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Showing posts from May, 2018

कभी कभी ऐसा हो जाता है

कि हम ये समझ नहीं पाते है कि क्या करें । अभी हाल ही में हम ग्रेटर नोएडा जा रहे थे जैसे ही एक्सप्रैस वे पर पहुँचे कि कार से कुछ ज़मीन पर टकराने की आवाज़ आने लगी तो ड्राइवर ने कार रोक कर देखा तो पता चला कि स्पलैश गार्ड टूट कर ज़मीन से टकरा रहा था । ड्राइवर ने बोनट के नीचे कुछ ठोंक कर उसे फ़िट किया और हम लोग चल पड़े । पर अभी थोड़ी दूर ही गये थे कि पीछे से आ रही एक कार ने इशारा किया तो एक बार फिर ड्राइवर ने कार रोकी और बोला कि स्पलैश गार्ड फिर से ज़मीन से टकरा रहा है । तो हमने ड्राइवर से कहा कि परी चौक बस पाँच मिनट की दूरी पर रह गया है इसलिये कार को बिलकुल धीरे धीरे चलाये ताकि परी चौक तक हम लोग पहुँच जायें । क्योंकि वहाँ पहुँचकर ही कोई मदद मिल सकती थी । अब ये तो हम सभी जानते है कि एक्सप्रैस वे पर ना तो कोई दुकान और ना ही कोई रिपेयर शॉप है । इसी बीच हमने टोयोटा सर्विस सेंटर ग्रेटर नोएडा करके सर्च किया ( गूगल का फ़ायदा ) और सर्विस सेंटर को फोन किया तो पता चला कि उनका शो रूम और सर्विस सेंटर वैनिस मॉल के पास है । ख़ैर हम कार लेकर वहाँ पहुँच गये और उनकी वर्कशॉप पर मौजूद एक लड़के को कार द

कमेंट और लाइक का महत्त्व

आज की पोस्ट पढ़ने वालों के नाम । जब भी हम अपने ब्लॉग पर कोई पोस्ट लिखते है तो हम को हमेशा ये आशा और उम्मीद रहती है कि हमने जो भी लिखा है वो लोगों को पसंद आये ।हम ही क्या हर लिखने वाला ये चाहता और सोचता है । और अगर लिखी हुई पोस्ट पढ़ने वालों को पसंद आती है तो वो उस पोस्ट को लाइक करते है और उस पर अपने कमेंट या टिप्पणी करते है । जो हौसला बढ़ाने में बहुत मदद करती है । यूँ तो हम बहुत सालों (२००७ ) से ब्लॉग लिख रहे थे पर फेसबुक पेज कुछ समय पहले ही बनाया और हमें ये डर लगता था कि पता नहीं कोई हमारी पोस्ट पढ़ेगा भी कि नहीं । पर फिर भी बेटों के ज़ोर देने पर हमने फेसबुक पर लिखना शुरू किया । बीच में काफ़ी समय से हमने लिखना छोड़ दिया था तो लगता था कि दिमाग़ में कोई विषय ही नहीं आ रहा है जिस पर हम पोस्ट लिखें। पर कमाल की बात है जैसे ही लिखना शुरू किया तो बस एक के बाद एक विषय मिलते गये और हम पोस्ट लिखते गये । पर इस पोस्ट लिखने की प्रेरणा तो हमारे पढ़ने वाले ही है क्योंकि आप लोगों के पोस्ट पढ़ने और लाइक करने और सोने पर सुहागा उस पर आप लोगों की टिप्पणी या कमेंट करने से हमारा हौसला बढ़ता रहा और ह

तेरहवाँ हैबिटैट फ़िल्म फ़ेस्टिवल

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रविवार को तेरहवाँ हैबिटैट फ़िल्म फ़ेस्टिवल समाप्त हो गया । और इस बीच हमने कुछ और फ़िल्मे देखीं तो सोचा कि उनमें से कुछ फ़िल्मों के बारे मे लिखा जाये । चलिये पहली फ़िल्म एस. दुर्गा के बारे में बात करते है । इस फ़िल्म की शुरूआत देवी माँ की पूजा से होती है और क़रीब दस मिनट तक सिर्फ़ पूजा ही दिखाई जाती है । ये एक मलयालम भाषा की फ़िल्म है जिसमें दुर्गा नाम की लड़की उत्तर भारत की दिखाई गई है और कबीर जो कि मलयाली है दोनों भागकर अपने शहर और लोगों से कहीं दूर चले जाना चाहते है । दोनों स्टेशन जाने के लिये चल पड़ते है । रात का समय कोई सवारी मिलना मुश्किल होता है । थोड़ी दूर दोनों पैदल चलते है और फिर एक मारुति वैन में जिसमें दो लोग सवार थे उनसे लिफ़्ट लेते है ।और फिर शुरू होती है स्टेशन तक पहुँचने की यात्रा और उस दौरान दुर्गा और कबीर दोनों को किन किन और कैसी कैसी मानसिक यातना झेलना पड़ता है ।ये दिखाया गया है । हालाँकि पूरे समय वैन वाले दुर्गा को कहते रहते है कि आप हमारी बहन हो और आप बिलकुल सुरक्षित है । आप डरो नहीं । हालाँकि वो उसके सामने अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने और शराब पीने से बिलकुल नहीं

