तेरहवाँ हैबिटैट फ़िल्म फ़ेस्टिवल

१७ मई से २७ मई तक इंडिया हैबिटैट सेंटर में तेरहवाँ हैबिटैट फ़िल्म फ़ेस्टिवल मनाया जा रहा है जिसमें भारत के विभिन्न राज्यों की कुछ चुनी हुई फ़िल्में दिखाई जा रही है । इसके अलावा शशि कपूर और श्री देवी की फ़िल्में श्रद्धांजली के तौर पर दिखाई जा रही है ।

इसमें टिकट या रजिस्टेशन सिर्फ़ ऑनलाइन ही बुक होता है और ये बिलकुल नि:शुल्क होता है । और जैसे ही बुक होता है फ़ौरन ई-मेल आ जाता है। वहाँ काउंटर या तो इसी ई-मेल का प्रिंट आउट दिखाना पड़ता है या फिर फोन पर आया हुआ ई -मेल दिखाना पड़ता है और तब वो फ़िल्म का टिकट देते है जिसके बाद ही हॉल मे जा सकते है ।

हम लोगों ने भी कई फ़िल्मे बुक करी पर कुछ फ़िल्मों को हम बुक नहीं कर पाये क्योंकि फ़ेस्टिवल का पता हमें ज़रा देर में चला था । चलिये एक - दो फ़िल्मों के बारे में बताते है ।

रविवार को हम ने मलयालम फ़िल्म आलोरूकम देखी जो काफ़ी अच्छी लगी । इस फ़िल्म में एक पिता अपने उस बेटे को ढूँढता है जो सोलह साल पहले घर छोड़कर चला गया था । और किस तरह घायल अवस्था में पिता एक हॉस्पिटल में पहुँचता है । जहाँ की डाक्टर सीता उसका इलाज तो करती है साथ ही अपने पत्रकार दोस्त की मदद से उसके बेटे को भी ढूँढती है। पर जब पिता पुत्र का सामना होता है तो अपने बेटे को औरत के रूप मे देखकर पिता यक़ीन नही कर पाता है कि उसका बेटा किन्नर है ।

बेटे का नाम और वेष और परिवार जिसमें पति और उनके द्वारा गोद ली हुई बेटी भी है । हर कोई पिता को ख़ुश रखना चाहता है पर पिता के थोड़ा ज़िद्दी स्वभाव का होने के कारण दिक़्क़त आती है। क्योंकि वो अपने बेटे के इस रूप को अपना नहीं पा रहा था। यहां तक की डाक्टर भी उसे समझाती है कि अब समय बदल गया है पर वो किसी की बात मानने को तैयार ही नहीं होता है ।
और अंत मे पिता कार से वापिस अपने गाँव की ओर चल पड़ता है और रास्ते मे अपना बचपन और अपने पिता के बारे मे सोचता है कि उसके अंदर उसके पिता का साया है मतलब कि उसके पिता सौ साल पहले जन्मे थे और उसकी ख़ुद पचहत्तर साल की उम्र है । और इस बीच बहुत कुछ बदल चुका है और फिर अचानक वो कार को बीच रास्ते में रूकवा देता है ।

ट्रांसजेंडर पर बनी ये फ़िल्म बाप बेटे के रिश्ते की नाजुकता को बख़ूबी दिखाती है । बेटे और उसके परिवार को दूसरे लोग कैसे परेशान करते है । डाक्टर और उसके स्टाफ़ का इतना संवेदनशील होना । छोटी बच्ची और बेटे ने बिना ज़्यादा कुछ बोले बहुत सरल और अच्छा अभिनय किया है । अड़ियल और ज़िद्दी पिता की भूमिका तो कमाल की है ।

दूसरी फ़िल्म अन्नया जो कि आसामी फ़िल्म थी देखी । इसमें एक टीचर को एक कवि से जिसकी कवितायें पढ़कर वो पेंटिंग किया करती थी उससे प्यार हो जाता है पर जब पता चलता है कि कवि कमर के नीचे से अपाहिज है तो पहले तो उसे झटका लगता है पर फिर वो कवि से शादी करती है । और फिर कैसी कैसी परेशानी आती है उसे । कैसे वो दुखी होते हुये भी ख़ुश रहने की कोशिश करती है। बीच मे एक और शख़्स भी आता है जो अन्नया को बेवक़ूफ़ बनाता है । शादी के बाद कवि कविता लिखना छोड़ देता है और चूँकि कविता नहीं होती है तो अन्नया पेंटिंग बनाना छोड़ देती है । उनके जीवन मे नीरसता आ जाती है ।

इस फ़िल्म को देखकर लगा कि ये ज़रूरी नहीं है कि फ़ेस्टिवल के लिये बिलकुल दुखी सी फ़िल्म ही बनाई जाये । इस फ़िल्म मे कुछ बातें अच्छी हो सकती थी ऐसा हमारा मानना है क्योंकि ये आजकल के समय की फ़िल्म है । जैसे कवि चूँकि बिस्तर पर ही रहते है और चल फिर नहीं सकते है और क्योंकि अन्नया पढ़ी- लिखी है तो पति की देखभाल के लिये किसी पुरूष नर्स को रख सकती थी क्योंकि उसके कॉलेज जाने के बाद कवि को देखने के लिये कोई नहीं होता था । फ़िल्म में बजाय अवसाद के ऐसी समस्या के हल की तरफ़ भी ध्यान दिया जा सकता था । जैसे स्टीफ़न हॉकिंस व्हील चेयर का इस्तेमाल करके इतने बड़े बड़े काम कर गये है ।




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