चंदौली का घर
अब तो खैर जमाना हो गया है अपने गाँव के घर मे गए हुए पर जब हमारे बाबा थे तो हम लोग जब छुट्टियों मे बनारस जाते तो चंदौली भी जरुर जाते थे।बनारस और चंदौली का सफर मुश्किल से आधे घंटे का होता था और जैसे ही मुख्य सड़क से कार गाँव की गली मे मुडती थी कि एक पल मे ही सब कुछ बदल जाता था। अब ४० साल पहले तो बनारस शहर और चंदौली जैसी छोटी सी तहसील मे बड़ा फर्क होता था। वैसे सुना है की अब चंदौली बहुत ही बदल गया है। पर देखा नही है।
वहां पर हम लोगों का चार मंजिला घर था । घर का मेन गेट खूब बड़ा सा होता था और जितना बड़ा गेट उतनी ही बड़ी उसकी सांकल (latch) होती थी।और तब तो घंटी का सिस्टम था नही इसी सांकल को जोर-जोर से खट खटाया जाता था। लकड़ी के गेट से जैसे ही अन्दर जाते तो कुआँ होता था उस ज़माने मे वहां नल नही था।कुएँ का पानी ही नहाने और खाना बनाने और पीने के लिए इस्तेमाल होता था।और फ़िर एक बड़ा सा बरामदा और उसके बाद शुरू होते थे कमरे। गर्मी मे कमरों को ठंडा रखने के लिए खस की पट्टी का इस्तेमाल होता था जिसे हर थोडी देर मे पानी से भिगोना पड़ता था। उस समय खूब बड़े-बड़े पंखे होते थे जो कमरे मे ऊपर की तरफ़ लगे होते थे हाथ से खींचने वाले और जिनसे हवा खाने के लिए उस पंखे की लम्बी सी रस्सी को खींचना पड़ता था । बनारस मे हम लोगों के घर मे जो काम करता था उसका नाम मिसरी था और उसका परिवार वहां रहता था और जब भी हम लोग वहां जाते थे तो मिसरी या उसके परिवार का कोई सदस्य उस पंखे को खींचता था। हम सब भाई-बहन भी कभी-कभी खींचते थे पर उसमे बड़ा जोर लगता था।और २-४ बार करके ही थक जाते थे।
गाँव मे बड़े-बड़े पेड़ होते ही थे जिन पर माना ही जाता था कि भूत -प्रेत और चुडैल रहते थे। रात मे जब अंधेरे हो जाता था तो वही मिसरी हम सबको ना जाने कितनी ही भूत की कहानियाँ सुनाया करता था। और हम सब बच्चे खूब डरते थे क्यूंकि तब तो भूत-प्रेत का घर और बाग़-बगीचे मे होना बड़ी ही आम बात होती थी। खैर गाँवों मे तो शायद आज भी भूत-प्रेत को माना जाता है।
हम बच्चों का रसोई मे घुसना सख्त मना था क्यूंकि महराजिन खाना बनती थी और वो बहुत ही छूत-पात करती थी।जहाँ जरा पैर रखा नही की महराजिन की रसोई भ्रष्ट हो जाती थी और तब महराजिन दोबारा रसोई की धुलाई करती थी। तब तो चूल्हे का जमाना था पर क्या स्वादिष्ट और मीठा खाना होता था।पीढे पर बैठ कर खाना खाया जाता था । लाइन से सबके पीढे लगते थे और पीतल (फूल) की थाली मे गरमा गरम खाना खाया जाता था। (इसीलिए तब लोग ज्यादा मोटे नही होते थे अरे भाई पीढे पर बैठ कर कोई ज्यादा खा ही नही सकता है ना ) :)
यकीन ना आए तो आजमा कर देख लीजिये। :)
अब चंदौली की याद हमे कैसे आई तो वो ऐसा है ना की हम गोवा के जो हेरिटेज हाउस देख रहे है उन्हें देखते हुए कई बार लगता है कि अरे ऐसी कुर्सी पर (जिसे आराम दायक कुर्सी कहा जाता था ,जिस के हत्थे लंबे से होते थे )तो हमारे बाबा बैठा करते थे या हम लोगों के घर मे भी ऐसे ही कुआँ होता था। तो हमने सोचा की गोवा के हेरिटेज हाउस के साथ-साथ क्यों ना चंदौली भी देख लिया जाए।
