Posts

Showing posts from April, 2018

पुरानी कविता का मज़ा

अभी दो-तीन दिन पहले हमारी एक दोस्त ने कुछ पुरानी कवितायें जिन्हें हम लोगों ने स्कूल में पढ़ा था उन्हें वहाटसऐप पर शेयर किया था जिसे पढ़कर हम वापस स्कूल के समय में चले गये । हो सकता है कुछ लोगों ने ये कवितायें पढ़ी होगी और कुछ ने नहीं भी पढ़ी होगी। क्योंकि समय समय पर कविता के रूप भी बदलते रहे है। हमें पक्का यक़ीन है कि आप सबको सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा ,मैथिलीशरण गुप्त, मलिक मोहम्मद जायसी ,सूर्य कान्त निराला रामधारी सिंह दिनकर जैसे अनेक कवि ज़रूर याद होगे । समय के साथ स्कूल का सिलेबस , पाठ्यक्रम सब बदल जाता है। अब जो हिन्दी की कवितायें हमने पढ़ी थी जैसे --उठो लाल अब आँखें खोलो जिसमें माँ का प्यार और दुलार झलकता है तो वही चाँद का अपनी माँ से ज़िद करना कि सिलवा दो माँ मुझे ऊन का एक झिंगोला । चाहे जितनी बार भी पढ़े हर बार एक अजीब सा रोमांच और ख़ुशी होती है इन कविताओं को पढ़कर । अब जो कवितायें हमने पढ़ी थी वो हमारे बेटों ने नहीं पढ़ी । यहाँ तक की जो बड़े बेटे ने पढ़ी थी ,छोटे के समय उनमें कुछ बदलाव आ गया था । दोनों बेटों के समय में ये कवितायें नहीं थी। उनके समय

रविवार कहो या इतवार कहो या कहो संडे

मतलब तो एक ही है छुट्टी ,आराम और फनडे । :) पहले तो हफ़्ते में छ दिन का स्कूल और ऑफ़िस हुआ करता था। और रविवार का इन्तज़ार बड़ी बेसब्री से होता था क्योंकि रविवार को आराम से सोकर उठो और मंद मंद गति से सब काम करो। ना स्कूल जाने की जल्दी और ना ही सुबह सुबह उठने की जल्दी । हांलाकि मममी कभी कभी टोका करती थी पर उनकी बात उस एक छुट्टी के दिन अनसुनी कर देते थे ये कहकर कि सिर्फ़ एक दिन ही तो मिलता है । 🙂 हमने तो ख़ूब रविवार का मज़ा लिया है पर जब हमारे बेटे स्कूल जाने लगे थे तो संडे फनडे कम स्टडी डे हो गया था क्योंकि बेटों के हर सोमवार किसी ना किसी विषय का टेस्ट होता था । और चूँकि हर टेस्ट के नम्बर जोड़े जाते थे तो ज़ाहिर है कि संडे का वो मज़ा नहीं रह गया था । ख़ैर जब राजीव गांधी सत्ता में आये थे तो उन्होंने दिलली में हफ़्ते के पाँच दिन काम का चलन शुरू किया था जिससे शनिवार और रविवार सकूल और ऑफ़िस बंद होने लगे थे । इस तरह दो दिन की छुट्टी मिलने से एक बार फिर से छुट्टी का मज़ा आने लगा था क्योंकि शनिवार का दिन देर से सोकर उठने और आराम फ़रमाने में जाता था। अब तो सब बड़े हो गये है और अब टेस्ट क

