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नये साल का रिज़ोल्यूशन

वैसे हम ज़्यादा रिज़ोल्यूशन जैसी बात में विश्वास नहीं करते है । आम तौर पर हम ना तो कोई रिज़ोल्यूशन ना ही अपने आप से कोई ख़ास वादा या प्रॉमिस करते है । अब इसका एक कारण है । वो क्या है ना कि हमने पिछले साल यानि २०१८ में सोचा और अपने से वादा किया कि इस साल हम कुछ नहीं तो पाँच से सात किलो अपना वज़न घटायेगें । और हमने उस पर अमल भी करना शुरू कर दिया और पाँच सात तो नहीं पर हाँ दो किलो वज़न ज़रूर कम कर लिया था । और अपनी इस उपलब्धि पर हम ख़ुश भी बहुत थे । पर ये क्या जैसे ही जाड़े के मौसम की शुरूआत हुई तो बस सब गड़बड़ हो गया । अब हरी मटर से बनने वाले तरह तरह के व्यंजनों जैसे घुघरी , मटर का पराँठा या पूड़ी , मटर की कचौड़ी ,मटर की टिक्की मटर का निमोना ।😋 पढ़कर मुँह में पानी आ गया ना तो सोचिये जब घर में ये सब बने तो भला कौन वज़न कंट्रोल कर सकता है । और वैसे भी मटर का स्वाद तो इसी मौसम में भाता है । सिर्फ़ मटर ही क्यों गाजर का हलवा ,गोंद के लड्डू , गजक जैसी स्वादिष्ट खाने की चीज़ों के चलते कौन वज़न घटा सकता है । भई हम तो नहीं कर सकते है । 😊 तो फ़िलहाल इस साल नो रिज़ोल्यूशन । इस बार

जाने वाले साल को सलाम ,आने वाले साल को सलाम

जी हाँ आज साल २०१८ का आख़िरी दिन है और इस पूरे साल का लेखा जोखा करें तो साल अच्छा ही गुज़रा बस दो चार बार बीमार पड़ने को छोड़ दें तो । यूँ तो हम २००७ से ब्लॉगिंग कर रहे थे पर इस साल फ़रवरी से हमने फेसबुक पर अपना ब्लॉग लिखना शुरू किया । २०१८ में स्कूल की सहेलियों से खूब मुलाक़ातें हुई । आने वाले साल यानि २०१९ के लिये उम्मीद है कि अच्छा ही गुज़रेगा । ज़्यादा लम्बी पोस्ट नहीं लिखेंगें क्योंकि जानते है हमारी तरह आप सब भी नये साल के स्वागत की तैयारी में होगें । तो चलिये आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें ।

छब्बीस दिसम्बर २००४ यानि सुनामी

हर साल छब्बीस दिसम्बर आने पर सुनामी याद आ ही जाती है । और छब्बीस दिसम्बर की वो सुबह जब समुद्र की लहरों ने सब कुछ बदल दिया था । आज चौदह साल बाद भी सुनामी की बात करते हुये मेरे रोंगटे से खड़े हो जाते है क्योंकि उस दिन जो इतना तीव्र भूकम्प आया था और जब उसके बाद समुंदर ने अपना रौद्र रूप दिखाया था उसे भला कैसे भूल सकते है । आज भी जब उस दिन की बात करते है तो जैसे वो पूरा मंज़र आँखों के सामने घूम जाता है । रविवार की सुबह छ: बजे हम लोग सो रहे थे जब बहुत तेज़ भूकम्प आया तो पहले तो समझने में समय लगा कि फिर देखा कि अलमारी, दरवाज़े सब धड़ धड़ करके हिल रहे है तो झट से उठे और बेटे को आवाज़ लगाई कि जल्दी उठो भागो भूकम्प आया है । अंडमान के पोर्ट ब्लेयर में हम लोग दुमंज़िला ( डुप्लेक्स ) घर में रहते थे और चूँकि ऊपर की मंज़िल पर हम लोगों के कमरे थे तो सीढ़ी से नीचे भागते हुये सँभलना पड़ रहा था क्योंकि सीढ़ी इतनी ज़ोर ज़ोर से हिल रही थी कि जैसे राजधानी ट्रेन चल रही हो । और जैसे ही हम सीढ़ी से उतरे तो गिर पड़े क्योंकि ज़मीन तो और ज़ोर से हिल रही थी और हम सँभल ही नहीं पाये थे । घर से बाहर खड़े होकर

क्रिसमस और बड़ा दिन

बचपन से लेकर आज तक हम क्रिसमस मनाते चले आ रहे है । और हर साल पूरे जोश के साथ क्रिसमस ट्री सजाना , गिफ़्ट ख़रीदना और केक और पार्टी मतलब स्पेशल खाना । वैसे पहले तो लोग क्रिसमस कम मनाते थे पर अब तो हर कोई क्रिसमस मनाता है जो कि एक तरह से अच्छी बात है । पहले सिर्फ़ चर्च या जो क्रिसचियन होते थे उन्हीं के घर वग़ैरा सजते थे पर अब तो हर मार्केट में क्रिसमस का जोश दिखाई देता है । बाक़ी त्योहारों की तरह हम क्रिसमस भी मनाते है । दरअसल इसका भी एक कारण है । जब हम छोटे थे तो हम लोग म्योराबाद जो कि एक ज़माने में ईसाई बस्ती भी कही जाती थी वहाँ रहते थे । जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है ईसाई बस्ती वो इसलिये कि वहाँ पर सारे घर ईसाइयों के थे बस दो चार घर ही हिन्दुओं के थे । बहुत ही छोटा सा मोहल्ला था और गिने चुने लोग होते थे । हर कोई सबको जानता था । हालाँकि आज का म्योराबाद बहुत बदल गया है अब तो ये काफ़ी बड़ी और विकसित कॉलोनी बन गई है । जब क्रिसचियन कॉलोनी मे रहते थे तो ज़ाहिर सी बात है हमारी दोस्तें भी क्रिसचियन थी पुतुल ,चीनू ,मीनू और रीना । खूब सबके घर आना जाना और खेलना तथा त्योहार संग संग मनाना

दास्तानें दर्दे ए दाँत

कुछ दिन से हमारे दाँत में दर्द हो रहा था । अब दर्द भी मेरा ही बुलाया हुआ है । अरे जल्दी मत करिये बताते है बताते है । 🙂 दरअसल कुछ दिन पहले हम लाई ( मुरमुरा ) और भुना चना बड़े मज़े से खा रहे थे तभी लगा कि एक दाँत में कुछ अटका हुआ है और जब टूथपिक से निकाला तो चने के टुकड़े के साथ कुछ सफ़ेद टुकड़ा सा निकला तो उस पर हमने ध्यान नहीं दिया पर जब दाँत में खाना फँसना शुरू हुआ तब पता चला कि दाँत में से एक छोटा सा टुकड़ा निकल गया है । बस फिर और कोई चारा नहीं था सिवाय दाँत के डाक्टर के पास जाने के । तो हम गये भी और डाक्टर ने देख कर सबसे पहले पूछा कि आपने क्या खाया जो आपका दाँत टूट गया और जैसे ही हमने कहा कि चना खाया था तो डाक्टर के चेहरे पर भी मुस्कराहट आ गई बस ग़नीमत ये रही कि उसने ये नहीं कहा कि क्या आप लोहे के चने खा रही थीं जो दाँत टूट गया । 😁 खैर चैकअप और एक्सरे के बाद डाक्टर ने रूट कनाल ट्रीटमेंट के लिये कहा । अब पहले वाला ज़माना तो है नहीं कि दाँत में दर्द हुआ और दाँत निकाल दिया । दर्द और दाँत दोनों से छुटकारा । 😃 पर अब तो डाक्टर दाँत उखाड़ने की बजाय दाँत बचाने की पूरी कोशिश कर

प्रदूषण और हम लोग

यूँ तो ये ही कहा जाता है कि दिल्ली में बहुत प्रदूषण है पर ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ दिल्ली में ही प्रदूषण है । क्या दिल्ली क्या लखनऊ क्या कोलकाता हर शहर में ही प्रदूषण बहुत ज़्यादा है । पहले तो हम बस टी.वी. पर ही प्रदूषण का स्तर देखते थे जिसमें दिल्ली, नोएडा और गुरूग्राम का ही प्रदूषण स्तर दिखाते थे । पहले तो पी. एम. लेवल क्या होता है ज़्यादा पता ही नहीं था । पर अभी हाल में जब से प्रदूषण की ऐप फोन पर लगाई है तब पता चला कि ना केवल दिल्ली बल्कि भारत के कई राज्य प्रदूषण की चपेट में है । पूरे जाड़े दिल्ली और आसपास के इलाक़ों का यही हाल रहता है । पहले तो कोहरा छाया करता था पर अब तो कोहरे की जगह स्मॉग ने ले ली है । कोहरा तो फिर भी छँट जाता था पर ये स्मॉग छँटता है तब भी ख़तरनाक ही रहता है । आजकल तो ये हाल हो गया है कि ना सुबह और ना ही शाम का समय वॉक के लिये ठीक समझा जा रहा है क्योंकि प्रदूषण इस समय सबसे ज़्यादा होता है । और हर कोई यही सलाह भी देता है कि प्रदूषण में वॉक नहीं करनी चाहिये । अभी दो दिन पहले अखबार में ख़बर छपी थी कि पिछले साल प्रदूषण की वजह से बहुत लोग बीमार हो गये थे । अब भला ऐ