वॉरियरस ऑफ़ टैराकोटा आर्मी

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आज शियान चलते है और उसके बारे मे कुछ बात करते है । शंघाई से शियान जाने में पहले तो हम लोगों ने एक - डेढ़ घंटे की हवाई यात्रा की । और शियान पहुँचकर सबसे पहले वॉरियरस ऑफ़ टैराकोटा देखने के लिये चल पड़े । ये म्यूज़ियम शियान से चालीस कि. मी. की दूरी पर है ।और बस से आराम से आधे घंटे या चालीस मिनट में पहुँच जाते है । इस म्यूज़ियम मे प्रवेश टिकट १५० चाइनीज़ करेंसी का होता है । सोमवार को छोड़कर पूरे हफ़्ते सुबह नौ बजे से शाम साढ़े पाँच बजे तक खुला रहता है । टिकट काउंटर से म्यूज़ियम तक जाने के लिये छोटी वाली कार्ट मिलती है क्योंकि वहाँ से म्यूज़ियम तक की दूरी तक़रीबन एक से डेढ़ कि.मी. की है ,वैसे पैदल भी जा सकते है । पर चूँकि गरमी बहुत ज़्यादा थी तो हम लोग भी कार्ट मे ही बैठकर म्यूज़ियम तक गये । वहाँ तीन बड़े बड़े म्यूज़ियम है । और एक हॉल में स्क्रीन पर वॉरियरस की मूवी दिखाई जाती है । सबसे पहले हम लोगों ने भी थोड़ा गरमी से राहत पाने के लिये हॉल मे चल रही मूवी को दस-पन्द्रह मिनट देखा और फिर थोड़े ठंडे होकर म्यूज़ियम देखने के लिये चल पड़े। और जैसे ही म्यूज़ियम के अन्दर दाख़िल हुये कि बस चारों

बिग बास्केट और हमारा अनुभव

अब ये मत सोचिये कि हम बिग बास्केट पर क्यूँ लिख रहे है। दरअसल हम बिग बास्केट से दो- तीन साल से सामान,सब्ज़ी ,फल वग़ैरा मँगाते रहे है पर अभी बिग बास्केट ने कुछ ऐसा कर दिया कि हम लिखने पर विवश हो गये । अरे अरे ये मत सोचिये कि कुछ बुरा हुआ है । वैसे बिग बास्केट के आने बाद से काफ़ी आराम तो हो गया है । एक तो घर बैठे सामान मँगा सकते है और एक प्रोडक्ट के कई विकल्प होते है जिनमें से हम अपनी पसंद का सामान चुन सकते है और ऑर्डर कर सकते है। धूप ,गरमी और बारिश कोई भी मौसम हो पर बिग बास्केट वाले समय पर सामान घर पर पहुँचा ही देते है । और पेमेंट मे भी आसानी चाहे कैश करो ,चाहे नैट बैंकिंग या चाहे पे टी एम से कर सकते है। और सबसे बढ़िया बात कि अगर कोई सामान ठीक नहीं है तो शिकायत करने पर बिग बास्केट एकाउंट मे वो पैसा रिफंड कर देते है । और अगर सामान ठीक नहीं है तो तुरन्त वापिस कर दें तो भी सामान वापिस ले जातें है और पैसा बिग बास्केट एकाउंट मे रिफंड कर देते है। ख़ैर शाम को हमने बिग बास्केट पर कुछ सामान वग़ैरा ऑर्डर किया और उन्होंने शाम साढ़े छ: से साढ़े आठ बजे का डिलीवरी का समय दिया । पर हम भूल गये और है

रिश्तों के बदलते नाम

वैसे आज का विषय हमारी कल हुई किटटी पार्टी से मिला है । वो क्या है ना कि कल हमारी किटटी पार्टी थी और वहाँ हमारी एक मेंबर नहीं आई थी क्योंकि उसके ससुर जी बीमार हो गये है। यह जानकर हम लोंगों की सबसे सीनियर पर ज़िंदादिल सदस्य संतोष जी ने बड़ी ही मासूमियत से कहा कि अब ससुर कहां , ससुर तो फ़ादर - इन -लॉ हो गये है । और संतोष जी की कही हुई बात कुछ ग़लत भी नहीं है क्योंकि अब लोग सास ,ससुर ,ननद ,देवर ,जेठ ,जेठानी,ही नही मौसी,मामा,चाची ,नाती पोती ,नतनी सब कुछ कुछ लुप्त से हो रहे है । मॉं बाबूजी से हम लोग मम्मी पापा पर आये थे । पर धीरे धीरे मॉम और डैड का ज़माना आया । अब तो कई बार पापा के लिये पॉपस भी सुनने को मिलता है । कब सास मदर -इन-लॉ और ससुर कब फ़ादर -इन-लॉ बन गये किसी को भनक भी नहीं लगी । ननद और भाभी तो सिस्टर् -इन-लॉ भी नही बल्कि सिस-इन-लॉ हो गई । दामाद सन-इन-लॉ तो बहू डॉक्टर-इन-लॉ हो गई। पहले बड़ी शान से दामाद को दामाद कहकर मिलवाते थे पर अब सन-इन-लॉ कहकर मिलवाया जाता है चाची ,मौसी ,बुआ,मामी को एक ही सम्बोधन आन्टी से ही बुलाया जाता है । तो वहीं मामा ,चाचा फूफा को अंकल । पता

तेरहवाँ हैबिटैट फ़िल्म फ़ेस्टिवल

१७ मई से २७ मई तक इंडिया हैबिटैट सेंटर में तेरहवाँ हैबिटैट फ़िल्म फ़ेस्टिवल मनाया जा रहा है जिसमें भारत के विभिन्न राज्यों की कुछ चुनी हुई फ़िल्में दिखाई जा रही है । इसके अलावा शशि कपूर और श्री देवी की फ़िल्में श्रद्धांजली के तौर पर दिखाई जा रही है । इसमें टिकट या रजिस्टेशन सिर्फ़ ऑनलाइन ही बुक होता है और ये बिलकुल नि:शुल्क होता है । और जैसे ही बुक होता है फ़ौरन ई-मेल आ जाता है। वहाँ काउंटर या तो इसी ई-मेल का प्रिंट आउट दिखाना पड़ता है या फिर फोन पर आया हुआ ई -मेल दिखाना पड़ता है और तब वो फ़िल्म का टिकट देते है जिसके बाद ही हॉल मे जा सकते है । हम लोगों ने भी कई फ़िल्मे बुक करी पर कुछ फ़िल्मों को हम बुक नहीं कर पाये क्योंकि फ़ेस्टिवल का पता हमें ज़रा देर में चला था । चलिये एक - दो फ़िल्मों के बारे में बताते है । रविवार को हम ने मलयालम फ़िल्म आलोरूकम देखी जो काफ़ी अच्छी लगी । इस फ़िल्म में एक पिता अपने उस बेटे को ढूँढता है जो सोलह साल पहले घर छोड़कर चला गया था । और किस तरह घायल अवस्था में पिता एक हॉस्पिटल में पहुँचता है । जहाँ की डाक्टर सीता उसका इलाज तो करती है साथ ही अपने पत्रका