गूगल बाबा की जय

अब गूगल बाबा को कौन नहीं जानता है। जब से आये है तब से छा गये है । कुछ भी जानना हो या कुछ भी ढूँढना हो बस गूगल पर सवाल लिखो या पूछो और पलो या यूँ कहे सेकेण्डस में जवाब मिल जाता है। पहले ज्ञानवर्धक जानकारी के लिये लोग ब्रिटानिका इनसाकलोपीडिया मँगाते और पढ़ते थे पूरी २४ बड़ी बड़ी किताबें (वॉलयूम ) होती थी और हर एक किताब में उस विषय से सम्बन्धित बातें बाक़ायदा फ़ोटो के साथ पूरे विस्तार से लिखी होती थी ।और जिसे पढ़ने और देखने में बहुत मज़ा आता था ।पर अब विकीपीडिया है जहाँ से हर तरह की जानकारी हमें मिल जाती है। और इसमें जानकारी को लोग अपडेट भी करते रहते है। दिल्ली में तो आइशर मैप नाम की एक किताब होती थी जिसमे दिल्ली की हर सड़क ,स्कूल ,कॉलोनी ,अस्पताल और कॉलेज का नक़्शा होता था और अगर कोई नई जगह जा रहे होते थे तो उस किताब को साथ लेकर जाते थे और उसमें दिखाये गये नक़्शे के हिसाब से जाते थे । पर अब फोन के गूगल मैप में जगह का नाम डालने पर गूगल ना केवल वहां का रास्ता बल्कि वहां पहुँचने में कितना समय लगेगा या कैसा ट्रैफ़िक है और कितने कि.मी. की दूरी है ये भी बता देता है। 🙂 अब गूगल के आने क

फ़िल्मी गीतो की किताब

हिन्दी फ़िल्मे देखना अगर यूँ कहे कि बचपन से ही हमें इसका शौक़ रहा है तो ग़लत नहीं होगा क्योंकि कभी भी मममी पापा ने फ़िल्म देखने पर कोई रोक टोक नहीं की। और अकसर हम लोग मममी पापा के साथ ही फ़िल्म देखने जाते थे। वैसे हमारे बाबा भी फ़िल्मों के बहुत शौक़ीन थे और सपनों का सौदागर फ़िल्म देखने के बाद तो वो हेमा मालिनी के बहुत बड़े फ़ैन बन गये थे और हेमा मालिनी की कोई भी पिकचर देखे बिना नहीं रहते थे । 🙂 वैसे उस समय पिकचर देखना मनोरंजन का एकमात्र साधन होता था और शायद इसीलिये लोग सपरिवार फ़िल्म देखने जाते थे। शादी के पहले भी और शादी के बाद भी फ़िल्मे देखने का सिलसिला जारी रहा और अभी तक ये शौक़ बरक़रार है। पहले तो एक स्क्रीन वाले सिनेमा हॉल होते थे और वहाँ पिकचर देख कर जब निकलते थे तो हॉल के बाहर फ़िल्मी गीतों की किताब बिक रही होती थी जिसमें कम से कम दो तीन फ़िल्मों के पूरे पूरे गाने ,गायक का नाम और गीतकार और संगीतकार का नाम भी लिखा होता था । बिना ये किताब ख़रीदे पिकचर देखना पूरा नहीं माना जाता था । शाम को छत पर बैठकर इस गाने की किताब का पूरा इस्तेमाल होता था अरे मतलब गाने गाये जाते थे । व

हरी और बोलने वाली छिपकली

हाँ कुछ अजीब सा विषय है लिखने के लिए । चूँकि आजकल गरमियों के दिन है तो छिपकलियॉ भी निकलने लगी है। हमें तो इनसे बहुत डर लगता है हालाँकि हमारे पतिदेव का कहना है कि उससे डरने की क्या बात है क्योंकि उसका इतना छोटा सा मुँह है वो भला क्या काटेगी। पर हम पर ऐसी दलील का कोई असर नहीं होता है। जहाँ गरमी आई नहीं कि ना जाने कहां से ये अवतरित हो जाती है। अंडमान में पहली बार हमने इसे बोलते सुना । एक अजीब तरह की किट किट करती सी आवाज़ । पहले तो हम समझ ही नहीं पाये कि ये आवाज़ किस जीव जन्तु की है। पर बाद में पता चला कि ये तो छिपकली आवाज़ करती है। अब दिल्ली में तो हमने कभी नहीं सुना ना देखा था। और वहाँ पर ही पहली बार हमने हरे रंग की छिपकली भी देखी थी। अरे देखी क्या हमारे कुर्ते पर बैठी थी। अंडमान में एक द्वीप है हटबे नाम का ,हम लोग वहाँ घूमने गये थे और बालकनी में बैठकर चाय पी रहे थे। हमने हलके हरे रंग का लखनवी सूट पहना था और दुपटटा आगे की तरफ़ रकखा था। और तभी चाय पीते पीते लगा कि दुपट्टे पर कुछ चल रहा है । अब चूँकि उस दिन हमने हरा सूट पहना था तो पहले पहल तो हम समझे कि कोई कीड़ा होगा । पर जब समझे तो