बचपन के दिन भी क्या दिन थे

जी हाँ बचपन के दिन भी क्या दिन थे । वैसे जब हम छोटे थे तो हमेशा जल्दी से बडे होने की चाह थी और अब जब हम बडे ही नहीं काफ़ी बडे हो गये है तो बचपन के दिन याद करते है । वो सब छोटी छोटी चीज़ें या काम करके अब जितनी ख़ुशी होती है वो शायद बचपन में उतनी ही अखरती भी थी । वैसे एक बात बताना चाहेंगें कि जब से हम लोगों का स्कूल का वहाटसऐप ग्रुप बना है तब से ये सब शैतानियाँ हम लोगों को करने में बड़ा मजा आता है । अभी बीते शनिवार को हमारे स्कूल के वहाटसऐप ग्रुप पर एक सहेली ने अपनी पुरानी फ़ोटो शेयर की जिसमें उसने दो चुटिया बनाई हुई थी बस उसकी फ़ोटो देखकर सबने सोचा कि क्यूँ ना एक बार फिर से वो दो चोटी का समय फिर से जिया जाये क्योंकि अब हम सब दो चोटी बनाना छोड़ चुके है । 😜 अरे भाई कुछ तो बाल कम और पतले हो गये है , कुछ बाल छोटे रखने लगे है और अब तो ज़्यादातर या तो बाल खुले रखते है या एक पानी टेल बना लेते है । 😛 तो ये तय हुआ कि चूँकि अगले दिन रविवार है तो सब लोग दो चोटी बनाकर अपनी अपनी फ़ोटो लगायेंगें । बस फिर क्या था पूरे स्कूल ग्रुप की लड़कियों ने दो चोटी बना बना कर फ़ोटो लगाना शुरू की । एक स

ग्रीस यात्रा विवरण ( ऐक्रोपोलिस )

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ऐक्रोपोलिस ग्रीस की सबसे मशहूर जगह है एक तो ऐतिहासिक और दूसरे ऐथेंस की पहचान की वजह से । ऐक्रोपोलिस पच्चीस सौ साल से पुराने क़िले के अवशेष है । और ये भी कह सकते है कि अगर ऐथेंस में ऐक्रोपोलिस नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा । इसकी एक और विशेषता है कि चूँकि ये एक पहाड़ी पर बना है तो तकरीबन ऐथेंस की हर गली और सड़क से दिखाई देता है । ऐक्रोपोलिस के भवनों के संरक्षण के लिये १९७५ से कार्य हो रहा है । और अभी भी चल रहा है । ताकि उन्हें उनके मूलरूप में फिर से निर्मित किया जा सके । और इसके लिये टैटेनियम का इस्तेमाल किया जा रहा है जो कि प्रकृति की मार को झेल सकने में समर्थ होता है । खैर हम लोग ऐक्रोपोलिस देखने पहुँचे जिसका बीस यूरो का टिकट था । चूँकि ऐक्रोपोलिस पहाड़ की चोटी पर बना है और इसकी ऊँचाई तकरीबन डेढ़ सौ मीटर है तो ज़ाहिर सी बात है कि चढाई भी थी । और ऐतिहासिक फ़ील या अनुभव के लिये उसका रास्ता थोड़ा पथरीला सा था । तो हम लोगों ने भी ऐक्रोपोलिस के लिये चलना शुरू किया । वैसे चढ़ने का रास्ता ज़रूर पथरीला था पर उतरने का रास्ता पक्का और बढ़िया था । बीच बीच में कुछ सीढ़ियाँ भी पड़ती थी और

ग्रीस यात्रा विवरण ( ऐथेंस )

इस साल अक्तूबर में हम दस दिन के लिये ग्रीस घूमने गये थे । यूँ तो हमें इस यात्रा का विवरण पहले ही लिखना था पर कुछ थकान और फिर दीपावली के कारण लिख नहीं पाये थे । ग्रीस घूमने जाने का प्रोग्राम यूँ ही नहीं बन गया था । दरअसल ऐमैजोन स्टिक से टी.वी. पर जब भी कुछ ना देख रहे हों तो दुनिया के बहुत सारे शहरों की फ़ोटो डिसप्ले होती रहती है और उसी में ग्रीस की विंडमिल वग़ैरा दिखती थी तो बस तय हुआ कि अबकी बार ग्रीस ही चला जाये । 😋 पन्द्रह अक्तूबर को हम लोगों ने सुबह पाँच बजे की पलाइट से एथेंस ( ग्रीस ) के लिये अपनी यात्रा शुरू की । चूँकि डायरेक्ट पलाइट नहीं है ऐथेंस के लिये तो हम लोग आबू धाबी होते हुये दोपहर तीन बजे वहाँ के टाइम से ऐथेंस पहुँचे । हम चले तो अपने इंडियन समय से पर पहुँचे यूरोपियन टाइम से । एयरपोर्ट से बाहर निकल कर टैक्सी से अपने होटल पाइथागोरियन पहुँचे और चूँकि पलाइट लम्बी थी और हम पलाइट में ज़्यादा सोते नहीं है बल्कि पलाइट मैप देखते रहते है तो इस वजह से थोड़े थक से गये थे । इसलिये चाय वग़ैरा पीकर पहले थोड़ा आराम करके सोचा गया कि शाम को ऐथेंस शहर को घूमकर देखा जाये । ऐथेंस की

आई दीपावली

दीपावली या दिवाली का त्योहार मतलब रोशनी ,पटाखे , मिठाई और धूम कर सफ़ाई अभियान यानी अलमारियों से लेकर परदे तक ,घरों की रंग रोगन , घर का एक एक कोना साफ़ किया जाता है लक्ष्मी जी के आगमन के लिये । अब ऐसा भी नहीं है कि लोग दिवाली के अलावा अपने घर और अलमारियाँ वग़ैरा साफ़ नहीं करते है । पर दिवाली की सफ़ाई कुछ ख़ास ही होती है । यूँ तो दशहरे के बाद से ही दिवाली का इंतज़ार शुरू हो जाता है । दिवाली का त्योहार धनतेरस , छोटी दिवाली ,दिवाली, गोवर्धन पूजा या परिवा और भाई दूज या क़लम दावत की पूजा से ख़त्म होता है । उत्तर भारत में भगवान राम के वनवास से वापस आने की ख़ुशी में दिवाली मनाई जाती है तो वहीं दक्षिण भारत और गोवा में कृष्ण की पूजा करते है । वहाँ नरकासुर वध की ख़ुशी में दिवाली मनाई जाती है । गोवा में तो खूब बडे बडे नरकासुर के पुतले बनाये जाते थे और उन्हें जलाया जाता है बिलकुल रावन दहन की तरह । धनतेरस के दिन ख़रीदारी करना तो अनिवार्य सा होता है । स्टील के बर्तन पीतल के बर्तन और सोना ख़रीदने वालों की तो जैसे बाज़ार में बाढ़ सी आ जाती है । धनतेरस की रात में पूजा भी की जाती है ताकि घर में धन-ध

रीयूनियन मतलब रिचार्ज

जी हाँ रीयूनियन मतलब साल भर का रिचार्ज कहना ग़लत नहीं होगा क्योंकि जब हम सब स्कूल फ़्रेंड्स मिलते हैं तो हम सब बिलकुल स्कूल गर्ल बन जाते है । वही अल्हड़पन , बेबात ही खिलखिलाना ,बोलना कम और हँसना ज़्यादा । और हर किसी का अपनी बात सुनाने के लिये ज़ोर ज़ोर से बोलना । सोना कम जागना ज़्यादा । वैसे नींद तो सबकी उड़ सी गई थी क्योंकि सबको ये लग रहा था कि कहीं कोई बात मिस ना हो जाये । पिछले कुछ महीनों से इस रीयूनियन की तैयारी चल रही थी । रहने की जगह ढूँढने से लेकर घूमने कहां कहाँ जाना है तो डिनर का ड्रेस कोड क्या हो सब कुछ रोज़ बदलता । कभी चोखी ढाडी का कार्यक्रम बनता तो कभी प्रेसिडेंट हाउस तो कभी दिल्ली हाट का प्रोग्राम बनता । पर जब सब लोग गेसट हाउस में इकट्ठा हुये तो हर कोई बस एक साथ ही रहना चाहता था । और हर लम्हे को पूरी तरह से जी लेना चाहता था । एक महीने पहले रहने की जगह द हैरमिटेज को फ़ाइनल किया गया और परिक्रमा जो कि कनॉट प्लेस का रिवॉल्विंग रेस्टोरेंट है को भी बुक किया गया क्योंकि बीस लोगों के लिये तो पहले से बुकिंग करनी पड़ती है वरना मुश्किल हो जाता वहाँ डिनर करना । पर जब हम सब लाल

