जब चोट लगती है तभी साइकिल चलानी आती है.
बात उन दिनों की है जब हम सातवीं क्लास मे पढ़ते थे ।उन दिनों इलाहबाद मे तो यूं भी साइकिल सेस्कूल जाने
का बड़ा रिवाज था ।(वैसे तो आज भी बच्चे साइकिल से स्कूल से जाते है ) लड़का हो या लड़की ज्यादातर बच्चे साइकिल से ही स्कूल जाते थे। हमारे घर मे भी दीदी लोग साइकिल से स्कूल जाती थी पर चूँकि हम सबसे छोटे थे इसलिए हमने साइकिल चलाना जरा देर मे सीखा।
अब सीखने के लिए साइकिल तो हमे शाम को ही मिलती थे दीदी लोगों के स्कूल से आने के बाद।शुरू मे कुछ दिन तो भइया और हमारी दीदी ने हमे साइकिल चलाना सिखाया की कैसे पैडल पर पैर रखकर कैंची चलते है और किस तरह सीट पर बैठते है और साइकिल का हैंडल हमेशा सीधा रखना चाहिए और सबसे ख़ास हिदायत कि कभी भी दोनों ब्रेक एक् साथ मत लगाना । शुरू मे दो-तीन दिन जब हम साइकिल चलाते तो भइया या दीदी पीछे से कैरियर पकड़े रहते और हम पीछे देखते रहते की उन लोगों ने साइकिल पकड़ रखी है।और हमे चलाते हुए ये विश्वास रहता की अगर हमारी साइकिल गिरेगी तो भैया या दीदी हमे गिरने से बचा लेंगे।दीदी हमेशा कहती कि सामने देखा करो पीछे नही। खैर पाँच-छः दिन बाद हम जब साइकिल चला रहे थे तो हमे पता ही नही चला की दीदी ने साइकिल का कैरियर कब छोड़ दिया और हमने बड़े आराम से अपने मोहल्ले मे साइकिल चलाई। और उस दिन हमे यकीन हो गया की अब तो हमे साइकिल चलानी आ गई है। और अब हम बिना किसी की मदद के चला सकते है।
घर मे सभी ने ये हिदायत दी कि साइकिल चलाते हुए कभी भी भीड़-भाड़ या गाय-बकरी देख कर घबडाना नही चाहिए। और ये भी कहा की साइकिल चलाते हुए हमेशा सामने देखना चाहिए पैडल या पीछे की ओर नही।(क्यूंकि जब साइकिल सीखते है तो ध्यान पैडल पर ज्यादा रहता है. )करीब एक हफ्ते या दस दिन तक हमारी साइकिल क्लास चली। उसके बाद जब हमे जरा विश्वास हो गया की अब तो हम साइकिल चलने मे निपुण हो गए है तो एक दिन शाम को हम बिना किसी को बताये चुपचाप साइकिल लेकर निकल गए पर अभी साइकिल चलाना शुरू ही किया था की अचानक हम अपना संतुलन खो बैठे और साइकिल समेत नीचे गिर पड़े। पहले तो झट से उठे और चारों ओर देखा की कोई देख तो नही रहा है। तभी हमारी नजर घुटने और कोहनी पर गई और बस हमारा रोना शुरू क्यूंकि हमारे घुटने और कोहनी से खून निकल रहा था।
खैर साइकिल को लेकर आंसू बहाते हुए हम घर आए । घर मे सबने हमे रोते हुए देख कर कहा कि ममता अब तुम पूरी तरह से साइकिल चलाना सीख गई हो। क्यूंकि जब तक चोट नही लगती है तब तक साइकिल चलानी नही आती है।और वाकई उसके बाद हमने बाकायदा साइकिल चलाना शुरू किया और फ़िर हमारे लिए हीरो साइकिल खरीदी गई और हम भी बड़ी शान से बारहवीं क्लास तक साइकिल से ही स्कूल जाते रहे।
साइकिल क्या जीवन मे भी जब चोट लगती है तब हम बहुत कुछ सीखते है।
कुछ ज्यादा ही दार्शनिक बात हो गई। :)
का बड़ा रिवाज था ।(वैसे तो आज भी बच्चे साइकिल से स्कूल से जाते है ) लड़का हो या लड़की ज्यादातर बच्चे साइकिल से ही स्कूल जाते थे। हमारे घर मे भी दीदी लोग साइकिल से स्कूल जाती थी पर चूँकि हम सबसे छोटे थे इसलिए हमने साइकिल चलाना जरा देर मे सीखा।
