसा लग रहा था कि कहीं स्वेटर पहन कर होली ना खेलनी पड़ जाये । 😁

होली आये और चिप्स पापड़ गुझिया मालपुआ ना बने ऐसा कहाँ हो सकता है । और वैसे भी साल में एक बार ही ये सब बनता है ।और बिन मौसम इन चीज़ों को बनाने का मन भी नहीं करता है । क्यूँ सही कह रहे है ना ।

वैसे होली आने के पहले चिप्स और पापड़ बनाने होते है पर इस बार भगवान जी ने भी खूब धूप छांव का खेल खेला । हमने तो जिस दिन छत पर पापड़ बनाकर डाले उस पूरे दिन हल्की ही धूप रही और थोड़ी बहुत बूंदाबांदी भी हुई । नतीजतन पापड़ छत से उठाकर नीचे लाकर पंखे की हवा में सुखाने पड़े ।

पापड़ ही नहीं आलू की चिप्स का भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ । होली के एक दिन पहले जब छत पर चिप्स डाले तो एक बार फिर से पूरे दिन सूरज देवता लुका छिपी खेलते रहे और जिसकी वजह से चिप्स ठीक से सूख नहीं पाये । 😏

गुझिया को अगर होली की जान कहें तो ग़लत नहीं होगा क्यों कि गुझिया के बिना तो होली के बारे में सोच ही नहीं सकते है । होली और गुझिया बिलकुल पति पत्नी जैसे है । एक के बिना दूसरा अधूरा है । यूँ तो अब बाज़ार में भी गुझिया खूब मिलती है पर घर में बनी गुझिया का स्वाद ही कुछ और होता है ।

गुझिया बनाना भी कोई आसान काम नहीं है और वो भी अकेले । अब पिछले दस बारह साल से तो हम खोवा भी घर पर ही बनाते है । जिससे काम और बढ जाता है कि पहले पहल सुबह खोवा बनाओ और फिर गुझिया । पर जब लोग गुझिया खाकर ख़ुश होते है और तारीफ़ करते है तो गुझिया के लिये की हुई सारी मेहनत सफल हो जाती है ।

मालपुआ बनाने में तो अगर जरा सा रैशियो ऊपर नीचे हो जाये तो मालपुआ एक तरह से रूला देता है मतलब ठीक से नहीं बनता है । बकौल हमारी मम्मी के खपटी-खपटा बन जाता है । मालपुआ बनाने में बडे धीरज से काम लेना पड़ता है । 😜


ये चिप्स पापड़ गुझिया मालपुआ तो होली के एक दिन पहले तक बन जाते है पर होली के दिन तो सबसे पहले सुबह सुबह किचन में कम से कम तीन चार घंटे तो खाना बनाने में निकल जाते है ।


हम लोगों के घर में त्योहार का मतलब है खूब सारा और तरह तरह का खाना बनना । पूड़ी ,कचौड़ी ,सीताफल ,अचारी बैंगन की कलौंजी ( ये भरवाँ बैगन का नाम हमारे भांजे ने कल दिया है ) ,पुलाव,और आलू कटहल की सब्ज़ी तो बननी ही होती है साथ में मीट और मटन कबाब भी बनते है । भले एक दिन पहले तैयारी कर लें पर फिर भी तीन चार घंटे लग ही जाते है ।


और ये सब करने के बाद होली खेलने का प्रोग्राम शुरू होता है । वैसे इस बार तो बिलकुल ही सूखी सूखी होली हुई माने कि सिर्फ़ अमीर गुलाल से । कोई पानी नहीं और ना ही कोई ना छूटने वाले लाल हरे रंग । जिन्हें छुड़ाना मुश्किल ही नहीं कभी कभी नामुमकिन हो जाता था । घिस घिस कर साफ़ करो तब भी चेहरे पर कई दिनों तक अपना निशान छोड़ जाता था । 🤓


वैसे इस बार हमने एक और बात देखी कि अगर पानी और रंगो से ज़्यादा होली ना खेलो तो ज़्यादा थकान भी नहीं होती है और गुलाल तो बस चुटकियों में साफ़ हो जाता है और गुलाल ना लगाने और ना ही लगवाने में कोई कहता है कि अरे अरे हमें रंग मत लगाओ। सब लोग ख़ुशी ख़ुशी गुलाल लगवा भी लेते है । रंग देखकर तो लोग बड़ी दौड़ भाग किया करते थे अरे भाई रंग से बचने के लिये और रंग ना लगवाने के लिये ।


समय के साथ होली का त्योहार भी बदलता जा रहा है । पहले तो शाम को नये कपड़े पहनकर एक दूसरे के घर होली मिलने का भी चलन था पर दिल्ली में अब ये चलन ख़त्म सा होता जा रहा है क्या बल्कि ख़त्म ही हो गया है । पर हाँ यू.पी. में अभी भी ये होली मिलन की परम्परा चल रही है और ऐसा हम इसलिये कह रहे है क्यों कि हमारी दीदी कल शाम अपने मोहल्ले में होली मिलने गई थी ।

हम भी सोच रहे है कि होली के दिन ना सही आज हम भी अपने कुछ जानने वालों के घर होली मिलने को चलें जायें ताकि एक बार फिर से इस परम्परा को शुरू कर सकें ।

ये तो हमारी इस बार की होली की बात और आपकी होली कैसी रही ।

वैसे एक बात कहें हमें तो वो पुराने स्टाइल की होली ही पसंद है । 😂





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