कबूतर से नुक़सान भी हो सकते है ।

कबूतर जिन्हें शान्ति का प्रतीक माना जाता है और कबूतर को संदेशवाहक भी माना जाता है । पहले तो इतनी ज़्यादा संख्या में कबूतर नहीं होते थे पर धीरे धीरे कबूतरों की संख्या बढ़ती जा रही है । अब तो बहुत जगहों जैसे कुछ तिराहों पर ,फ़्लाई ओवर पर ,कबूतर को खिलाने के लिये बाक़ायदा दाना भी मिलता है और लोग कार ,स्कूटर रोक कर दाना ख़रीदते है और कबूतरों को खिलाते है । आजकल तो कबूतर कुछ ज़्यादा ही दिखने लगे है । अब पहले तो घर या खिड़की पर कबूतर का बैठना अच्छा नहीं माना जाता था । ऐसा माना जाता था कि कबूतर के बोलने से मनहूसियत आती है । पर अब हालात बदल गये है । हम चाहें या ना चाहें कबूतर घर की खिड़कियों ,ए.सी. ,और बालकनी में आ ही जाते है । जब भी कबूतर आते तो हम लोग चावल वग़ैरा भी डाल देते थे । वैसे गोवा और अरूनाचल मे भी हम कबूतरों को खूब दाना डालते थे पर कभी ऐसा नहीं लगा था कि हम इन्हें अपने घर नहीं आने देगें । जब हमने घर बदला तो बड़े शान से बालकनी में गमले लगाये और कबूतरों के आने पर ख़ुश भी हुये पर तब ये नहीं सोचा था कि कबूतरों से कोई नुक़सान भी हो सकता है । शुरू शुरू मे जब गमले में कबूतर ने अण्डा दि

कबूतर ख़तरनाक भी हो सकते है ।

आजकल तो कबूतर कुछ ज़्यादा ही दिखने लगे है । अब पहले तो घर या खिड़की पर कबूतर का बैठना अच्छा नहीं माना जाता था । ऐसा माना जाता था कि कबूतर के बोलने से मनहूसियत आती है । पर अब हालात बदल गये है । हम चाहें या ना चाहें कबूतर घर की खिड़कियों ,ए.सी. ,और बालकनी में आ ही जाते है । जब हमने घर बदला और बड़े शान से गमले लगाये तब ये नहीं सोचा था कि कबूतरों से इतना नुक़सान भी हो सकता है । शुरू शुरू मे जब गमले में कबूतर ने अण्डा दिया तो हम लोग बड़े ख़ुश हुये और जब क़रीब बीस दिन बाद उसमें से सुनहरे रंग के बच्चे निकले तब तो हम बड़े ही रोमांचित हुये और फिर तो रोज़ हम उन्हें देखते और ऐसे ही कैसे धीरे धीरे वो बच्चे बड़े हो गये और एक दिन उड़ गये । और हम ये सोचकर कि चलो पौधा तो मर गया पर कबूतर के बच्चे बचे रहे । यहाँ ते ज़रूर बताना चाहेगें कि कई बार कौवे भी आते थे इन बच्चों को खाने के लिये पर तब हम उन्हें भगा दिया करते थे।

शंघाई ओरियनटल पर्ल टावर

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चलिये आज शनिवार है तो शंघाई घूम कर आते है । शंघाई चीन की राजधानी है ।और शंघाई मे बहुत ऊँचे ऊँचे टावर है और शंघाई का ओरियनटल पर्ल रेडियो और टी.वी. टावर चूंकि बहुत ऊँचा है तो चारों ओर से दिखाई देता है । इसकी ऊँचाई ४६८ मीटर है और यह हुआंगपु नदी के पास बना है ।पर्यटकों के लिये सुबह आठ बजे से रात साढ़े नौ बजे तक ये खुला रहता है ।ऑबजरवेशन डैक का टिकट १५० या १८० युआन के आस पास होता है। तो हम भी पहुँच गये इसे देखने । 😊 इस टावर मे होटल , रिवालविंग रेस्टोरेंट और ऑबजरवेशन डैक है । दिन मे तो ये कुछ सिलेटी ,लाल और कुछ कुछ भूरे से रंग का दिखाई देता पर जैसे जैसे शाम होने लगती है तब इसके विभिन्न बदलते रंगों की छटा देखने लायक होती है। हंडुपु नदी मे बोटिंग करते हुये नदी के किनारे बनी तमाम ऊँची ऊँची इमारतों मे से ये टावर अलग ही दिखता है । क्योंकि हर मिनट इसकी लाइट का रंग बदल जाता है और उन बदलते हुये रंगों को हर कोई अपने कैमरे मे क़ैद करने लगता है। वैसे नदी के किनारे या आसपास बनी सभी इमारतों की लाइट और कुछ इमारतों पर पूरे समय अलग अलग विज्ञापन दिखाई देते रहते है। चूँकि बोट एक तरह से पूरी नदी का चक