अब सीखने के लिए साइकिल तो हमे शाम को ही मिलती थे दीदी लोगों के स्कूल से आने के बाद।शुरू मे कुछ दिन तो भइया और हमारी दीदी ने हमे साइकिल चलाना सिखाया की कैसे पैडल पर पैर रखकर कैंची चलते है और किस तरह सीट पर बैठते है और साइकिल का हैंडल हमेशा सीधा रखना चाहिए और सबसे ख़ास हिदायत कि कभी भी दोनों ब्रेक एक् साथ मत लगाना । शुरू मे दो-तीन दिन जब हम साइकिल चलाते तो भइया या दीदी पीछे से कैरियर पकड़े रहते और हम पीछे देखते रहते की उन लोगों ने साइकिल पकड़ रखी है।और हमे चलाते हुए ये विश्वास रहता की अगर हमारी साइकिल गिरेगी तो भैया या दीदी हमे गिरने से बचा लेंगे।दीदी हमेशा कहती कि सामने देखा करो पीछे नही। खैर पाँच-छः दिन बाद हम जब साइकिल चला रहे थे तो हमे पता ही नही चला की दीदी ने साइकिल का कैरियर कब छोड़ दिया और हमने बड़े आराम से अपने मोहल्ले मे साइकिल चलाई। और उस दिन हमे यकीन हो गया की अब तो हमे साइकिल चलानी आ गई है। और अब हम बिना किसी की मदद के चला सकते है।
घर मे सभी ने ये हिदायत दी कि साइकिल चलाते हुए कभी भी भीड़-भाड़ या गाय-बकरी देख कर घबडाना नही चाहिए। और ये भी कहा की साइकिल चलाते हुए हमेशा सामने देखना चाहिए पैडल या पीछे की ओर नही।(क्यूंकि जब साइकिल सीखते है तो ध्यान पैडल पर ज्यादा रहता है. )करीब एक हफ्ते या दस दिन तक हमारी साइकिल क्लास चली। उसके बाद जब हमे जरा विश्वास हो गया की अब तो हम साइकिल चलने मे निपुण हो गए है तो एक दिन शाम को हम बिना किसी को बताये चुपचाप साइकिल लेकर निकल गए पर अभी साइकिल चलाना शुरू ही किया था की अचानक हम अपना संतुलन खो बैठे और साइकिल समेत नीचे गिर पड़े। पहले तो झट से उठे और चारों ओर देखा की कोई देख तो नही रहा है। तभी हमारी नजर घुटने और कोहनी पर गई और बस हमारा रोना शुरू क्यूंकि हमारे घुटने और कोहनी से खून निकल रहा था।
खैर साइकिल को लेकर आंसू बहाते हुए हम घर आए । घर मे सबने हमे रोते हुए देख कर कहा कि ममता अब तुम पूरी तरह से साइकिल चलाना सीख गई हो। क्यूंकि जब तक चोट नही लगती है तब तक साइकिल चलानी नही आती है।और वाकई उसके बाद हमने बाकायदा साइकिल चलाना शुरू किया और फ़िर हमारे लिए हीरो साइकिल खरीदी गई और हम भी बड़ी शान से बारहवीं क्लास तक साइकिल से ही स्कूल जाते रहे।
साइकिल क्या जीवन मे भी जब चोट लगती है तब हम बहुत कुछ सीखते है।
कुछ ज्यादा ही दार्शनिक बात हो गई। :)
Comments
ख़ुद भी गिरा और साथ मे छठ पूजा करने के लिए जाती हुई एक वृद्ध महिला को भी सायकिल से टक्कर देकर गिरा दिया. और फ़िर समजसेवाकों द्वारा जो पिटाई हुई की आज तक सायकिल को हाथ नहीं लगाया.
आपको तो याद ही होगा मुंशी प्रेमचंद की साइकिल की सवारी । कितनी हील हुज्जत के बाद भी बेचारे साइकिल चलाना नहीं सीख पाए ।
और हाँ हर सीखने वाले को कुछ भी सीखने के लिए मददगार की जरुरत पड़ती है।
हमने ना केवल साइकिल चलाना सीखा बल्कि स्कूटर और कार भी चलाना सीखा ।
कार और स्कूटर का किस्सा फ़िर कभी।
यह जिन्दगी सदा सीखने की प्रक्रिया से युक्त रहे!
दीपक भारतदीप