स्कूल रीयूनियन की ख़ुमारी

रीयूनियन का मतलब साल भर का रिचार्ज ये तो हमने अपनी पिछली पोस्ट में लिखा ही था । चलिये आज एक बार फिर से उन तीन दिनों की बात कुछ विस्तार से करते है । वैसे पोस्ट थोड़ी लम्बी हो गई है तो धैर्य से पढ़ें 😊 चालीस साल बाद पिछले साल जब हम लोग अपने शहर इलाहाबाद के अपने स्कूल गये थे और तभी ये सोचा गया कि कम से कम साल में एक बार हम सब ज़रूर मिला करेंगे । और ये भी तय हुआ था कि हर साल कोई नये शहर में हम लोग अपना रीयूनियन किया करेंगे । कयोकि रीयूनियन के बाद पूरा साल उस समय के फ़ोटो और वीडियो देखते देखते बीत जाता है और अगला रीयूनियन आ जाता है । 😊 पिछले साल के रीयूनियन की ख़ुमारी अभी उतरी भी ना थी कि इस साल के रीयूनियन का समय नज़दीक आ गया । महीनों प्लानिंग होती रही । कई प्रोग्राम बने और बिगड़े । कभी गोवा तो कभी जयपुर भी सोचा गया । पर बाद में दिल्ली में रखने का निश्चित हुआ ताकि सभी को आसानी रहे । फिर सबके एकसाथ रूकने का इंतज़ाम करना । और रूकने के लिये ऐसी जगह हम लोगों को चाहिये होती है जहॉं हम सब लड़कियाँ ( हँसने की ज़रूरत नहीं है उस दौरान हम सब बिलकुल स्कूल गर्ल बन जाती है ) बिना रोकटोक के

अंदाज़ा नहीं था कि फ़ूड प्वाइजनिंग

जानलेवा भी हो सकती है । यूँ तो टी.वी. में और अखबार में जब तब फ़ूड प्वाइजनिंग की ख़बरें पढ़ते और देखते ज़रूर थे पर कभी सोचा ना था कि हम भी इसके शिकार हो सकते है । पर हमारे सोचने से क्या होता है जब इसकी चपेट में आये तब समझ आया कि ये कितनी ख़तरनाक और जानलेवा भी हो सकती है । दो हफ़्ते पहले हम किसी पार्टी में गये थे और पार्टी में खा पीकर घर आ गये । चूँकि वहाँ लंच देर से हुआ था तो रात में घर पर खिचड़ी बनाई क्योंकि हम लोगों का पेट भरा भरा लग रहा था । खैर खिचड़ी खाकर सोये तो रात में हमें कुछ खाँसी सी आने लगी तो हमने सोचा कि खाँसी ज़ुकाम हो रहा है । पर जब सुबह उठे तो बहुत ही अजीब सा लग रहा था और फिर थोड़ी देर में उलटी हुई जिसके बाद हमें आराम मिला और हम नॉरमल महसूस करने लगे । और हमने नाश्ता भी किया । पर अभी ज़रा देर ही हुई कि हमारा पेट भी ख़राब होने लगा । तो हमे लगा कि कुछ नुक़सान तो किया है जिसकी वजह से ये सब हो रहा है । पर समझ नहीं पा रहे थे । खैर दिन में तीन चार बार ऐसे ही चला हम इलेक्ट्राल पानी में मिलाकर पीते रहे और बार बार वॉशरूम भी जाते रहे । साथ ही दवा भी खाई पर कुछ असर नहीं हो

काश ये शुरू ना किया होता तो

कभी कभी क्या हमेशा लगता है कि काश बालों को कलर करना शुरू ना किया होता तो कितना आराम रहता । उफ़ कितना झंझट । वैसे बालों को रंगने का सिलसिला बहुत पुराना है । हमारी मम्मी भी बालों को रंगती थी पर बाद में उन्होंने बालों को रंगना छोड़ दिया था कुछ तो उस समय के हेयर कलर भी उतने अच्छे नहीं होते थे और बाद में उन्हें हेयर कलर से और लगाने के झंझट से परेशानी होने लगी थी तो उन्होंने इसका इस्तेमाल बंद कर दिया था । शुरू में तो हम लोगों को और उन्हें भी थोड़ा अजीब लगा था पर बाद में उन पर सफ़ेद बालों का कुछ अलग ही तरह का ग्रेस था । 🙏 वैसे कुछ साल पहले हमें भी बाल कलर करने का शौक़ चढ़ा था क्योंकि हम लोगों को देखते थे कि कोई ब्राउन तो कोई गोल्डन कलर और कोई कोई तो बैंगनी कलर बालों में लगाये है तो बहुत बार हमारा भी मन होता पर कभी लगाया नहीं । फिर एक बार हमने भी इसे आज़माने की कोशिश की और पर्लर वाले के भरोसा दिलाने पर कि आजकल तो इतने बडे और अच्छे अच्छे ब्रांड है जो आपके बालों को कोई नुक़सान नहीं करेंगे । अब शौक और फैशन के चलते हमने अपने बालों पर ज़्यादा एक्सपैरिमिंट ना करते हुये लॉरियल का ब्राउन कलर कर

ऑरगैनिक फल और सब्ज़ियाँ

जैसा कि हम सब जानते है कि आजकल ऑरगैनिक फल ,सब्ज़ियों और अन्य खाने की चीज़ों का ऑरगैनिक होना स्वस्थ रहने का मंत्र है । और आजकल तो ये ऑरगैनिक शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो गया है । जिस प्रोडक्ट पर ऑरगैनिक लिखा है वो माना जाता है कि सेहत के लिये बिलकुल उपयुक्त है और इसीलिये वह प्रोडक्ट महँगा भी होता है । अब तो अगर हम ऑरगैनिक खाद्य सामग्री नहीं खा रहे है तो इसका मतलब कि हम स्वास्थ्य के प्रति जागरूक नहीं है । वैसे भी सेहत के लिये क्या महँगा और क्या सस्ता । जहाँ तक हमें याद है पहले तो सभी फल और सब्ज़ियाँ वग़ैरा आजकल की भाषा में ऑरगैनिक ही होती थी । हर जगह गोबर की खाद या सूखे पत्तों वग़ैरा को गड्ढे में दबा और गला कर कम्पोस्ट खाद बनाई जाती थी और उसे ही खेतों में इस्तेमाल किया जाता था । कीड़े मकोड़ों से फ़सल को बचाने के लिये भी किसान वही दवायें या पेस्टीसाइड डालते थे जो बाद में इस्तेमाल किये जाने पर जनता जनार्दन को नुक़सान ना करे । पर धीरे धीरे शायद ज़्यादा और अच्छी फ़सल के लिये कैमिकल्स से बनी खाद का ज़्यादा इस्तेमाल होना शुरू हो गया । और धीरे धीरे कैमिकल्स से बनी खाद हर कोई इस्तेमाल करने

ये कैसा विसर्जन पुराने देवी देवता का

अब आजकल ज़्यादातर पेड़ों के नीचे हर तरह के भगवान की मूर्ति ,फ़ोटो, माला और यहाँ तक की देवी माँ पर चढ़ाई हुई चुनरी और कभी कभी प्रसाद भी लोग रख देते है । पर हमें एक बात समझ नहीं आती है कि आख़िर पेड़ों के नीचे क्यूँ रखते है । पहले तो लोग नदी में भगवान की पुरानी मूर्ति और फूल माला प्रवाहित कर देते थे । और समय के साथ ये फ़ोटो और मूर्तियाँ गल जाती रही होंगीं । पर पिछले कुछ सालों से जब से नदियों में प्रदूषण को रोकने के लिये नदियों मे फूल माला और मूर्ति विसर्जन पर रोक लगी तब से जहाँ तहाँ पेड़ों के नीचे भगवान की तस्वीर वग़ैरह दिखने लगी है । जिस भगवान को आप घर के मन्दिर में रखकर पूजते है उन्हें कैसे इस तरह से पेड़ों के नीचे रख सकते है । पेड़ों के नीचे रखे भगवान की मूर्ति और फ़ोटो पर कुत्ते -बिल्ली गंदा करते है । जिसे देखकर बहुत दुख और अफ़सोस होता है और लगता है कि इस संसार में किसी का भी कोई महत्त्व नहीं है । हमारे घर के आस पास दो तीन बड़े बड़े पेड़ है जहाँ हर रोज़ कुछ नई फ़ोटो या मूर्ति लोग रख देते है । कभी कभी सफ़ाई करने वाले पेड़ों के नीचे से भगवान की तस्वीर वग़ैरह उठाकर सड़क के पार दीव

रक्षाबंधन और कितनी सारी यादें

सबसे पहले सभी को रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनायें । रक्षाबंधन या राखी का त्योहार भाई बहन के रिश्ते की मज़बूत डोर । इस त्योहार से ना जाने कितने किससे जुड़े है । हमें पक्का यक़ीन है कि ना केवल हमारे बल्कि सभी के दिल में राखी की बहुत सारी खट्टी - मीठी यादें होंगीं । बचपन में तो राखी का बड़ा इंतज़ार रहता था और हमारे भइया हर बार कुछ नया तोहफ़ा हम सब बहनों को देते थे । पर हर बार हम राखी में रोते भी ज़रूर थे क्योंकि राखी बाँधने में हमारा नम्बर सबसे आख़िर में आता था और सब बड़ी दीदी लोगों को भइया कुछ ना कुछ गिफ़्ट देते और जब हम राखी बाँधते तो बड़े मज़े से कहते कि अरे तुम्हारे लिये तो कुछ बचा ही नहीं है । और बस इतना सुनते ही हमारे आँसुओं का नल चालू हो जाता था और तब भइया चुपके से हमारा गिफ़्ट हमें देते और हम रोते रोते हँसने लगते थे ।पापा मम्मी हमेशा कहते थे कि तुम हर बार क्यूँ रोती हो जब तुम्हें पता है कि भइया तुम्हें गिफ़्ट देगें पर हमारा बालमन क्या करे । 😛 अब रोने का क्या कहें हम तो जब राखी बाँधते हुये गाना भी गाते है तो गाते गाते आँसू अनायास ही निकल आते है । हमारे घर में तो सब कहते थे क