खट्टे मीठे से निक नेम्स

जैसे बहुत सारी बातें और चीज़ें लुप्त होती जा रही है वैसे ही आजकल निक नेम या घर मे प्यार से बुलाये जाने वाले नाम भी कुछ लुप्त से होते नज़र आ रहे है या यूँ कहें कि अब कम सुनने में आते है । पर पहले हर घर मे गुड्डी, गुडडू ,बबली, बबलू ,गुड़िया ,गुडडा ,बेबी ,डब्बू ,बबबू , पपपू ,गाबू, बाबू ,भइया , हनी ,गुडडन ,मुन्नी ,मुन्ना ,चीकू,पीकू, मुन्नू , मिकी, दीपू ,फततू , नीटू ,चिया,चुम्मू ,पिंकी ,पिंकू ,गुल्लू गुल्ला ,लडडू जैसे नाम किसी ना किसी के हुआ ही करते थे । 😁 ये तो हमें याद आये पर इनके अलावा और भी बहुत सारे निक नेम्स होते है । चलिये आज ऐसे ही कुछ नाम हम बताते है । चलिये हम अपने ही कुछ नामों से शुरूआत करते है । क्यूँ आश्चर्य हो रहा है अरे भई हमें घर मे कई नाम से पुकारा जाता था । चूँकि हम हमेशा से गोल मटोल है तो हमारे पापा हमें ढोलक कहते थे। मम्मी प्यार से मंटू कहती थी । हमारे बाबा हमें टुनटुन कहते थे । हमारी दीदी लोग मुन्नी और गुड़िया और हमारे भइया हमें बकटुनिया कहते । 😃 ये तो हुये हमारे नाम चलिये अब कुछ और नाम बताते है । पोप --हमारे दादा मतलब ताऊ जी का नाम था चूँकि वो बहुत गोरे थ

कैरी नाम या आम

कभी कभी जब लोग पोस्ट को पढ़े बिना कमेंट कर देते है तो हम सोच में पड़ जाते है और हँसी भी आती है । अब यूँ तो कच्चे आम को ही कैरी कहते है और कैरी नाम भी होता है जैसे हॉलीवुड के अभिनेता जिम कैरी या होमलैंड सीरियल की हीरोइन का नाम भी कैरी है । ख़ैर हमारे डॉगी का नाम भी कैरी था । पर कभी कभी ऐसे नाम होने से कन्फ़्यूजन हो जाता है । ये बात कुछ पुरानी है । हमारे ब्लॉगिंग के शुरूआती दिनों की । एक बार हमने अपनी एक पोस्ट पर कैरी जो हमारा डॉगी था उसकी फ़ोटो जिसमें बाहर बारिश हो रही थी लगाई थी । और एक दूसरे ब्लॉगर ने बिना पढ़े ही उस पर कमेंट किया कि बढ़िया है कैरी तो पेड़ पर लदी हुई दिख रही है , बारिश मे कैरी खाइये । हांलाकि हमने उन्हें जवाब भी दिया था कि ये कैरी आम नही बल्कि हमारा डॉगी कैरी है। 😁 वैसे कई बार हम भी ऐसी दुविधा मे फँस जाते है और ये समझ नहीं आता है कि क्या करें । जब लोग बिना पढ़े कमेंट कर देते है । अभी हाल में भी कुछ ऐसा ही हुआ कि हमने एक बड़े ब्रांड की तारीफ़ में पोस्ट लिखी और उन्होंने बिना पढ़े ही कमेंट किया कि आपको हुई असुविधा के लिये खेद है आप अपने डीटेल हमें भेज दें हम उस

ये कैसे नेता और कैसी राजनीति

कर्नाटक में चुनाव के बाद जो कुछ तमाशा चल रहा था उससे लगता है कि अब अपने देश की राजनीति बस ड्रामा भर रह गई है । जिस तरह चुनाव प्रचार के दौरान सारी पार्टियाँ एक दूसरे के लिये बुरी से बुरी बात बोलते है और जैसी छींटाकशी होती है ,कि कोई भी किसी से पीछे नहीं रहता है । वैसे तो राजनीति मे सब कुछ जायज़ है । पर पहले तो फिर भी थोड़ी मर्यादा रहती थी पर अब तो कोई भी मर्यादा नही रखते है । चुनाव जीत जाये तो तो ठीक वरना तो हर पार्टी दूसरी पार्टी के नेताओं की ख़रीद फ़रोख़्त मे लग जाती है । दो- तीन दिन से सारे न्यूज़ चैनल दिखा रहे थे कि किस तरह १०० करोड़ मे दूसरी पार्टी के नेताओं को ख़रीदने की ख़बर दिखाई जा रही थी । और किस तरह नेताओं को रिसॉर्ट मे रखा जा रहा था ताकि वो लोग पार्टी छोडकर दूसरी पार्टी में ना चले जाये। बस मे भरकर कभी कोच्चि तो कभी हैदराबाद ले जाये जा रहे थे । मानो कोई सामान हों। अरे जो नेता पैसे रूपये के लिये दूसरी पार्टी मे चला जाता है वो जनता के लिये भला क्या करेगा ये सोचने वाली बात है। ऐसा नहीं है कि पहले नेता पार्टी बदल कर दूसरी पार्टी मे नहीं जाते थे ,पहले भी दलबदलू नेता होते ही

कुछ याद आया

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जी हाँ वही -- वन फ़ॉर सौरो टू फ़ॉर जॉय थ्री फ़ॉर लैटर फ़ोर फ़ॉर बॉय । 😀 हमारे घर पर अकसर ये आते रहते है । अब यूँ तो दिल्ली मे कौआ चिड़िया दिखना काफ़ी कम हो गया है । पर ये हमारे घर के रेगुलर अतिथि है । वैसे आजकल मैना और कबूतरों की संख्या बहुत ज़्यादा बढ़ गई है। उनकी बात फिर कभी । कई बार तो सुबह सुबह आकर इतना ज़ोर ज़ोर से कांव कांव करके शोर मचाते है कि कुछ पूछिये मत । इतने मनमर्ज़ी वाले है कि कई बार उड़ाने और भगाने पर जाते ही नही है । इधर से उड़कर उधर बैठ जाते है । 😊 सारे साल ये आते रहते है पर जब श्राद्ध के दिन होते है तब उन पन्द्रह दिनों मे ये बहुत कम आते है । हो सकता है तब टाइम कम मिलता होगा इन्हें ।

