आई दीपावली

दीपावली या दिवाली का त्योहार मतलब रोशनी ,पटाखे , मिठाई और धूम कर सफ़ाई अभियान यानी अलमारियों से लेकर परदे तक ,घरों की रंग रोगन , घर का एक एक कोना साफ़ किया जाता है लक्ष्मी जी के आगमन के लिये । अब ऐसा भी नहीं है कि लोग दिवाली के अलावा अपने घर और अलमारियाँ वग़ैरा साफ़ नहीं करते है । पर दिवाली की सफ़ाई कुछ ख़ास ही होती है ।

यूँ तो दशहरे के बाद से ही दिवाली का इंतज़ार शुरू हो जाता है । दिवाली का त्योहार धनतेरस , छोटी दिवाली ,दिवाली, गोवर्धन पूजा या परिवा और भाई दूज या क़लम दावत की पूजा से ख़त्म होता है । उत्तर भारत में भगवान राम के वनवास से वापस आने की ख़ुशी में दिवाली मनाई जाती है तो वहीं दक्षिण भारत और गोवा में कृष्ण की पूजा करते है । वहाँ नरकासुर वध की ख़ुशी में दिवाली मनाई जाती है । गोवा में तो खूब बडे बडे नरकासुर के पुतले बनाये जाते थे और उन्हें जलाया जाता है बिलकुल रावन दहन की तरह ।

धनतेरस के दिन ख़रीदारी करना तो अनिवार्य सा होता है । स्टील के बर्तन पीतल के बर्तन और सोना ख़रीदने वालों की तो जैसे बाज़ार में बाढ़ सी आ जाती है । धनतेरस की रात में पूजा भी की जाती है ताकि घर में धन-धान्य बना रहे । छोटी दिवाली के दिन घर से सभी बुराई को दूर भगाने के लिये एक बड़ा सा दिया नाली के पास जलाया जाता है । दिवाली के बाद परिवा जिसमें भी रात में छोटी सी पूजा होती है और परिवा के दिन मम्मी हल्दी का घोल बनाकर आँगन से पूजा घर तक दो समानांतर लाइन बनाती थी जिसे लाँघना मना होता था । 😋और इस दिन गन्ना भी खाते थे ।

दिवाली जो पहले असली मायने में दीपावली होती थी क्यों कि तब हर कोई अपने घर द्वार पर सिर्फ़ और सिर्फ़ दिये ही जलाते थे । छत हो या पोर्टिको हर जगह दिये जलाये जाते थे ।

पर अब लोग दिये कम लाइट लगाना ज़्यादा पसंद करते है । एक तो दिये में तेल ख़त्म होने का झंझट और दूसरा हवा में दिया ठीक से जल भी नहीँ पाता है । वैसे हम अभी भी दिये जलाते है पर साथ ही लाइट भी लगाते है ।

खैर दिये का प्रचलन कम हुआ पर लक्ष्मी गणेश जी की मिट्टी की मूर्ति की पूजा करना और लावा (खील ) लाई (मुरमुरा ) बताशे और चीनी के बने खिलौने ,लड्डू वग़ैरा चढ़ाये जाने की परंपरा चल रही है ।

हमारे मायके में तो दिनों पहले से ताश शुरू हो जाता था और बाक़ायदा पैसे वाला । दिवाली के दिन पटाखे वग़ैरा चलाने के बाद जहाँ लक्ष्मी गणेश की पूजा की होती है वहीं अपनी किताबें और पेन वग़ैरा सब लोग रख देते थे क्योंकि सरस्वती जी की भी पूजा की जाती है । और दिवाली के एक दिन बाद जब हम लोग क़लम दवात की पूजा करते थे उसके बाद ही पढ़ने लिखने का काम शुरू होता था । मतलब बस तीन पत्ती खेलो । 😜

और दिवाली की रात वहीं दिये से मम्मी काजल पारती थी जिसे लगाना सभी के लिये अनिवार्य होता था ।

हम लोग तो दिवाली में ताश ( जुआ ) जरूर खेलते है । और ऐसा कहा जाता है कि अगर दिवाली के दिन ताश नहीं खेलते है तो अगले जन्म में छछून्दर बनते है । 😀

प्रदूषण की वजह से अब आजकल तो पटाखा चलाना बंद ही होता जा रहा है । ख़ासकर दिल्ली में । वैसे हमारे बेटे जब छोटे थे तभी इनके स्कूल में पटाखे ना चलाने का कैम्पेन शुरू हो गया था और बेटों ने पटाखा चलाना छोड़ ही दिया था । पर शगुन के लिये हम हमेशा थोड़े से अनार,चरखी और फुलझड़ी और साँप जलाते थे । हालाँकि पिछले दो-तीन सालों से सिर्फ़ फुलझड़ी ही जलाते है । पर इस बार ग्रीन पटाखा चलायेगें । 😊

बस आज के लिये इतना ही । अब दिवाली मनाइये ।

आप सभी को दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें ।




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