आज तक समझ नहीं आया कि

डाक्टर के यहाँ मरीज़ के बैठने के लिये हमेशा एकदम अलग तरह का गोल छोटा सा स्टील का स्टूल क्यूँ होता है । 😳 जब छोटे थे और जब भी कभी बीमार होते थे तो डाक्टर के यहाँ जाते थे तो उस स्टील के स्टूल को देखकर सोचते थे कि मरीज़ के लिये कुर्सी की बजाय स्टूल क्यूँ रहता है । कभी कभी सोचते थे कि शायद डाक्टर के पास पैसा कम पड़ गया होगा इसलिये स्टूल रखा है । 😊 चाहे शहर बड़ा हो या छोटा या चाहे गाँव ही क्यूँ ना हो हर जगह और हर हॉस्पिटल में वो चाहे बड़ा हो या छोटा हर जगह मरीज़ के लिये स्टील का स्टूल ही रहता है । जहाँ तक हम सोचते है ये मरीज़ को कुछ अलग सा महसूस कराने के लिये ही ये स्पेशल स्टूल रखा जाता है । अरे भाई अगर कुर्सी रख दी जायेगी को क्या मरीज़ मरीज़ नहीं रहेगा ।

क्या आपके साथ ऐसा हुआ है

कल हम कोटक महिन्द्रा बैंक के ए.टी.एम से रूपये निकालने गये थेऔर हमने छ: हज़ार निकालने के लिये जब लिखा तो उस पर मैसेज लिखा आया कि सॉरी इस अमाउंट में रूपये नहीं दे सकते है तो दुबारा जब हमने साढ़े छ: हज़ार लिखा तो उस मशीन ने फटाफट रूपये दे दिये । क्योंकि जब से नोटबंदी हुई है तब से इस ए.टी.एम से सिर्फ़ दो के गुणे वाले संख्या का अमाउंट ही मिलता है । और हम ये देखकर असमंजस में पड़ गये कि ईवन नम्बर की बजाय ऑड नम्बर में रूपये क्यूँ दिये जबकि कभी कभी अगर ढाई या साढे चार या पाँच निकालने जाओ तो मशीन में लिख कर आता है कि ये अमाउंट देने में असमर्थ है तो दुबारा दो,चार,या छ: का अमाउंट डालना पड़ता है तब कहीं ज़ाकर रूपये मिलते है । अब पता नहीं कि ये मशीन का गड़बड़ झाला है या कुछ और । 😳

एक नेता अटल बिहारी बाजपेयी जी

जैसा कि हम सभी जानते है कि कल शाम पाँच बज कर पाँच मिनट पर हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी बाजपेयी जी ने अंतिम साँस ली थी । और आज उनको पूरे राष्ट्रीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी जा रही है । यूँ तो हम राजनीति से दूर है पर बाजपेयी जी का नाम और तारीफ़ लोगों से हमेशा सुनी है । जनसंघ वाले ज़माने में तो खैर हम छोटे थे पर इमर्जेंसी के दौरान धर्मयुग और वीकली जैसी मैगज़ीन में इन के जेल में बंद होने की और बाद में जेल से रिहा होने पर की बातें और लेख बहुत पढ़े थे । बाद में इन्होंने भारतीय जनता पार्टी बनाई और बाजपेयी जी तीन बार देश के प्रधानमंत्री रहे भले पहली बार तेरह दिन तो दूसरी बार ग्यारह महीने के लिये प्रधानमंत्री बने थे पर तीसरी बार पूरे पांच साल के लिये प्रधानमंत्री रहे थे पर २००४ में इंडिया शाइनिंग का बहुत प्रचार प्रसार होने के बाद भी चुनाव हार गये थे । कभी भी किसी के लिये भले ही वो विपक्ष के नेता हों या कोई और उन्होंने कभी भी किसी के लिये अपशब्द नहीं इस्तेमाल किये थे । बाजपेयी जी की कवितायें जो बहुत ही सरल भाषा में होती थी और जिसे हर कोई समझ सकता था । आओ मिलकर

झंडा ऊँचा रहे हमारा

आज हम सब भारतवासी भारत देश का बहत्तरवां स्वतन्त्रता दिवस मना रहे है । आज के दिन देश आज़ाद हुआ था । अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से देश स्वतन्त्र हुआ था और इस आज़ादी को हासिल करने के लिये हज़ारों लाखों लोगों ने अपने प्राणों की क़ुरबानी दी थी । और उनकी क़ुरबानी की वजह से ही हम सब आज़ाद भारत में साँस ले रहे है । तो सबसे पहले तो सभी को स्वतन्त्रता दिवस की खूब सारी शुभकामनाएँ । एक समय था जब स्वतन्त्रता दिवस की सुबह से ही हर गली और चौराहे पर लाउड स्पीकर पर देशभक्ति के गीत बजने लगते थे और पूरा माहौल देशभक्ति के रंग से सराबोर हो जाता था । और क्या जोश और देशप्रेम से ओतप्रोत गीत होते थे । याद तो होगा ही -- दे दी हमें आज़ादी बिना खड बिना ढाल ये देश है वीर जवानों का ,अलबेलों का मस्तानों का , मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती ऐ मेरे वतन के लोगों ,ज़रा ऑंख में भर लो पानी कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियों वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों मेरा रंग दे बसंती चोला सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ वैसे आजकल भी लोग देशभक्ति के अलग रंग में रं

सावन में कांवड़

आजकल सावन के महीने में कांवड़ और कांवड़ियों का बहुत अधिक प्रचलन सा हो गया है । पहले कांवड़ियां बहुत कम होते थे । सावन के महीने में साधु महात्मा या बहुत ही ज़्यादा धार्मिक लोग ही कांवड़ लेकर जाते थे और हरिद्वार , गंगोत्री से गंगाजल लाकर शिव जी पर चढ़ाते थे । पहले कांवड़ लेकर जाने वाले नंगे पैर चलते थे । और बम बम भोले की जय कहते हुये चलते जाते थे । पर धीरे धीरे ये इतना अधिक प्रचलित हो गया है कि अब तो ट्रक के ट्रक भर कर कांवडियां जाते है । और इतना ज़ोर का म्यूज़िक बजाते है कि कुछ पूछिये मत । और अब तो सरकार भी जगह जगह इनके रूकने और खाने पीने का इंतज़ाम करती है । दिल्ली में तो बाक़ायदा हर थोड़ी दूरी पर काँवरिया शिवर बने हुये है जहाँ ये लोग रूकते है । सड़क के एक तरफ़ डोरी लगाकर इनके चलने के लिये अलग से रास्ता सा बना दिया गया है । और काफ़ी संख्या में पुलिस भी तैनात रहती है । हमें याद नहीं कि हमने पहले इनका नाम सुना था । सबसे पहली बार शायद १९९९ में कांवड़ के बारे में हमने अपने पतिदेव के एक ड्राइवर से सुना था क्योंकि वो छुट्टी ले रहा था क्योंकि वो हरिद्वार जा रहा था कांवड़ लेकर । खैर बात आ

याद है स्टीरियो और रिकार्ड प्लेयर

समय कैसे और कितनी जल्दी बदलता है । हर वो चीज़ जो एक समय में बहुत पॉपुलर होती है वो धीरे धीरे बिलकुल ग़ायब हो जाती है । अब स्टीरियो और रिकार्ड प्लेयर को ही देखिये । एक समय था जब ये घरों के ड्राइंग रूम की शोभा हुआ करते थे । स्टीरियो के साथ बड़े बड़े स्पीकर भी होते थे जिनसे गाना और म्यूज़िक बिलकुल अलग अलग सुनाई देता था । उस समय ये बहुत ही बड़ी बात मानते थे । एसपी और एल पी रिकार्ड्स खूब बिका करते थे । फ़िल्मी , ग़ैर फ़िल्मी ,भक्ति के ,ग़ज़लें वग़ैरह । हरेक की पसंद के रिकॉर्ड हुआ करते थे । हम लोगों के ड्राइंग रूम में भी बहुत समय तक स्टीरियो बड़ी शान से विराजमान रहा था । मम्मी नवरात्रों में मुकेश की गाई हुई रामचरितमानस सुनती तो वहीं हम बहनें फ़िल्मी गीत सुनते ,पापा मधुशाला सुनते और भइया ज़्यादातर इंगलिश गाने और वो भी खूब तेज़ आवाज़ में ही सुनते थे । वैसे हम भी हमेशा थोड़ा तेज़ आवाज़ में ही म्यूज़िक सुनना पसंद करते है । 😃 फिर आया टेप रिकॉर्डर । वैसे टेप रिकॉर्डर के आने के बाद भी स्टीरियो पर गाने सुनने का मजा ही अलग था । पर वही समय बदला और धीरे धीरे ना जाने कब सटीरियो को छोड़कर टेप रि