चाय और हम

अधिकतर लोगों की सुबह की शुरूआत चाय से ही होती है । अब इसमें नया कुछ नही है। पर हाँ हमारा और चाय का बड़ा ही पुराना नाता है । जब हम छोटे थे तब तो हम कभी कभार ही चाय पीते थे पर जैसे जैसे हम बड़े होते गये वैसे वैसे हमारा चाय का शौक़ भी बढ़ने लगा पर उन्हीं दिनों हुई एक घटना ने जिसमें पूरी की पूरी गरम चाय हमारे पैरों पर गिर गई थी और हम बहुत जल गये थे तो डर से कुछ दिनों के लिये हमने चाय पीना छोड़ दिया था । पर ज़्यादा दिन तक हम चाय से अलग नहीं रह पाये और दोबारा चाय पीना शुरू कर दिया था । 😋 ख़ैर हम बड़े होते गये और हमारा चाय का शौक़ भी बढ़ता गया। वैसे हमारे घर में शाम चार बजे की चाय का समय बिलकुल निश्चित था क्योंकि पापा के आने के बाद परिवार के सब लोग एक साथ चाय पीते थे। और दुनिया भर की बातें होती थी । और इम्तिहान के दिनों मे पढ़ाई करते हुये घर के बने हुये आलू के चिप्स और चाय का सेवन अलग ही मजा देता था ।रात मे पढ़ाई के लिये जागने मे चाय बड़ी मदद करती थी । क्यूँ ग़लत तो नहीं कह रहे है ना । जब यूनिवर्सिटी पहुँचे तो हमारी चाय की साथी हमारी मम्मी बनी । हमारा और उनका चाय का साथ खूब चला । ज

हिन्दी मीडियम

हम इरफ़ान खान की मूवी हिन्दी मीडियम की बात नहीं कर रहे है बल्कि असल मे हिन्दी मीडियम मे पढ़ने वालों की बात कर रहे है। साठ सत्तर के दशक मे इंग्लिश बोलना बड़े शान की बात मानी जाती थी । वैसे अब ये बात उतना मायने भी नहीं रखती है पर हाँ साठ और सत्तरके दशक मे ये बात बहुत मायने रखती थी । क्योंकि उस समय ज़्यादातर स्कूल हिन्दी मीडियम के होते थे । हालाँकि पढ़ाई अच्छी होती थी । पर कॉनवेंट मे पढ़ने वालों की इंग्लिश पर पकड़ बहुत अच्छी होती थी । सब खूब फ़र्राटे दार इंग्लिश बोला करती थी । अख़बार मे भी कई बार लड़के और लड़की की शादी के विज्ञापन में ख़ासकर मोटे मोटे अक्षरों मे कॉनवेंट एजुकेटेड लिखा होता था । 😋 अब तो ख़ैर सभी बच्चे इंग्लिश स्कूल मे पढ़ते है और अब ये हालत है कि बच्चों को इंग्लिश तो खूब बढ़िया लिखनी पढ़नी आती है पर हिन्दी लिखना पढ़ना मुश्किल होता है। अभी हाल ही मे हुई दो बातें हमारी इस पोस्ट को लिखने की वजह है। पहली वजह है तक़रीबन पॉंच छः दिन पहले हमारी एक दोस्त ने एक पोस्ट हिन्दी मे लिखी थी जिसपर किसी ने कमेंट करा था कि आजकल लडकियां हिन्दी नही पढ़ती है। और दूसरी वजह हमारी सोसाइटी

अड़तालीस घंटे मे दो फ़िल्म

क्यों आश्चर्य हो रहा है ,हमे भी हुआ । 😊 क्योंकि काफ़ी अरसे बाद हमने इस तरह फ़िल्म देखी । अब हम ये तो बता ही चुके है कि हम फ़िल्मों के कितने शौक़ीन है और पहले तो कई बार हमने फ़िल्म फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट शो और कभी कभी एक दिन मे दो फ़िल्म भी देखी है। सुबह बारह से तीन और उसी दिन रात का नौ से बारह का शो भी देखा है । ये तब की बात है जब पी.वी.आर का चलन नही था और हर सिनेमा हॉल मे सिर्फ़ चार शो हुआ करते थे । ख़ैर अब इस बात को एक अरसा हो गया है । 😊 पिछले हफ़्ते हमने बुधवार को अपनी दोस्त के साथ १०२ नॉट आउट देखी और शुक्रवार को पतिदेव के साथ राज़ी देखी ,जो उसी दिन रिलीज़ हुई थी ।दोनों ही फ़िल्म बिलकुल अलग पर दोनों ही फ़िल्मे बहुत अच्छी । जहाँ १०२ हँसी मज़ाक़ के साथ सबको एक बहुत ही सटीक संदेश देती है वहीं राज़ी ये बताती है कि देश के लिये सब कुछ क़ुर्बान । १०२ नॉट आउट बाप बेटे के सम्बन्ध पर आधारित है कि किस तरह एक पिता अपने दुखी, निर्विकार ,बेमक़सद , जिंदगी से उदासीन बेटे को वापिस ज़िन्दगी जीने की ओर लाने की कोशिश करता है । और बेटे को ये समझाने की कोशिश कि उम्र एक नम्बर है और अगर हँसी ख़ुशी जीवन

आम के आम गुठलियों के दाम

गरमी का मौसम आते ही हम सब आम का इन्तज़ार करने लगते है । गरमी और आम का बड़ा ही बेजोड़ सम्बन्ध है ।वैसे आम को फलों का राजा भी तो कहा जाता है । यूँ तो मार्च से ही आम मिलना शुरू हो जाता है जैसे मुम्बई मे मिलने वाला एलफैनजो आम । और दक्षिण भारत मे भी कुछ क़िस्म के आम मिलना शुरू हो जाते है पर उत्तर भारत मे आम मई या उसके बाद मिलना शुरू होता है और अगस्त तक आम मिलता रहता है । आम एक ऐसा फल है जो शायद ही किसी को नापसंद हो । क्योंकि अपने देश मे इतनी क़िस्म के आम मिलते है कि कुछ पूछिये मत । जैसे सफ़ेदा, हापुस (गोवा),दशहरी (लखनऊ ),तोतापरी,नीलम,रसपूरी (दक्षिण भारत ) लँगड़ा आम (बनारस )है तो बंगाल मे मिलने वाला हिमसागर और गुजरात मे मिलने वाला केसर और लखनऊ के चौसा आम को कैसे छोड़ा जा सकता है क्योंकि इसके बाद ही आम का मौसम ख़त्म माना जाता है । वैसे छोटे छोटे देसी आम भी मिलते है। पर अब देसी कम छोटे छोटे सफेदा आम ज़्यादा मिलते है । आम चाहे कच्चा हो या चाहे पक्का हो हर तरह से खूब खाया जाता है। अब कच्ची अमिया तो बहुत लोगों ने खाई होगी कभी नमक के साथ तो कभी यूँ ही खाकर उसकी खट्टास का मजा़ लिया होगा । हाल