मोबाइल फोन के फ़ायदे और नुक़सान

अरे अरे हम जानते है कि आप सोच रहे है कि मोबाइल फोन के फ़ायदे भी कोई बताने वाली बात है वो तो हम सब जानते है । और ये सच भी है कि मोबाइल ने हम सबकी ज़िन्दगी बहुत आसान कर दी है। अब तो मोबाइल पर ही हम सबकी दुनिया टिक सी गई है। पहले तो सिर्फ़ इसे एक चलते फिरते फोन की तरह इस्तेमाल किया जाता था। और घर से दूर रहने वाले से कभी भी किसी भी समय बात की जा सकती थी। हालाँकि नब्बे के दशक में मोबाइल पर कॉल करना बहुत महँगा होता था क्योंकि इसमे कॉल करने वाले और कॉल रिसीव करने वाले को भी पैसा देना पड़ता था। और मोबाइल रखना बड़ी शान और स्टेटस की बात मानी जाती थी । पर धीरे धीरे समय बदला और मोबाइल फोन लोगों की ज़रूरत बनता गया। और कॉल रेट भी कम होते गये । पहले जहाँ सिर्फ़ एयरटेल होता था वहाँ धीरे धीरे डॉल्फ़िन ( एम टी एन एल का ) वोडाफ़ोन ,आइडिया,जैसे नेटवर्क होने लगे। पहले के मुक़ाबले अब हर किसी के पास मोबाइल होने लगा। हर कोई मोबाइल पर बात करते हुये चलता दिखता है। अब तो मोबाइल फोन की इतनी आदत सी हो गई है कि अगर थोड़ी देर फोन ना देखो तो लगता कि हम कही पीछे तो नहीं रह गये। क्योंकि हर थोड़ी देर में पिंग की आव

बदलते हम और हमारी फ़ोटो

दो- तीन दिन पहले हमारे पतिदेव ने हमारी एक कुछ साल पुरानी फ़ोटो को फ़ेसबुक पर शेयर किया था और जिस पर हमारी एक दोस्त ने कमेंट किया कि हम पतले और प्यारे लग रहे है । जिसे पढ़कर हमने भी लिखा कि पर हम तब भी मोटे ही कहे जाते थे। 😀 जब भी हम पुरानी फ़ोटो देखते है ,भले ही वो एक या दो साल पुरानी हो या चाहे चार साल पुरानी हो तो ऐसा लगता है कि अरे तब तो हम कुछ पतले थे पर उस समय भी हम मोटे वाली कैटेगरी में ही आते थे। खाते पीते घर की । 😃 वैसे फ़ोटो बहुत ही प्यारी होती है। हर फ़ोटो के साथ कितनी यादें जुड़ी होती है। पहले के समय में ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटो होती थी। क्लिक कैमरा होता था जिसमें रील भरी जाती थी और फ़ोटो खींचने के बाद फिर फ़ोटोग्राफ़र से उसे बनवाया जाता था। हम लोग जहाँ कही भी घूमने जाते थे कैमरा साथ होता था। चाहे नैनीताल हो या चाहे आगरा या बनारस या फ़ैज़ाबाद या कही और। गरमी की छुट्टियों में जब सब कज़िन लोग इकट्ठा होते थे तो हम सब मममी की साड़ी पहनकर घर के आँगन में फ़ोटो खिंचवाते थे। पहले पापा और भइया फ़ोटो खींचा करते थे । बाद में धीरे धीरे सबने फ़ोटो खींचनी शुरू की। हमसे बड़ी दीदी तो