उफ़्फ़ ये पाबंदी

अब पाबंदी चाहे किसी चीज़ की हो बुरी लगती ही है । फिर वो चाहे देर रात तक बाहर घूमने की हो या कहीं आने जाने की पाबंदी हो । घरवालों द्वारा लगाई पाबंदी हो या चाहे डाक्टर के द्वारा लगाई पाबंदी ही क्यूँ ना हो । किसी को भी पाबंदी में रहना पसंद नहीं आता है । कुछ पाबंदी में तो कभी कभी ढील भी मिल जाती है पर कुछ में तो ढील मिलना तो दूर कोई दूसरा ऑप्शन ही नहीं होता है और झक मार कर हमें उसी पाबंदी में रहना पड़ता है । हालाँकि आजकल पाबंदी का कोई ख़ास मतलब नहीं रह गया है पर फिर भी कुछ पाबंदी अपनेआप ही लागू हो जाती है । ज़्यादा सोचने विचारने की ज़रूरत नहीं है हम कोई दार्शनिक पोस्ट नहीं लिख रहे है बल्कि वहाटसऐप की लगाई पाबंदी के बारे में बात कर रहे है । हँसने की ज़रूरत नहीं है । 😃 अब पहले तो एक बार में जितने चाहे उतने लोगों को मैसेज फ़ॉरवर्ड कर दो कोई पूछने वाला नहीं था । सुबह एक ही बार में पंद्रह बीस गुरूप में गुड मॉरनिंग का मैसेज चला जाता था । पर अब तो एक बार में पाँच मैसेज की पाबंदी लगा दी गई है । और इसके तहत एक बार में पाँच से ज़्यादा लोगों को मैसेज भेज ही नहीं सकते है । बार बार पाँच पाँच करक

आदमी या जानवर

दो तीन दिन पहले एक न्यूज़ पढ़ी थी जिसमें एक प्रेगनेंट बकरी का आठ आदमियों ने रेप किया जिसकी वजह से वो बकरी मर गई । कहना कठिन है कि कौन इंसान है और कौन जानवर । पहले तो हमें लगा कि किसी ने यूँ ही ख़बर छापी है पर जब पढ़ा तो लगा कि आदमी इतना जानवर कैसे बन गया । और मन एक अजीब सी घृणा से भर गया । हो सकता है उन आदमियों की ये सोच रही होगी कि बकरी के रेप पर तो ना कोई केस होगा और ना कोई सज़ा । बच्चियाँ ,लड़कियाँ और महिलायें तो वैसे ही सुरक्षित नहीं है अब तो जानवर भी सुरक्षित नहीं है । देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान ।

सावन में मेंहदी

सावन या श्रावण मास शुरू हो गया है । सावन मतलब मेहंदी ,हरियाली तीज का त्योहार ,नागपंचमी,गुड़िया का त्योहार ,झूला और बारिश की फुहारें । सावन आये और हम मेंहदी ना लगाये ऐसा नहीं हो सकता है । बचपन में हम लोगों के यहाँ हरियाली तीज नहीं मनाते थे । पर गुड़िया के त्योहार वाले दिन से एक दिन पहले हम लोग मेंहदी ज़रूर लगाते थे ।नागपंचमी में सांप को दूध पिलाने का चलन था क्या अभी भी है और इसलिये सपेरे अपने झोले में नाग बाबा को लाते थे ( वैसे दिल्ली में भी बहुत साल तक सपेरे साँप लाते थे नागपंचमी के दिन ) और गुड़िया के दिन तो हम लोगों के घर से थोड़ी दूर पर मेला भी लगता था । 😊 जब हम छोटे थे तो सावन का खूब इंतज़ार करते थे क्योंकि तब सिर्फ़ सावन में ही हम मेहंदी लगाते थे । और आजकल की तरह तब इतने मेहंदी लगाने वाले नहीं होते थे और ना ही बाज़ार में मेहंदी के कोन वग़ैरह मिला करते थे । तब तो ताज़ी ताज़ी मेहंदी तोड़ी जाती थी और घर पर ब्रजवासी ( हम लोगों का सेवक ) सिल पर मेंहदी पीसता था और तब हम और हमारी दीदी बडे जतन से लगाते थे पर हम लोगों की मेहंदी में वैसा गाढ़ा लाल रंग नही आता था हाँ थोड़ा हल्का लाल रंग

लगता है हर कोई बीमार है

किसी भी हॉस्पिटल में चले जाओ तो वहाँ पर मौजूद मरीज़ों भीड़ देखकर लगता है जैसे हर कोई बीमार है । पहले तो सरकारी अस्पतालों में ही बहुत ज़्यादा मरीज़ों की भीड़ होती थी फिर वो चाहे एम्स हो या जी.बी.पंत हो कोई और सरकारी अस्पताल । और तब लोग उस भीड़ से बचने के लिये लोग प्राइवेट या स्पेशलाइजड हॉस्पिटल में जाते थे । पर अब तो ना केवल सरकारी बल्कि प्राइवेट ,स्पेशलाइजड ( फ़ाइव स्टार )अस्पतालों में भी बहुत भीड़ होती है । छोटे मोटे नर्सिंग होम और डिसपेंसरी का भी कुछ ऐसा ही हाल है । आजकल के फ़ाइव स्टार हॉस्पिटल में तो देसी विदेशी हर तरह के मरीज़ भरे होते है । और इन अस्पतालों में जहाँ पहले कुछ कम भीड़ होती थी पर अब ऐसा बिलकुल नहीं है । फिर चाहे अपोलो हो या मैक्स हो या फोरटिस ही क्यूँ ना हो । और तो और कार पार्क करने की जगह भी नही मिलती है । जितनी भीड़ और लोग अस्पताल के अन्दर उतने ही बाहर भी होते है । कई बार तो इनकी कैंटीन तक में बैठने की जगह नहीं मिलती है । अब लोग भी क्या करें सुबह से दोपहर तक का समय अस्पताल में ही बीत जाता है ।हर जगह लम्बी लाइन होती है ।कई बार तो एपाइंटमेंट के बाद भी अच्छा ख़ासा ट

रिमझिम के तराने लेके आई बरसात

पुराना परन्तु कितना मीठा गीत । ग़लत तो नहीं कहा ना । एक समय था जब बारिश और सावन के मौसम पर आधारित गानों की भी हिन्दी फ़िल्मों में बहार सी होती थी जैसे ख़ुशी,ग़म ,मिलन,विरह ,छेड़छाड़, घर ,सहेलियाँ,झूला ,वग़ैरह पर खूब गाने बनते थे । पर अफ़सोस आजकल तो ऐसे गीतों का कुछ अकाल सा पड़ गया है । क्योंकि आज की दौड़ती भागती जिंदगी में ये सब कहीं खो सा रहा है । बरसात का मौसम आते ही जगह जगह पर पेड़ों की डालियों पर झूले पड़ जाते थे । अब तो विरले ही पेड़ और पेड़ पर झूले नज़र आते है । झूले पर बारिश में भीगने का भी अपना ही मजा़ था । वो गाना तो याद ही होगा -- पड़ गये झूले सवन ऋतु आई रे ,पड़ गये झूले । सावन का मौसम और बारिश के आते ही रेडियो पर बरसात के गीतों की बारिश सी हो जाती थी । वैसे आज भी एफ.एम. गोल्ड पर ऐसे गीत सुने जा सकते है । इस मौसम में हमेशा बन्दनी फ़िल्म का गीत अब के बरस भेज भइया को बाबुल सुनकर आँखों में अपने आप ही आँसू आ जाते है । तो वहीं किशोर कुमार का इक लड़की भीगी भागी सी सुनकर मुस्कराहट आ जाती है । रिमझिम के तराने लेके आई बरसात गीत को सुनकर बारिश की मीठी सी अनुभूति होती थी पर आजक

दिल्ली और ट्रैफ़िक जाम

दिल्ली में कब कहाँ और क्यूँ ट्रैफ़िक रूक जायेगा कहना बहुत मुश्किल है । लोग कहते है कि सोमवार को और शुक्रवार को सबसे ज़्यादा ट्रैफ़िक होता है क्योंकि दोनों दिन हफ़्ते के पहले और आख़िरी दिन होते है । बारिश हो तो ट्रैफ़िक जाम लग जाता है बारिश ना हो तब भी ट्रैफ़िक जाम लग जाता है । वजह हो या ना हो ट्रैफ़िक जाम हो ही जाता है । और सिर्फ़ सुबह -शाम ही ट्रैफ़िक जाम होगा ऐसा भी नहीं है । 😙 इस बीते सोमवार हम अपनी दोस्त के साथ वसंत कुंज से होते हुये ग्रेटर कैलाश जा रहे थे तो महिपालपुर बाई पास पर बहुत ज़्यादा ट्रैफ़िक मिला था और जो रास्ता दस - पन्द्रह मिनट का था उसे पार करने में चालीस मिनट लग गये थे । हमारी दोस्त का कहना था कि सोमवार को हमेशा बहुत ट्रैफ़िक होता है । इसलिये सोमवार को जाने से बचना चाहिये । हालाँकि हम अकसर जाते रहते है । पर कल जब हम फिर से वसंत कुंज के एक हॉस्पिटल जा रहे थे तो हम बहुत ही बुरे ट्रैफ़िक जाम में फँस गये थे । वैसे कल ना तो सोमवार और ना ही शुक्रवार था ना ही कोई ऑफ़िस टाइम था । जैसे ही हम चले तो ड्राइवर को बोला कि महिपालपुर बाई पास से चलना पर वो गुरूग्राम वाले रास्ते स

