रेलगाड़ी का सफ़र

रेलगाड़ी के सफ़र का अलग ही मजा होता है । पहले जब हम लोग लखनऊ ,कानपुर ,इलाहाबाद और बनारस रेलगाड़ी से जाते थे तो उसका वो काला इंजन भक- भक करके धुआँ उड़ाता जब चलता था तो कई बार खिड़की से बाहर झाँकने पर धुयें के कण आँखों में भी पड़ जाते थे । पर फिर भी बाहर झाँकने से बाज़ नहीं आते थे 😊 बाद में डीज़ल और बिजली वाले इंजन आने के बाद वो कोयले से चलने वाले काले इंजन का ज़माना ही समाप्त हो गया ।

हालाँकि पहले इतनी जनसंख्या नहीं थी पर तब भी ट्रेन में हमेशा भीड़ ही होती थी । उस समय तो रेल के डिब्बों की खिड़कियों में ग्रिल भी नहीं होती थी ,एकदम खुली खिड़की जिसमें से लोग बच्चों को वहीं से सीट रोकने के लिये अन्दर कर देते थे क्योंकि छोटी दूरी के लिये तब कोई रिज़र्वेशन नहीं होता था । और दरवाज़े पर ज़बरदस्त धक्का - मुक्की होती थी । 😁

सत्तर के दशक तक तो ज़्यादातर ट्रेनों में थर्ड क्लास ,सेकेंड क्लास और फ़र्स्ट क्लास ही होता था और बाद में राजधानी में ही ए.सी के डिब्बे और चेयर कार होती थी । पहले सेकेंड और फ़र्स्ट क्लास में खूब यात्रा की है और बड़ा मजा़ भी आता था । स्टेशन पर पहुँचते ही सबसे पहले बुक स्टाल पर जाते और कोई किताब खरीदी जाती क्योंकि किताब या नॉवल ख़रीदना तो ज़रूरी सा ही होता था ।

आजकल की तरह पहले रेलगाड़ी में खान-पान की इतनी सुविधा नहीं होती थी इसलिये ज़्यादातर लोग अपना होलडाल जिसमें बिछाने के लिये चादर,तकिया और ओढ़ने के लिये भी चादर और जाड़े के दिनों में हल्की रज़ाई या कम्बल होता था साथ में खाना ,पानी की सुराही (जो तब स्टेशनों पर भी बिकती थी ) सब लेकर चलते थे । ट्रेन चलते ही पूड़ी आलू की सब्ज़ी का डिब्बा खुलता ,और खूब मज़े ले लेकर पूड़ी खाई जाती । ट्रेन में खाने का मजा़ ही कुछ और होता । कई बार किसी की सुराही लुढ़क जाती और आस- पास सब तरफ़ पानी भी फैल जाता था ।

फ़र्स्ट क्लास में सफ़र करना बिलकुल ऐसा मानो घर का एक कमरा । जिसमें सामान वग़ैरा आराम से फैला कर रखो क्योंकि उसमें रिज़र्वेशन होता था । लम्बी दूरी के लिये फ़र्स्ट क्लास बड़ा आरामदायक होता था । और तब फ़र्स्ट क्लास में ही शायद चादर तकिया देते थे । गंतव्य स्टेशन पर पहुँचकर क़ुली क़ुली की आवाज़ लगाना और फिर सामान को लेकर पैसे का मोलभाव करना । और तेजीसे चलते क़ुली के पीछे किसी एक सदस्य का चलना ।

ऐसा नहीं था कि खाना -पीना साथ है तो स्टेशन पर कुछ नहीं ख़रीदेंगे । यात्रा के दौरान रास्ते में स्टेशनों पर बिकने वाली पकौड़ी ,समोसा , चाय ,मूँगफली जैसी खाने की चीज़ें ख़रीदें बिना नहीं रहते थे।

फिर आया ए.सी. डिब्बों का ज़माना । सहूलियत और आराम से भरपूर । अब ना होलडाल की ज़रूरत नाहीं सुराही की । क्योंकि रात की यात्रा में चादर तकिया मिलता और शताब्दी और राजधानी जैसी ट्रेनों में खाना -पीना भी मिलता । 😛

हालाँकि ऐसा नहीं है कि अब रेल यात्रा बिलकुल नहीं करते है पर अब थोड़ा कम ही करते है । 😀
















Comments

Popular posts from this blog

क्या चमगादड़ सिर के बाल नोच सकता है ?

जीवन का कोई मूल्य नहीं

सूर्य ग्रहण तब और आज ( अनलॉक २.० ) चौदहवाँ दिन