माँ और मदर्स डे

आज समूचे विश्व मे मदर्स डे मनाया जा रहा है और मनाया भी क्यों ना जाये । क्योंकि मां से बढ़कर इस दुनिया मे कुछ नही है।माँ की महानता तो हमारे देवी देवता भी मानते थे वो चाहे भगवान राम हो या कृष्ण हो या चाहे गणेश जी हो। हमारी फ़िल्मों मे भी माँ का स्थान हमेशा ऊँचा दिखाया गया है। वो गाना तो सुना ही होगा --- उसको नही देखा हमने कभी ,पर उसकी ज़रूरत क्या होगी एै माँ तेरी सूरत से अलग ,भगवान की सूरत क्या होगी माँ इस शब्द को लिखने और बोलने मे ही माँ का एहसास होता है । मां का प्यार और दुलार और डाँट कौन भूल सकता है । मां जो निश्छल और नि:स्वार्थ रूप से अपने बच्चों पर प्यार लुटाती रहती है । अपनी इच्छा और ख़्वाहिशों को पीछे रखकर सिर्फ़ अपने बच्चों की ख़ुशी चाहती है। ये माँ ही होती है जो अपने बच्चों को हर मुसीबत या परेशानी से बचाती है और बच्चों को मुसीबत से लड़ना भी सिखाती है । और हम बच्चों को इस लायक बनाती है कि हम इस दुनिया और समाज मे रह सके । भगवान ने मां का दिल इतना क्षमाशील बनाया है कि वो अपने बच्चों की बड़ी से बड़ी ग़लती को माफ़ कर देती है। यही नही बच्चे चाहे कही भी हो अगर वो परेशान होते है

सबका साथी रेडियो

कल अपनी एक दोस्त की फ़ोटो पर हमने कमेंट किया था बिनाका समाइल और उसी से ये पोस्ट बनी है। रेडियो एक ऐसा साथी जिसने हर किसी का हर समय साथ निभाया । साठ सत्तर के दशक मे तो रेडियो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन था । अख़बार के अलावा यहीं पर समाचार सुनने को मिलते थे। शुरू मे तो विविध भारती और रेडियो सिलोन और एक शायद रीजिनल स्टेशन होता था। पहले पूरे दिन रेडियो भी नहीं आता था। उसका समय निर्धारित था । विविध भारती सुबह छ: बजे शुरू होता था सात बजे पुरानी फ़िल्मों के गाने बजते और नौ बजे उस समय के नये गाने बजते साढ़े नौ बजे ख़त्म हो जाता था ,फिर बारह बजे शुरू होकर तीन बजे ग़ैर फ़िल्मी गानों के साथ ख़त्म हो जाता था और फिर शाम छ: बजे से शुरू होकर सात बजे फ़ौजी भाइयों के लिये कार्यक्रम , रात नौ बजे हवा महल, रात दस बजे छाया गीत से समाप्त होता था । वैसे बाद मे ग्यारह बजे रात मे आपकी फ़रमाइश कार्यक्रम भी आने लगा था । रविवार को सुबह बच्चों का कार्यक्रम भइया और दीदी का , दोपहर मे किसी फ़िल्म की कहानी आती थी और गीतों भरी कहानी और अन्य कार्यक्रम आते थे। रेडियो सिलोन की बिनाका गीत माला कौन भूल सकता है। अमीन

द ग्रेट वॉल ऑफ़ चाइना

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चलिये गरमी की छुट्टियाँ है तो कही घूम घुमा कर आते है। पिछले साल इन्हीं दिनों हम चीन घूमने गये थे वैसे गरमी का मौसम चीन जाने के लिये बिलकुल भी ठीक नहीं होता है क्योंकि वहाँ भी अपने यहाँ जैसी ही गरमी पड़ती है। हाँ जब बारिश हो जाती है तब मौसम कुछ सुधर जाता है। ख़ैर अब चीन जाये और ग्रेट वॉल ना देखे ऐसा कैसे हो सकता है। तो अपनी उसी यात्रा मे हम द ग्रेट वॉल ऑफ़ चाइना भी देखने गये थे ।अब ग्रेट वॉल ऑफ़ चाइना के बारे मे तो हम सबने पढ़ा ही है । बीजिंग से बस से एक या डेढ़ घंटे मे वहाँ पहुँच जाते है । जैसे जैसे जगह के नज़दीक पहुँचने लगते है तो दूर दिखने वाली हर पहाड़ी पर एक कुछ काली या सिलेटी से रंग की लाइन सी दिखना शुरू हो जाती है। और उससे पता लगने लगता है कि जल्द ही हम वहाँ पहुँचने वाले है । यहाँ पर ४० या ४५ युऑन ( चाइनीज़ करेंसी ) का टिकट लगता है । गेट से अन्दर जाने के बाद थोड़ा आगे बढ़ने पर एक पत्थर पर कुछ चीनी भाषा मे लिखा दिखता है और यहाँ से जैसे ही दाहिनी तरफ़ देखते है तो दूर बहुत ऊपर तक सिर्फ़ सीढ़ियाँ और दीवार दिखाई देती है । शुरू मे लगता है कि इतनी सीढ़ियाँ तो चढ़ ही सकते है। पर जब