यादें हमें क्यूँ अच्छी लगती है

कई बार क्या अकसर ऐसा होता है कि हम जब भी पुरानी बातें या समय याद करते है तो मन एक अजीब सी ख़ुशी से भर जाता है । और उस दौरान हम उस बीते हुये लम्हे को पुन: जी लेते है । ऐसा नहीं है कि बीते हुये समय में सब कुछ बिलकुल हमारी मनमर्ज़ी से हुआ होगा या कभी कुछ बुरा नहीं हुआ होगा पर फिर भी हमेशा पुराना समय और पुरानी बातें मन को ख़ुश कर देती है । हमें अच्छे से याद है जब हम छोटे थे तो हमारे बाबा अपने ज़माने की बातें करते थे तो हम लोगों को लगता था कि बाबूजी हमेशा पुरानी बातें ही क्यूँ करते है पर अब समझ आया कि बीते हुये दिन हमेशा दिल को ख़ुश करते है । अब ऐसा भी नही है कि वर्तमान में कुछ अच्छा नही हो रहा है पर ना जाने क्यूँ हम बार बार यादों में जाना पसंद करते है । वो शायद इसलिये क्योंकि उन यादों से हम अपने खोये हुये माँ पापा ,बचपन,स्कूल कॉलेज के मस्ती भरे दिन ,( जो शायद उस समय इतने मस्ती भरे नहीं लगते थे क्योंकि तब पढ़ाई का थोड़ा बहुत दबाव होता था ) सब को बार बार जीते है । पर हाँ कभी कभी पुरानी यादें मन को उदास और दुखी भी करती है । और आँखों को नम भी करती है । जब भी पुरानी फ़ोटो या वीडियो देखो

ग़ायब होते गीत के विषय

आज सुबह सुबह मशहूर कवि और गीतकार गोपालदास नीरज के निधन की ख़बर पढ़ी , उनकी लिखी कवितायें और गीत भला कौन भुला सकता है । पहले जब दूरदर्शन पर कवि सम्मेलन होता था तो उनकी कविता पाठ से ही कवि सम्मेलन का समापन होता था । और उनका लिखा ये गीत जो एक ज़माने में विविध भारती पर खूब बजता था । ए भाई ज़रा देख के चलो आगे ही नहीं पीछे भी दायें ही नहीं बायें भी ऊपर ही नीचे भी ए भाई ना केवल ये गीत बल्कि इनके लिखे अन्य गीत भी बहुत ही लोकप्रिय थे । हर गीत एक से बढ़कर एक और जीवन का फ़लसफ़ा समझाते हुये । देव आनन्द की फ़िल्मों के पसंदीदा गीतकार थे । कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे जैसे फूलों के रंग से ,दिल की क़लम से रंगीला रे ,तेरे रंग में यूँ रंगा है मेरा मन लिखे जो ख़त तुझे मेघा छाये आधी रात मेरा मन तेरा प्यासा अनायास ही मन में विचार आया कि अब तो ऐसे गीत और गीतकार ही नहीं रहे । आजकल की हिन्दी फ़िल्मों से बहुत सारे गीत के विषय ग़ायब से होते जा रहे है । जैसे रक्षाबंधन,होली ,दिवाली,देशभक्ति ,भाई-बहन,दोस्ती,और मॉं और पिता ,बच्चे और बचपन पर आधारित गीत तो आजकल विरले ही सुनने को मिलते है । हाँ

बारिश और लाल बिलौटी

लाल बिलौटी ( रेड लेडी बर्ड ) नाम तो सुना ही होगा और पकड़ी भी होंगीं । वैसे अब ये दिखती ही नहीं है पर पहले यानि जब हम लोग छोटे थे तब बारिश के बाद लाल बिलौटी खूब निकला करती थीं । ये बहुत ही मख़मली ,सुर्ख़ लाल रंग की और छोटी सी होती थी । जब इनको हाथ से छूते या उठाते थे तो ये अपने पंजे सिकोड़ लेती पर फिर थोड़े सेकेंड के बाद पंजे खोलती और बहुत ही धीरे धीरे चलती । जब ये अपने पंजे बंद करती तो हम लोग कुछ ऐसा कहते थे --- लाल बिलौटी पंजा खोल ,तेरी बग्घी आती होगी । 😊 और कई बार वो वाक़ई पंजे खोलकर चलने लगती । वो हमारे कहने पर नहीं पर जब हम उसे थोड़ी देर छूते नहीं थे तब वो चलती थी । ये बाद नें समझ आया । 😀 वैसे पहले हम लोग जब बारिश होती थी तो चाहे घर हो या स्कूल खूब नाव बनाते और चलाते थे । कॉपी में से धडाधड पन्ने फाड़ते और नाव बनाते । और जब कहीं नाव अटक जाती तो डंडी से उसे आगे खिसकाते । एक नाव डूब जाती तो दूसरी नाव बनाते थे । बाक़ायदा हम और हमारी दीदी में कॉमपटीशन भी होता था । और अकसर हमारी नाव डूब जाती थी क्योंकि अगर काग़ज़ की नाव ठीक से नहीं बनी हो तो डूब ही जाती है । कभी कभी घर पर बड़ी न

आज भी अंधविश्वास

क्या आज भी लोगों पर देवी देवता आते है । पर गाँवों में तो शायद अब भी मानते है । पर शहर में रहने वाले भी इसे मानते है । ऐसा कल पता चला । दरअसल हमारी कामवाली दो तीन दिन से बीमार थी और छुट्टी पर थी । उसने बुखार ,चक्कर और हाथ पैर में दर्द ही बताया था । पर कल उसकी भाभी ने बताया कि उस पर देवता आ गये है । हमारे पूछने पर कि हर साल इसी समय सिर्फ़ उस पर ही देवता क्यूँ आते है । तो वो बोली कि गाँव में ऐसा कहते है कि बरसात के समय में लोगों पर देवता आ जाते है जिसकी वजह से चक्कर आते है और लोग बीमार पड़ते है । जहाँ तक हम अपनी कामवाली को जानते है वो ऐसा नासोचती है और ना ही मानती है । और झाडफूंक की बजाय डाक्टर को दिखा कर अपना इलाज करवाती है ।

सेक्रेड गेम्स

सेक्रेड गेम्स इस नाम का शो नैटफिलकस पर आया है । जिसमें सैफ़ अली खान, नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी ,राधिका आपटे , सुरवीन चावला ,पीयूष मिश्रा जैसे कलाकार है । जिनके अभिनय की जितनी तारीफ़ करें कम है । इसमें सैफ़ अली खान ने एक सरदार के रोल में और नवाजुद्दीन एक गैंगस्टर के रोल में बहुत ही अच्छी एक्टिंग की है । राधिका आपटे हमें कुछ ख़ास पसंद नहीं आई । हाँ ठीकठाक है । पर हाँ राजऋी देशपांडे ने अच्छी एक्टिंग की है । काटेकर के रोल में जितेन्द्र जोशी ने तो कमाल की एक्टिंग की है । नैटफिलकस पर इंगलिश सीरियल और शो तो हम बहुत समय से देख रहे है पर हिन्दी वाला ये पहला शो देखा है । वैसे हिन्दी में पहले भी सीरियल बने है मगर हमने देखे नहीं है पर चूँकि इस शो को अनुराग कश्यप ने बनाया है इसलिये इस शो को हमने देखा । इस शो के चार सीज़न है और हर सीज़न में आठ एपिसोड है । और हर एपिसोड एक घंटे का होता है । शो में ऊपर चेतावनी लिखी आती है कि इसमें वॉयलेंस , सेकस और अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया है । देखना ना देखना आपकी मर्ज़ी । वैसे ये अच्छा है कि चेतावनी लिखकर सब दिखा दो । नैटफिलकस में एक अच्छाई है कि चाहे अंग्रेज़ी

इत्र

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आजकल लोग इत्र कम और परफ़्यूम और डियो जैसी चीज़ों का प्रयोग करते है । और वो भी ना केवल देशी बल्कि विदेशी ब्रांड के । वैसे कन्नौज का इत्र बहुत मशहूर है । अगर कार से कन्नौज से गुज़र रहे होते है तो इत्र की ख़ुशबू चारों तरफ़ फैली होती है । अगर आप सो भी रहे हो तो इत्र की ख़ुशबू से पता चल जाता है कि कन्नौज आ गया है क्योंकि वहाँ घर घर में इत्र बनाने का काम होता है । वैसे हम भी परफ़्यूम और डियो से अछूते नहीं है । पर अभी हाल में हमने इत्र ख़रीदा और यक़ीन मानिये इसकी ख़ुशबू और दाम दोनों ही बहुत बढ़िया । पहले तो लोग इत्र का ही इस्तेमाल किया करते थे । हमारे बाबा इत्र की छोटी सी बोतल रखते थे और जब भी कहीं जाते थे तो उसे अपने हाथ की कलाई पर लगाते थे । इत्र लगाने का यही तरीक़ा होता है । खैर हमने अभी हाल ही में इत्र ख़रीदा है । दरअसल एक दिन हम लोग दिल्ली एम्पोरियम गये थे तो वहीं की एक सेल्स गर्ल नें हमें इत्र ट्राई करने को कहा पहले तो हमने मना कर दिया कि हम ये लगाते ही नहीं है पर उसके ज़्यादा ज़ोर देने पर हमने अम्बर नाम के इत्र को ट्राई किया । उसने हमारी कलाई पर रोल ऑन लगाया और हमें ये काफ़ी पसं