किटटी पार्टी

किटटी पार्टी का मतलब मौज मस्ती ,हँसना बोलना ,खाना और खेलना । और उस दो- तीन घंटे के दौरान सभी समस्याओं और चिन्ताओं को भूलकर बस जी भर कर हँसना ,खाना और खेलना । आजकल तो किटटी पार्टी का बहुत चलन हो गया है। और ये पार्टी जो होम मेकर महिलायें होती है उनके लिए आपस में मिलने का एक ज़रिया भी होती है। क्योंकि वरना वो पति ,बच्चों और घर मे ही व्यस्त रहती है। हालाँकि पहले मेरा मतलब है कि सत्तर के दशक में किटटी पार्टी को लोग बहुत ज़्यादा पसंद नहीं करते थे और बहुत ग़लत धारणा थी इसके बारे में, क्योंकि तब शायद यह माना जाता था कि घर की ग्रहणी घर से बाहर जाकर कहीं घर परिवार को अनदेखा ना करने लगे और ये भी कि ऐसी पार्टी में सिर्फ़ परपंच होता है मतलब लोगों के बारे में उलटी सीधी बातें होती है। हमें याद है हम लोगों के पडोस में चंडीगढ़ से एक कपूर परिवार रहने आया था और कुछ दिन बाद कपूर आंटी ने मममी को अपने घर किटटी पार्टी में बुलाया । और कुछ और जो आंटी की जानने वाली थी उन्हें बुलाया था। और उस समय हम सब के लिए ये बिलकुल नयी बात थी और उन्होंने समय दोपहर बारह बजे का दिया था क्योंकि इस समय तक घर के काम निपट जात

चिट्ठी आई है

कुछ याद आया , जी हॉ बिलकुल सही समझे है आप । 🙂 दरअसल कल कुछ सफ़ाई करते हुए एक चिट्ठी हमें मिली तो सोचा क्यूँ न आज चिट्ठी की ही बात करी जाये। समय की तेज़ रफ़्तार और इलेक्ट्रानिक की बढ़ती सुविधाओं की वजह से चिट्ठी पत्री का सिलसिला कही खो सा गया है। हो सकता है आप को लगे कि भला जब इतना सुविधा जनक वहाटसऐप है तो फिर चिट्ठी की क्या बात करना । सवाल ये है कि हम सभी लोग इतने आराम और सुविधा के आदी हो चुके है कि चिट्ठी के महत्व को भूल गये है। बस फटाफट मोबाइल पर लिखा और भेज दिया और जिसे भेजा उसने तुरन्त जवाब भी दे दिया ,कभी कुछ लिख कर तो कभी कोई ईमोजी बनाकर । ☺️ ये अलग बात है कि अब किसी को भी किसी की भी चिट्ठी का इन्तज़ार नहीं रहता है पर हाँ एक समय था जब हर कोई चिट्ठी का इन्तज़ार करता था। हम तो ख़ूब करते थे । अनतरदेशी पत्र ,पोस्टकार्ड ,और लिफ़ाफ़े में चिट्ठियाँ भेजी जाती थी ,और विदेश एयरमेल से । पर अब घर बैठे मिनटों में मैसेज किसी को भी भेज देते है। अब कहॉ कोई अनतरदेशी पत्र लाये और चिट्ठी लिखे।पहले विदेश से तो चिट्ठी तक़रीबन दस से पन्द्रह दिन में आती थी पर लोकल मतलब अपने यहाँ दो से तीन दिन

गरमी की छुटटियॉ और काम वाली बाई

गरमी की छुटटियॉ आते ही काम करने वाली बाईयो का जैसे अकाल सा पड़ जाता है। अब इसमें इन बाईयो की भी क्या ग़लती है वो भी तो साल में एक बार ही एक महीने के लिए अपने गाँव जाती है। हाँ पर उनके जाने से हम लोगों को काफ़ी परेशानी हो जाती है। क्योंकि हम लोगों को उनकी आदत सी हो जाती है। अब वैसे तो सारा रूटीन सेट रहता है कि वो सुबह काम पर आ जाती है इससे घर की साफ़ सफ़ाई और सारे काम समय से निपट जाते है । हालाँकि ये जब गॉव जाती है तो अपनी जगह किसी और को लगा जाती है काम करने के लिए पर नये के साथ तालमेल बैठाना बड़ा मुश्किल हो जाता है क्योंकि एक तो उनका अपना काम होता है। और वो उसमें से समय निकाल कर हम लोगों का एक्सट्रा काम करती है । 😊 दूसरा रोज़ रोज़ समझाना पड़ता है कि ऐसे करो तो वैसे करो काम । और टाइम का तो कोई मतलब ही नहीं रहता है । नौ बजे का टाइम बोलो तो दस बजे आती है और कई बार इन्तज़ार करते रहो तो ग्यारह बजे आती है और कुछ कहने पर हँसकर अपने काम का हवाला देती है और हम चाह कर भी कुछ नहीं कह पाते है क्योंकि अगर ये भी चली गई तो फिर क्या होगा। ☺️ और रोज़ रोज़ नई काम वाली भी नहीं मिलती है क्योंकि अगर