वहां पर हम लोगों का चार मंजिला घर था । घर का मेन गेट खूब बड़ा सा होता था और जितना बड़ा गेट उतनी ही बड़ी उसकी सांकल (latch) होती थी।और तब तो घंटी का सिस्टम था नही इसी सांकल को जोर-जोर से खट खटाया जाता था। लकड़ी के गेट से जैसे ही अन्दर जाते तो कुआँ होता था उस ज़माने मे वहां नल नही था।कुएँ का पानी ही नहाने और खाना बनाने और पीने के लिए इस्तेमाल होता था।और फ़िर एक बड़ा सा बरामदा और उसके बाद शुरू होते थे कमरे। गर्मी मे कमरों को ठंडा रखने के लिए खस की पट्टी का इस्तेमाल होता था जिसे हर थोडी देर मे पानी से भिगोना पड़ता था। उस समय खूब बड़े-बड़े पंखे होते थे जो कमरे मे ऊपर की तरफ़ लगे होते थे हाथ से खींचने वाले और जिनसे हवा खाने के लिए उस पंखे की लम्बी सी रस्सी को खींचना पड़ता था । बनारस मे हम लोगों के घर मे जो काम करता था उसका नाम मिसरी था और उसका परिवार वहां रहता था और जब भी हम लोग वहां जाते थे तो मिसरी या उसके परिवार का कोई सदस्य उस पंखे को खींचता था। हम सब भाई-बहन भी कभी-कभी खींचते थे पर उसमे बड़ा जोर लगता था।और २-४ बार करके ही थक जाते थे।
गाँव मे बड़े-बड़े पेड़ होते ही थे जिन पर माना ही जाता था कि भूत -प्रेत और चुडैल रहते थे। रात मे जब अंधेरे हो जाता था तो वही मिसरी हम सबको ना जाने कितनी ही भूत की कहानियाँ सुनाया करता था। और हम सब बच्चे खूब डरते थे क्यूंकि तब तो भूत-प्रेत का घर और बाग़-बगीचे मे होना बड़ी ही आम बात होती थी। खैर गाँवों मे तो शायद आज भी भूत-प्रेत को माना जाता है।
हम बच्चों का रसोई मे घुसना सख्त मना था क्यूंकि महराजिन खाना बनती थी और वो बहुत ही छूत-पात करती थी।जहाँ जरा पैर रखा नही की महराजिन की रसोई भ्रष्ट हो जाती थी और तब महराजिन दोबारा रसोई की धुलाई करती थी। तब तो चूल्हे का जमाना था पर क्या स्वादिष्ट और मीठा खाना होता था।पीढे पर बैठ कर खाना खाया जाता था । लाइन से सबके पीढे लगते थे और पीतल (फूल) की थाली मे गरमा गरम खाना खाया जाता था। (इसीलिए तब लोग ज्यादा मोटे नही होते थे अरे भाई पीढे पर बैठ कर कोई ज्यादा खा ही नही सकता है ना ) :)
यकीन ना आए तो आजमा कर देख लीजिये। :)
अब चंदौली की याद हमे कैसे आई तो वो ऐसा है ना की हम गोवा के जो हेरिटेज हाउस देख रहे है उन्हें देखते हुए कई बार लगता है कि अरे ऐसी कुर्सी पर (जिसे आराम दायक कुर्सी कहा जाता था ,जिस के हत्थे लंबे से होते थे )तो हमारे बाबा बैठा करते थे या हम लोगों के घर मे भी ऐसे ही कुआँ होता था। तो हमने सोचा की गोवा के हेरिटेज हाउस के साथ-साथ क्यों ना चंदौली भी देख लिया जाए।
Comments
अन्नपूर्णा
हमें भी गाँव का घर बहुत याद आ रहा है. घर से करीब पचास मीटर दूर पर वो बन्सवारी...बगीचा...इस बन्सवारी और बगीचे के भूत-प्रेत, चुडैल वगैरह सभी याद आ रहे हैं......:-)
और ममता जी...आपने चंदौली की बात की तो एक और बात याद आ गई...स्कूल में अध्यापक हम छात्रों से पूछते थे...बनारस जिले में कितनी तहसील है...और हम फट से जवाब देते चकिया, चंदौली, ज्ञानपुर, वाराणसी..:-)
क्यों? क्यों? क्यों?
क्यों लिखा आपने इतना अच्छा चिटठा इतने सुंदर और यादगार वृतांत के साथ?
अभी कोई अनाम महोदय/महोदया आयेंगे और कुछ खरी-खोटी सुना जायेंगे.
चंदौली की इंटरनेट पर चर्चा बहुत अच्छी लगी। हमारा कैमूर जिला उससे सटा हुआ ही है।
घुघूती बासूती
अऊर बचवा कुल ठीकठाक ह...कब अइबा घरे...जल्दी अइहा तोके देखे क बड़ा मन करेला...