मीठी यादें ज़ीरो की

आज सुबह जैसे ही फेसबुक खोला तो उसमें सात साल पुरानी फ़ोटो दिखी जिसे हमनें शेयर किया । कई बार हम लोग फ़ोटो को लगा कर भूल जाते है पर फेसबुक कभी एक साल पुरानी तो कभी दो साल पुरानी और कभी सात साल पुरानी कोई फ़ोटो को अचानक दिखा देता है और हम लोग वापिस उन्हीं लम्हों में पहुँच जाते है । आज की फ़ोटो देखकर जीरो जो कि अरूनाचल प्रदेश का एक डिस्ट्रिकट है उसकी याद ताज़ा हो आई ,जब हम लोग ज़ीरो गये थे इनके दृी फ़ेस्टिवल को देखने । वैसे यहाँ पर दूसरी ट्राईब भी रहती है पर मुख्य ट्राइब अपातानी है । ज़ीरो इटानगर से लगभग १६० कि. मी. की दूरी पर है । और तब चार घंटे का समय लगता था , एक तो पहाड़ी रास्ता दूसरा जगह जगह सड़क बनती रहती थी । वैसे हो सकता है अब रास्ते पहले से अच्छे हो गये होगें । यूँ तो अरूनाचल प्रदेश में सभी औरतें बड़ी ख़ूबसूरत होती है और अपातानी औरतें भी बहुत सुंदर होती है । पर जो वहाँ की वृद्ध औरतें है उनके चेहरे पर टैटू बना हुआ देखा जा सकता है माथे पर एक लम्बी सी लकीर और ठुड्डी पर चार या पाँच छोटी छोटी लकीरें । और नाक के दोनों तरफ़ में बड़ी ,काली सी लकड़ी की बाली सी पहनती है । और ये टैटू

वज़न घटाना कितना मुश्किल 😋

ना केवल अपने देश में बल्कि दुनिया भर में लोग वज़न बढ़ने से परेशान रहते है । और हों भी क्यूँ ना । वज़न ज़्यादा होना किसी के लिये भी अच्छा नहीं होता है फिर वो चाहे पुरूष हो या स्त्री । और तो और मोटापे से कितनी सारी समस्यायें जुड़ी होती है । तो भला कोई क्यूँ मोटा होना चाहेगा । अब वज़न कोई एक दिन में तो बढ़ता नहीं है पर काफ़ी समय तक तो हम लोग इस बढ़ते हुये वज़न और मोटापे को अनदेखा करते रहते है । और जब जागते है तब तक बड़ी देर हो चुकी रहती है मतलब वज़न इतना बढ गया होता है कि घटाना मुश्किल । वैसे वज़न घटाने में भले महीने या साल लग जायें पर बढनें में ज़रा भी समय नहीं लगता है । रोज़ सुबह उठकर सबसे पहले वेईंग मशीन पर वज़न देखना दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है । और अगर पाँच सौ ग्राम भी कम आता है तो मन ख़ुशी से झूम उठता है। ये हमारा अनुभव है । कल सुबह की ही बात है हम वेईंग मशीन पर अपना वज़न देखने के लिये खड़े हुये और एक किलो जी हाँ पूरा एक किलो कम आया तो हम ख़ुशी से फूले ना समाये । पर आज सुबह जब हमनें वज़न लिया तो डेढ़ किलो बढ़ गया । 😩 क्या क्या नहीं करते है इस बढ़े हुये वज़न को कम करने के

कैंसर एक ख़ौफ़

यूँ तो कोई भी बीमारी छोटी नहीं होती है पर कैंसर इस शब्द को सुनते ही शरीर में एक सिहरन सी महसूस होती है । और पिछले कई दशकों से इस बीमारी से लोग प्रभावित होते रहे है । ये एक ऐसी बीमारी है जो चुपके चुपके शरीर में आ जाती है और भनक भी नहीं लगती है । कई बार तो जल्दी पकड़ में आ जाती है पर कभी कभी बहुत देर में इसका पता चलता है । जब आनन्द और मिली फ़िल्मे देखीं थी तो ऐसा लगा नहीं था कि कुछ सालों के बाद ये बीमारी भी इतनी ज़्यादा फैल जायेगी । जब भी हम लोग सुनते है कि किसी को कैंसर हुआ है तो भले हम उसे जानते हों या ना जानते हो मन में एक टीस सी ज़रूर उठती है । हाल ही में इरफ़ान खान और सोनाली बिन्द्रे इस बीमारी से लड़ रहे है ,पता चला तो बहुत दुख हुआ और ख़राब लगा । और ये सोचने पर मजबूर हुये कि ये बीमारी कभी भी किसी को भी अपने चंगुल में ले सकती है । और इस से सिर्फ़ लड़ कर ही जीता जा सकता है । और इसके लिये भगवान ही हिम्मत देता है । हमने अपनी एक दोस्त को इस कैंसर से जूझते, लड़ते और इससे जीतते देखा है ।

संजू एक फ़िल्म

हमने संजू देखी और इसमें कोई दो राय नहीं है कि रनबीर कपूर ने बहुत ही अच्छी एक्टिंग की है । जिस तरह से संजय दत्त के स्टाइल में हाथ ढीले छोड़कर चलना ,सिर को थोड़ा हिलाकर डायलॉग बोलना और कैसे यंग संजय दत्त के लिये वज़न कम करना और बाद में बड़ा परिपक्व दिखने के लिये वज़न बढ़ाना । रनबीर कपूर की जितनी तारीफ़ की जाय उतनी कम है । कहानी तो सभी को संजय दत्त की मालूम है कि एक समय में वो ड्रग्स एडिकट था और कैसे टाडा में गन रखने के लिये उस पर केस चला और सज़ा हुई । और इस दौरान उसकी जिंदगी में क्या क्या घटित हुआ ये तो हम सभी पढ़ते और जानते रहे है । इस फ़िल्म से संजय दत्त को एक तरह से भटका हुआ दिखाया है । ठीक है बहुत बार माँ बाप ग़लत भी हो सकते है पर उसका मतलब ये नहीं होता है कि आप गलत रास्ते पर चल दें । और उस ग़लती का परिणाम ना केवल वो बल्कि उसके माँ बाप को भी झेलना पड़ता है । ड्रग्स के बारे में तो कहा ही जाता है कि इसको मज़े या दुख दर्द को भुलाने के लिये लेना तो आसान है पर इसके चंगुल से निकलना बहुत मुश्किल है । और इसको बख़ूबी फ़िल्म में दिखाया गया है । अपनी हिफ़ाज़त के लिये गन रखना सोचें तो ठी

पानी पानी दिल्ली

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मानसून ने जून के आख़िरी हफ़्ते से ना केवल दिल्ली बल्कि क़रीब क़रीब पूरे देश में दस्तक दी है । हालाँकि अभी पूरी तरह से खूब बारिश नहीं हो रही है (मतलब लगातार दो -तीन दिन तक बारिश होती रहना ) पर फिर भी बादल छाये रहते है । कई बार इन बादलों और हल्की फुलकी बारिश से राहत की बजाय उमस सी हो जाती है । परसों दिल्ली में बस एक डेढ़ घंटे खूब धुँआधार बारिश हुई थी और जिसका नतीजा जगह जगह सड़कों पर पानी का भर जाना । हर साल यही हालत होती है । और ये हालात धीरे धीरे बद से बदतर ही होते जा रहे है । परसों जब हम शॉपिंग के बाद मॉल से बाहर निकले तो पता चला कि बाहर तो धुँआधार बारिश हो रही है । पर ग़नीमत ये थी कि इतनी बारिश में भी हमें ऊबर कैब मिल गई थी । और जब हम लोग वसंत कुंज से निकले तो हर थोड़ी दूर पर सड़कों पर पानी भरा हुआ था । महिपालपुर पुर की क्रासिंग पर भी काफ़ी पानी भरा हुआ था । और लोगों को ये समझ नहीं आ रहा था कि उस गंदे पानी से भरी सड़क को कैसे पार करें । पर उस बारिश के पानी से भरी सड़क को क्रास करने के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था । बारिश का पानी हो तो भी ठीक पर नालियों और सीवर का पानी और दुन

सेल ही सेल की बहार

आजकल तो हर बाज़ार और दुकान में सेल का बोर्ड दिखाई दे रहा है । वैसे भी जुलाई और फ़रवरी के महीनों में सेल लगती ही थी या दिवाली के समय सेल लगती थी । पर आजकल तो तो हर तीज त्योहार पर सेल लगना लाज़मी है । ऑनलाइन शॉपिंग में तो हमेशा ही सेल लगी रहती है चाहे मिनतरा हो या अमेजॉन हो या जबॉंग हो,फिलपकारट हो , हर तरफ़ सेल ही सेल । वैसे ऑनलाइन में तो किसी ना किसी रूप में सारे साल सेल लगी रहती है । कल हम वसंत कुंज मॉल गये थे वहाँ तो हर शॉप पर सेल का बड़ा सा बोर्ड लगा है । ज़्यादातर जगह अपटू ५०% छूट तो कहीं कहीं ७०% तक की छूट के बोर्ड लगे हुये है । और हर शॉप पर खूब भीड़ फिर वो चाहे ओनली हो या एच एंड एम हो या लाइफ़स्टाइल हो या ज़ारा हो या कोई और हो । ना केवल कपड़े , जूते, पर्स पर बल्कि इलेक्ट्रॉनिक सामानों पर भी ज़बरदस्त सेल लगती है । और अब तो ज्वैलरी में भी जैसे तनिष्क ,कल्यान ज्वैलरस भी कुछ ना कुछ ऑफ़र देते रहते है । सेल के दौरान दोपहर में मतलब दो-तीन बजे तक तो थोड़ी कम भीड़ भांड होती है पर जैसे जैसे शाम होने लगती है वैसे वैसे लोगों का मेला सा लग जाता है । दोपहर के समय तो कपड़े देखना और ट्राई