चटनी

अब चूँकि आजकल गरमी है तो आपको चटनी से आम और पुदीने की चटनी का ख़याल आया होगा पर हम इस पुदीने की चटनी की बात नहीं कर रहे है । 😋 बल्कि ताश वाली चटनी की बात कर रहे है। 😋 मेरे ख़याल से हर किसी ने चटनी खाई भी है और कभी ना कभी चटनी का गेम भी ज़रूर खेला होगा । जी हाँ अब आप बिलकुल सही समझे है हम ताश मे खेली जाने वाली चटनी की बात कर रहे है । इस चटनी मे सबसे अच्छी बात ये है कि चाहे तो कई लोग खेल सकते है और चाहे तो सिर्फ़ दो लोग भी खेल सकते है। चटनी की तरह ही एक और गेम होता है लादो । पर दोनों गेम मे थोड़ा सा अन्तर है । चटनी मे जीतने वाले के पास ज़्यादा पत्ते होने चाहिये जबकि लादो मे जिसके पास ज़्यादा पत्ते होते है वो हारता है। 😀 दो- तीन दिन पहले हम अपनी दीदी के यहाँ गये थे और वहाँ उनके नातीयों के साथ हम ने और दीदी ने चटनी खेला । और खूब मजा़ आया । बच्चों के साथ खेलते हुये अपना बचपन और अपनी छुट्टियों के दिन याद आ गये जब हम लोग चटनी खेला करते थे । छुटपन मे जब छुट्टियों मे ताश खेलते थे और जब केवल दो ही खेलने वाले होते थे तो खूब चटनी और लादो खेलते थे क्योंकि दो लोगो मे और कोई गेम नही

फ़ैशन घूम फिर कर वही

अब आख़िर फ़ैशन मे क्या नया क्या पुराना । घूम फिर कर वही फ़ैशन बार बार आता है । वो चाहे लड़कों का हो या लड़कियों का । आजकल अगर पुराने गाने या फ़िल्मे देखे तो लगता है कि अरे आजकल तो इसी तरह का पहनावा फ़ैशन मे है । ये माना जाता है कि फ़िल्म स्टार जो पहनते है वही फ़ैशन बन जाता है। पर हमारा मानना है कि हम जिस कपड़े को पहनकर ख़ुश होते है और अपने आप को जो अच्छा लगता है वो फ़ैशन है । वैसे फ़ैशन का स्टाइल घूम फिर कर नया पुराना होता रहता है। जो पहले की फ़िल्मों मे फ़ैशन दिखता था आजकल वही फ़ैशन वापिस दिख रहा है । जहां लड़कियों मे शरारा ,गरारा,लहंगा ,प्लाजो़,( जिसे पहले पैरलल कहा जाता था ) बैलबॉटम ,चूड़ीदार ,सलवार,पटियाला सलवार,लैगिंग ( जो सलैकस से मिलता जुलता है ) ,लॉंग टॉप,शॉर्ट टॉप ,अनारकली सूट,जीन्स कभी टाइट तो कभी ढीली ,कभी पतली मोहरी तो कभी चौड़ी मोहरी ,फ़्रॉक आदि पहले भी पहने जाते थे और आजकल फिर से इन्हीं का चलन हो गया है। तो वही लड़कों मे भी वही पुराना फ़ैशन थोड़ा नये रूप मे दिखाई देता रहता है। पैन्ट और जीन्स मे मोहरी कभी चौड़ी तो कभी पतली, कुर्ता ,पाजामा ,पठान सूट,बैलबॉटम ,सफ़ारी सू

दिलचस्प नाम हमारे गाँवों के

अब ये तो हर कोई जानता है कि अपने देश मे शहर से ज़्यादा गाँव है पर क्या कभी इन गाँव के नाम पर ध्यान दिया है। किस किस को रास्ते मे पड़ने वाले गाँवों के नाम याद है। जब भी हम सड़क के रास्ते जाते हुए (रोड ) या रेलगाड़ी मे यात्रा करते हुए गाँव के नाम देखते या पढ़ते है तो सब तो नहीं पर उनमें से कुछ एक नाम हमे हमेशा याद रह जाते है । हम लोग कार से बहुत यात्रा करते थे ,कभी बनारस कभी लखनऊ कभी कानपुर ,तो कभी फ़ैज़ाबाद ,नैनीताल, आगरा ,भोपाल ,कहने का मतलब है कि हम जब भी कही जाते है तो रास्ते मे पड़ने वाले गाँवों के नाम ज़रूर पढ़ते है क्योंकि हर नाम अलग ,नायाब और रोचक होता है । अब हमारे ज़ेहन मे जिस गाँव का नाम सबसे पहले आ रहा है वो है दूल्हापुर और इसी से मिलता हुआ दुल्हींपुर , छाता,जंगर,जवान,टपपल ( वैसे गोवा मे पोस्ट ऑफ़िस को टपपल कचहरी कहते है ), साहिबगंज ,झिंझक,बकशी का तालाब ,मलीहाबाद ,( जो आम के लिए मशहूर है ) कोन, सिखडी,हंडिया,गोपीगंज ( यहाँ की कुल्हड़ वाली चाय और पकौड़ी के क्या कहने )गुनी,गोशांइगंज ,रसूलाबाद, प्रेमपुर ,मैना । फरारगंज, कनकोन ,केपे,बिचोलिम ,मोरजी ,कोला ,दापी,निर्जुली,नानी