द शेप ऑफ़ वाटर

नाम तो सुना ही होगा । 😊अब नाम से ही काफ़ी अलग सा शीर्षक लग रहा है ना ,और ये अलग है भी क्योंकि ये इस साल का ऑस्कर जीतने वाली फिलम का नाम है। कुछ महीनों से इस पिकचर का बड़ा शोर हो रहा था कि बहुत ही कमाल की और लाजवाब फिलम है और इस फ़िल्म को बेसट फिलम के लिए ऑस्कर मिला है और ये तो हम सभी जानते है कि ऑस्कर हॉलीवुड का सबसे बड़ा अवार्ड माना जाता है और इसे एक नहीं चार चार अवार्ड मिले है , जिससे ये पक्का हो गया कि ये फ़िल्म तो लाजवाब होगी। काफ़ी दिन पहले जब दिल्ली में ये फ़िल्म सिनेमा हॉल में लगी तो एक दिन हम भी पहुँच गये देखने । फ़िल्म शुरू हुई और पहले सीन को देखकर लगा वाह क्या पिकचर है पर उसके पॉच दस मिनट बाद लगा कि जैसे कोई हिन्दी फिलम देख रहे हो । इसका मेन कैरेकटर देख कर इंग्लिश फिलम ई. टी या यूँ कहे कि राकेश रोशन की फिलम कोई मिल गया याद आ गई । क्योंकि इसमें कुछ भी ससपेंस या उत्सुकता बढ़ाने वाली कोई बात थी ही नहीं ,सब कुछ का पता चल रहा था कि आगे क्या होने वाला है। ख़ैर अब गये थे देखने तो पूरी पिकचर देखी पर फिर आख़िरी सीन देखकर लगा अरे ऐसा तो बहुत सारी हिन्दी फ़िल्मों में होता है प

फ़ेसबुक और वहाटसऐप का कमाल

कभी कभी क्या अकसर ही हम सब ज़िन्दगी की भागदौड़ और घर परिवार में इतने व्यस्त हो जाते है कि बहुत कुछ पीछे छूट जाता है और समय आगे निकल जाता है। और अपने दोस्तों ,रिश्तेदारों से सम्पर्क ना के बराबर हो जाता है। हमने तो कभी सोचा भी नहीं था कि हम अपने स्कूल की दोस्तों से दुबारा कभी मिल या जुड़ पायेंगे क्योंकि शादी के बाद सभी लोग अलग अलग शहर में तो कुछ उसी शहर में रहते हुए भी नहीं मिल पाते थे क्योंकि तब मोबाइल फ़ोन ,फ़ेसबुक ,वहाटसऐप ,ट्विटर वग़ैरह नहीं थे (ऑरकुट जैसी साइट थी ) पर हाँ साधारण फ़ोन की सुविधा ज़रूर होती थी। पर एस. टी .डी. या ट्रंक कॉल मिलाना इतना आसान नहीं होता था। और इसी वजह से धीरे धीरे सबसे दूर होते जाते थे। बेटों के कहने पर बहुत पहले ही हमने भी अपना फ़ेसबुक अकाउंट बना लिया था पर हमें अपने स्कूल या यूनिवर्सिटी का कोई भी ढूँढे से भी नहीं मिला था । क्योंकि ज़्यादातर लोगों के सरनेम बदल चुके थे। ख़ैर २०१० की बात है उस समय हम लोग अरूनाचल प्रदेश में थे कि एक दिन हमारी स्कूल की एक दोस्त जो नेपाल में रहती थी ( आजकल अमेरिका में है ) उसने हमें फ़ोन किया ( मोबाइल का ज़माना आ चुका