गुमराह करने वाले विज्ञापन

कभी कभी कुछ कम्पनियॉं ऐसे विज्ञापन बना देती है जो हक़ीक़त से मीलों दूर होते है ।एड बनाओ पर ऐसा एड नहीं बनाना चाहिये जो किसी को नुक़सान पहुँचा सकता हो । जैसे पहले एक एड आता था ज़िसमें ट्रैफ़िक पुलिस से बचने के लिये स्कूटर चालक तरबूज को हैलमेट के तौर पर पहनता है और ट्रैफ़िक पुलिस उसे पकड़ नहीं पाता है। आजकल रॉयल चैलेंजर जो कि एक बहुत बड़ा ब्रांड है उसका एक एड आ रहा है जिसमें विराट कोहली और एक और लड़के को दिखाया गया है कि दोनों ट्रेन में सफ़र कर रहे है ।और अपनी परेशानी के बारे में सोच रहे है । वैसे दोनों को अलग अलग दिखाया है । ट्रेन पूरी तेज़ रफ़्तार से चल रही है । जहाँ विराट कोहली खड़े होकर कुछ सोचते हुये चल रहे है वहीं दूसरी ओर लड़का अपने लैपटॉप पर अपना इस्तीफ़ा टाइप करता है और कुछ सोच रहा है । और फिर अपना इस्तीफ़ा किसी को इ-मेल से भेज देता है । यहाँ तक तो ठीक है । फिर विराट कोहली को दिखाते है वो अचानक ट्रेन रोकने वाली इमर्जेंसी चेन खींचते है और ट्रेन एक ज़ोर की आवाज़ करते हुये रूक जाती है और विराट कोहली शान से ट्रेन से नीचे कूदते है और चले जाते है ।और एक कैप्शन लिखा आता है मेक

रेलगाड़ी का सफ़र

रेलगाड़ी के सफ़र का अलग ही मजा होता है । पहले जब हम लोग लखनऊ ,कानपुर ,इलाहाबाद और बनारस रेलगाड़ी से जाते थे तो उसका वो काला इंजन भक- भक करके धुआँ उड़ाता जब चलता था तो कई बार खिड़की से बाहर झाँकने पर धुयें के कण आँखों में भी पड़ जाते थे । पर फिर भी बाहर झाँकने से बाज़ नहीं आते थे 😊 बाद में डीज़ल और बिजली वाले इंजन आने के बाद वो कोयले से चलने वाले काले इंजन का ज़माना ही समाप्त हो गया । हालाँकि पहले इतनी जनसंख्या नहीं थी पर तब भी ट्रेन में हमेशा भीड़ ही होती थी । उस समय तो रेल के डिब्बों की खिड़कियों में ग्रिल भी नहीं होती थी ,एकदम खुली खिड़की जिसमें से लोग बच्चों को वहीं से सीट रोकने के लिये अन्दर कर देते थे क्योंकि छोटी दूरी के लिये तब कोई रिज़र्वेशन नहीं होता था । और दरवाज़े पर ज़बरदस्त धक्का - मुक्की होती थी । 😁 सत्तर के दशक तक तो ज़्यादातर ट्रेनों में थर्ड क्लास ,सेकेंड क्लास और फ़र्स्ट क्लास ही होता था और बाद में राजधानी में ही ए.सी के डिब्बे और चेयर कार होती थी । पहले सेकेंड और फ़र्स्ट क्लास में खूब यात्रा की है और बड़ा मजा़ भी आता था । स्टेशन पर पहुँचते ही सबसे पहले बुक स्टा

ढेर सारे भाई-बहन का ज़माना

हमारे स्कूल के वहाटसऐप गुरुप पर हम लोगों की दोस्त ने एक लड़की ( अब हम लोग अपने गुरूप में सबको लड़की ही बोलते है 😀 ) की फ़ोटो शेयर की और कहा कि इसे पहचानो और इसका नाम बताओ । खैर हमने नाम और शक्ल तो नहीं पहचानी पर उसके दिये हुये हिंट पर ये पूछने पर कि क्या ये कई सारी बहनें है । तो हमारी दोस्त ने कहा हाँ । वैसे उस ज़माने में तो रिवाज ही ज़्यादा बच्चों का था । 😋 अब पहले के ज़माने में तो बच्चों को भगवान की देन माना जाता था और इसीलिये हर घर में ढेर सारे बच्चे होते थे । हमारी मम्मी कुल सात भाई बहन थे । और हर एक के कम से कम पाँच बच्चे या उससे ज़्यादा बच्चे ,बस हमारे दो छोटे मामा में एक मामा के दो बेटे और दूसरे मामा के दो बेटे और एक बेटी है । कुल मिलाकर ३७ भाई बहन । 😛 हमारे मोहल्ले में भी हर घर में पाँच से ज़्यादा ही बच्चे थे । एक परिवार में तो पाँच भाई और पाँच बहन है । कुल मिलाकर दस ।हर घर में लड़कियों की संख्या ज़्यादा । सबसे मज़ेदार सारी बहनें चूँकि एक ही स्कूल में पढ़ती थी तो हर उम्र की बहन के साथ दूसरी लड़की की कोई ना कोई बहन पढ़ती ही थी । वैसे हमारे स्कूल वाले वहाटसऐप गुरूप में ज

प्लास्टिक के कूड़े की जटिल समस्या

दो दिन पहले महाराष्ट्र सरकार ने प्लास्टिक के उपयोग पर पूरी तरह से रोक लगा दी है और प्लास्टिक के बैग के साथ पाये जाने पर फ़ाइन भी देना पड़ेगा । और उम्मीद करते है कि ये अभियान सफल हो । वैसे कुछ महीने पहले दिल्ली में भी प्लास्टिक बैग और अन्य प्लास्टिक की चीज़ों पर बैन लगाया था और फाइन भी लगाया था पर बस कुछ दिन बाद सब कुछ फिर पहले जैसा हो गया । मललब हर जगह प्लास्टिक का प्रयोग दुबारा शुरू हो गया । क्योंकि यहाँ पर फाइन शायद कम था । 🙁 वैसे इस प्लास्टिक की समस्या और पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाने में हम सबका भी बड़ा हाथ है । क्यों आपको ऐसा नहीं लगता है । हमें याद है हमारी मम्मी घर में कपड़े के झोले जी हाँ पहले झोला ही हुआ करता था ,जिसे अब बैग कहते है बनाकर रखती थी और जब भी नौकर फल सब्ज़ी या कुछ और सामान लेने जाता था तो हमेशा कपड़े के झोले में ही सामान लाता था । और सभी दुकानों पर वो चाहे फल -सब्ज़ी की हो या फिर राशन या पंसारी की हो सभी अखबार के बने हुये पैकेट रखते थे । और इनमें ही सामान देते थे । अस्सी के दशक तक तो प्लास्टिक का कम ही इस्तेमाल होता था । उस समय तो शादी ब्याह में भी खाने पी

पेड़ों की क़ुर्बांनी क्यों ?

आज सुबह अखबार में ये ख़बर पढ़ी कि दिल्ली के कुछ एरिया जैसे सरोजनी नगर ,नैरोजी नगर तथा कुछ और पश्चिमी दिल्ली की पुरानी कॉलोनियों को तोड़कर वहाँ दुबारा बहुमंज़िला इमारत बनने वाली है । बहुमंज़िला बिल्डिंग बनाना तो ठीक है पर इन्हें बनाने के लिये पेड़ों को भी काटना पड़ेगा । और पेड़ भी हज़ार दो हज़ार नहीं बल्कि सत्रह हज़ार से ज़्यादा पेड़ों की क़ुर्बांनी होगी । जबकि अभी तकरीबन इक्कीस हज़ार से ज़्यादा पेड़ है । तो सोचिये भविष्य में दिल्ली का क्या होगा । एक तरफ़ तो कहा जाता है कि पेड़ लगाओ और दूसरी तरफ़ सालों पुराने पेड़ों को काटकर बिल्डिंग बनाई जा रही है । वैसे ही दिल्ली में अब काफ़ी कम पेड़ रह गये है । पर अगर इसी तरह पेड़ काटकर बिल्डिंग बनती रही तो वो दिन दूर नहीं जब हर तरफ़ सिर्फ़ बिल्डिंग ही बिल्डिंग दिखाई देगी ।

अन्तराष्ट्रीय योग दिवस

आज २१ जून को ना केवल हिन्दुस्तान बल्कि पूरे विश्व में योग दिवस मनाया जा रहा है । तो सबसे पहले तो योग दिवस की आप सबको बधाई । वैसे योग हज़ारों सालों से हमारे ऋषि मुनि लोग करते रहे है । और ये माना जाता है कि योग से तन और मन दोनों स्वस्थ रहते है । योग से जहां मन शांत रहता है तो वहीं शरीर स्वस्थ रहता है । योग हमेशा से ही स्वास्थ्य के लिये अच्छा माना जाता रहा है ।जब हमने नब्बे के दशक में योगा सीखा था तब भी लोग स्वस्थ रहने के लिये योगा किया करते थे । वैसे आजकल लोग योगा को लेकर कुछ ज़्यादा ही जागरूक हो गये है जो कि बहुत अच्छी बात है । अपने देश में समय समय पर दूरदर्शन पर भी योग गुरू होते रहे है। जैसे पहले धीरेन्द्र ब्रह्मचारी थे और एक सहगल नाम के भी योग गुरू होते थे । और फिर आये बाबा रामदेव जिन्होंने आस्था चैनल पर सुबह चार बजे से जो योग सिखाना शुरू किया कि बस हर कोई योगमय हो गया । अब तो योगा इतना अधिक प्रचलित हो गया है कि बहुत सारे योग संस्थान खुलते जा रहे है और अच्छी खासी फ़ीस देकर लोग योगा में प्रशिक्षण लेने लगे है । आज जहाँ मोदी जी ने पचास हज़ार लोगों के साथ देहरादून में योग किया व