दूरदर्शन और हम लोग

अब कल दूरदर्शन के समाचार की बात करी तो भला उस पर आने वाले कार्यक्रमों को कैसे ना याद करें । जब सत्तर के दशक मे टेलिविज़न आया था तो दिल्ली ,मुम्बई जैसे शहरों और पूरे उत्तर प्रदेश मे सिर्फ़ लखनऊ और बाद मे कानपुर मे दूरदर्शन के कार्यक्रम आते थे । और बाद मे धीरे धीरे बाक़ी शहरों मे भी इसके कार्यक्रम दिखाये जाने लगे थे । शुरू मे तो सिर्फ़ शाम को ही प्रोग्राम आते थे ,वो चाहे न्यूज़ हो या चित्रहार हो या रविवार की पिकचर । पर धीरे धीरे सुबह दो घंटे का प्रसारण शुरू हुआ फिर दोपहर मे भी प्रोग्राम आने लगे थे । चित्रहार का समय रात आठ बजे का होता था और जब चित्रहार आता था तो हम सब काम काज छोड़कर टी.वी के सामने बैठ जाते थे । आधे घंटे मे सात या आठ गाने दिखाये जाते थे तब विज्ञापन बहुत नहीं दिखाते थे । रविवार को पुरानी ब्लैक और व्हाइट फ़िल्म शायद पाँच बजे या छ: बजे से दिखाते थे। भले पिकचर देखी हुई हो पर फिर भी देखते थे । तबससुम का फूल खिले है गुलशन गुलशन प्रोग्राम भी बहुत रोचक होता था जिसमें वो किसी फ़िल्मी कलाकार से बातचीत करती और गाने सुनवाती थी । और बाद मे शाम को छ: बजे कृषि दर्शन का कार्यक्रम आत

दूरदर्शन और दूसरे न्यूज़ चैनल

आजकल तो जैसे न्यूज़ चैनल की भरमार सी हो गई है और हर चैनल तक़रीबन एक से ही समाचार दिखाते है और इतना ज़ोर ज़ोर से बोल कर ख़बर बताते है और अगर कहीं भी कोई डिसकशन हो रहा होता है वहाँ तो लगता है कि जो एंकर के साथ साथ पैनल पर आये हुए बाक़ी के लोग भी सिर्फ़ शोर सा मचाने आये है। हर कोई इतना चिल्लाता हुआ बोलता है कि कुछ समझ ही नहीं आता है । और सबसे मज़ेदार बात कि जब कोई सही बात बोल रहा होता है तो न्यूज़ एंकर फ़ौरन ब्रेक ले लेते है। और एक ही न्यूज़ बार बार दिखाते रहते है। कई बार तो मन दुखी हो जाता है। इन न्यूज़ चैनल से उकताकर आजकल हमने एक बार फिर दूरदर्शन पर समाचार देखना शुरू किया है। जहां सारे चैनल ज़ोर ज़ोर से बोल रहे होते है और कुछ हाहाकार सा मचा होता है वही दूरदर्शन पर बिलकुल शान्त भाव से उद्घोषिका समाचार पढ़ रही होती है। जिसे देखकर लगा कि आज भी दूरदर्शन मे उदघोषक शान्त और संयमित ढंग से समाचार पढ़ते है। फिर वो चाहे नीलिमा शर्मा हो या ममता चोपड़ा हो या चाहे सकल भट्ट हो। अभी ज़्यादा नाम नहीं याद है क्योंकि अभी हाल ही मे देखना शुरू किया है ना । 😊 इन उदघषिकाओ को देख और सुनकर दूरदर्शन के प

कभी कभी मेरे दिल में

ख़याल आता है कि काश एक बार फिर से बचपन लौट आये । कयोकि जब हम बच्चे थे तो लगता था कि जब हम बड़े हो जायेंगे तो बहुत मज़ा आयेगा क्योंकि घर में छोटे होने के कारण कई बार हमसे ये कहा जाता था कि जब तुम बड़ी हो जाओगी तब तुम जो चाहे करना पर अभी तुम छोटी हो । हांलाकि घर में किसी भी तरह की कोई बन्दिश नहीं थी पर जैसे जब दीदी लोगों को कार चलाते देखते तो हमारा मन भी करता था पर बस अभी छोटी हो ये कहकर फुसला दिया जाता था। वैसे वो ग़लत भी नहीं था। पर दिल तो बच्चा है जी । 😋 अब छोटे होने के कुछ फ़ायदे है तो कुछ नुक़सान भी है । कभी कभी जब दीदी लोग पिकचर देखने जाती तो हमे ये कहकर कि तुम छोटी हो इसलिए तुम इस पिकचर में नहीं जा सकती हो। ख़ासकर कुछ इंग्लिश फ़िल्मो में । तो हमे बहुत ग़ुस्सा आता था और हम उनसे कहते थे कि जब हम बड़े हो जायेंगे तो हम भी उनको छोड़कर पिकचर देखने जायेंगे । एक बार तो हमे पिकचर हॉल से वापिस भी आना पड़ा था । 😀 ख़ैर जब बड़े हुए तो लगा कि चलो अब हमे कुछ भी करने की आज़ादी मिल गई पर हर तरह की आज़ादी के साथ एक वाक्य जोड़ दिया जाता था कि अब जो करना है शादी के बाद करना । लो हो गई ना गड़ब

जीवन का कोई मूल्य नहीं

ऐसा माना जाता है कि मनुष्य का जीवन ८४ लाख योनियो में विचरण करने के बाद मिलता है। मतलब कि इस जीवन के पहले हम पेड़ पौधे,पशु पक्षी,मछली मगरमच्छ और चींटी से लेकर हर तरह के कीड़े मकोड़े बनने के बाद हमे मनुष्य का जीवन मिला है। अब अगर ऐसा मानते है तो इसमें सच्चाई तो होगी ही। पर लगता है कि इंसान के जीवन का सबसे कम मूल्य है , ख़ासकर आजकल ।ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी से सस्ता तो कुछ है ही नहीं । जब जिसे चाहा बस मार दिया । ये तक नहीं सोचते है कि उसके बाद उनका या उनके परिवार का क्या होगा। ज़रा सी बात हो फिर वो चाहे कार पार्किंग को लेकर झगड़ा हो या रोडरेज हो या चाहे जायदाद का झगड़ा हो बस फट से बिना समय गँवाये किसी की जान ले लेते है। अब अगर हम किसी को ज़िन्दगी दे नहीं सकते है तो भला भगवान की दी हुई ज़िन्दगी लेने का हक़ हमें किसने दिया। सुबह सवेरे जब अख़बार मे इस तरह की ख़बर पढने को मिलती है तो लगता है क्या वाक़ई अब लोगों में सहनशीलता ख़त्म होती जा रही है।