गरमी की छुट्टियाँ और ननिहाल

ननिहाल शब्द में ही कुछ खास एहसास है जिसमें प्यार दुलार झलकता है। आजकल तो गरमी की छुट्टियाँ आने के पहले ही लोग अपने प्रोग्राम बना लिया करते है ,कुछ लोग कहीं बाहर अपने देश में तो कुछ विदेश घूमने जाते है तो कुछ लोग अपने घर पर ही रह कर छुट्टियों का मज़ा लेते है । तो कुछ लोग बच्चों को किसी खेल में या फिर स्वीमिंग सिखाने के लिए ले जाते है । आजकल तो स्कूल से बच्चों को छुट्टी में भी पढ़ने के लिए होमवर्क दिया जाता है। पर आज भी ननिहाल या नानी के घर जाना सुनकर बच्चे अपने आप ही जोश से भर जाते है। वैसे आजकल तो कम्प्यूटर और मोबाइल फ़ोन और टी .वी. का ज़माना है और बच्चे घर के बाहर खेलने से ज़्यादा घर में ही खेलना पसंद करते है। वैसे अब धीरे धीरे आज की पीढ़ी भी बच्चों को बाहर खेलने के लिए भेजने की कोशिश करने लगी है । पर जब हम लोग बच्चे थे उस ज़माने में ना तो मोबाइल फ़ोन था और ना ही कम्प्यूटर और ना ही टी.वी होता था बस रेडियो होता था जिसपर ज़्यादातर या तो विविध भारती या सिलोन सुना जाता था । एक समय में छुट्टी का मतलब बस छुट्टी ही होता था स्कूल से कोई होमवर्क नहीं मिलता था । नानी के यहाँ सब मौसी,

आख़िर क्यूँ ?

मन बड़ा विचलित है ये सोचकर कि आख़िर हम लोग कहाँ जा रहे है। क्यूँ हम लोग इतने निर्मम और क्रूर होते जा रहे है। आठ साल की बच्ची के साथ जैसी निर्ममता और बर्बरता की गई है जिसे पढ़ और सुनकर ही दिल दहल जाता है । क्या उनका मन एक बार भी नहीं पसीजा । ऐसे हैवानो को रोकने लिए बिना विलम्ब सजा देने का प्रावधान होना चाहिए क्यूँ कि हमारे देश में न्याय और इन्साफ़ मिलने में बहुत अधिक समय लग जाता है और इस तरह के हैवानो के मन में क़ानून का कोई डर या ख़ौफ़ नहीं होता है । जब तक जल्द और कड़ी सज़ा का क़ानून नहीं होगा तब तक इस तरह की मानसिकता रखने वाले लोगों को डर नही होगा । बलात्कार की सज़ा एक ही होनी चाहिये फिर वो चाहे बारह साल से कम की बच्ची का हुआ हो या कोई भी उम्र की लड़की या महिला का हो । क्या लड़की होना गुनाह है । आख़िर क्यूँ ?

पोस्ट अॉफिस और डिजिटल इंडिया

आम तौर पर हमें पोस्ट अॉफिस जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती है क्योंकि आज कल हर काम ऑनलाइन हो जाते है। पर पोस्ट अॉफिस में अभी सब कुछ ऑनलाइन नहीं हुआ है। अभी हाल में हमें कुछ काम से द्वारका दिलली के पोस्ट अॉफिस जाने का मौक़ा मिला । और हमारा अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। आजकल वहाँ पर एक ही लाइन होती है उसी में सीनियर सिटिज़न ,महिलाये और एजेन्ट खड़े रहते है। वैसे पहले शायद एजेन्ट लोग दो बजे के बाद आते थे और सीनियर सिटिज़न की लाइन अलग होती थी। वैसे वहाँ पर दो विनडो पी.पी.एफ और बाक़ी खातों के लिए और दो स्पीड पोस्ट के लिए है पर सिर्फ़ एक ही विनडो पर काम होता है । इसका कारण कुछ समझ नहीं आया। सिवाय इसके कि जनता परेशान हो। अब आज के समय में एक आराम है कि हम किसी भी पोस्ट अॉफिस से अपने पी.पी.एफ खाते में पैसे डिपॉजिट करा सकते है । वैसे हमारा अकाउंट दूसरे पोस्ट अॉफिस में है ।वहाँ हमने चेक जमा किया था पर कुछ नम्बर लिखना छूट गया था इसलिए दुबारा चेक जमा कराना था । पर वहाँ पहुँचकर पता चला कि चेक नहीं सिर्फ़ कैश जमा हो सकता है। और चूँकि आजकल डिजिटल इंडिया का ज़ोर है और ये माना जाता है कि अब पहले से हालात