क्या आपने कभी चलती ट्रेन या कार से गंगा जी मे सिक्का डाला है .... :)

अरे क्या आपने कभी भी ऐसा नही किया है ? आश्चर्य ! पर हमने तो बचपन मे ऐसा खूब किया है । हम लोग जब भी इलाहाबाद से बनारस ,लखनऊ ,कानपुर वगैरा जाते तो गंगा जी मे खासकर सिक्के जरुर फेंकते थे । क्यों फेंकते थे इसका कुछ ख़ास कारण था या नही पर गंगा जी मे सिक्के डालने का मतलब कुछ-कुछ दान करने से ही रहा होगा ।

कार से ज्यादा ट्रेन से सिक्का फेंकने मे मजा आता था ।चलती कार से सिक्का फेंकने पर कई बार सिक्का सड़क पर ही गिर जाता था इसलिए कभी-कभी जब गंगा जी के पुल से जा रहे होते तो पापा कार को धीमी करवा देते थे जिससे गंगा जी मे सिक्का डाला जा सके । पर इसमे उतना मजा नही आता था । पर फ़िर भी सिक्का डाले बिना नही रहते थे:)


चलती ट्रेन से सिक्के फेंकने मे बड़ा मजा आता थाउसमे हम लोग आपस मे competition भी करते थे कि किसका सिक्का बिना टकराए एक बार मे ही गंगा जी मे चला गया ।जैसे इलाहाबाद के नजदीक पहुँचने पर जब फाफामऊ आने वाला होता था तो हम मम्मी से जल्दी-जल्दी सिक्के लेकर खिड़की पर बैठ जाते (अब उस जमाने मे a.c. मे नही चलते थे :) )और जैसे ही ट्रेन पुल पर से गुजरती होती तो सिक्के को गंगा जी मे डालते । अगर सिक्का पुल से टकराता तो ठन्न्न की आवाज होती और इससे पहले की पुल ख़त्म हो फटाफट दुबारा मम्मी से सिक्का लेकर गंगा जी मे डालते थे ।

उस जमाने मे तो ट्रेन के सेकंड और first क्लास कम्पार्टमेंट मे चलने मे जो मजा आता था वो आजकल के a.c कम्पार्टमेंट मे कहाँ :)


Comments

सचमुच मजा यो आता है !
radiosakhi said…
वाह मजा आ गया ममता । ऐसा लगा कि हम अभी अभी गंगाजी के पुल से गुज़रे हैं । हम भी यही किया करते थे गंगा जी और जमना जी में सिक्‍के फेंकने का मुकाबला करते थे । चार-पांच सिक्‍के फेंकते थे । छोटी छोटी बचकानी मन्‍नतें मांगते थे । ऐसा लगा कि जैसे आपने हमारे मन की बात कह दी है । वाकई ए सी डिब्‍बों में वो मजा कहां । पर हम अब भी नैनी ब्रिज आने से पहले दरवाजे पर आ जाते हैं और सिक्‍के तैयार रखते हैं, पूरी समझदारी के बावजूद हम सिक्‍के फेंकने से खुद को रोक नहीं पाते । कई बार तो गंगाजी में खाली रेत ही मिलती है ।
उफ इलाहाबाद । हाय इलाहाबाद ।
seema gupta said…
" बचपन की यादे तजा हो गयी......ट्रेन के सफर मे यही बात थी जो बहुत अच्छी लगती थी और इन्तजार रहता था कब कोई नदी आए और सिक्का डाला जाए....."

Regards
hamarey bhai sahab..sikkey ke saath jhatkey me apna mobile bhi daan kar chukey hain train ke darvazey se ek duffa ganga ji ko MAMTAA... aapney khuub yaad dilaya..:)
bahut sunder aur mazedaar yaden sanjo rakhi hain apne bahut khoob apki baat se yaad aaya ki jab bhi ham kisi dharmik sathl par jaate hain vahan jo bhi sarover ya talab ho har jagah sikka fenkate hain
prabhat gopal said…
बचपन की यादे तजा हो गयी......
महाराष्ट्र या गुजरात में यात्रा करते हुए मेरे भाई से एक बुजुर्ग महिला ने कहा,'काशी जा रहे हो तो यह सिक्का गंगा में डाल देना ।' भाई ने इन्कार किया। घर में बहस हुई।माँ ने कहा तुम्हें उसके लिए डालना था , खुद के लिए नहीं ।
और हमारे परिचित गोताखोर मित्र गंगा की तलहटी से सिक्के हासिल भी कर लेते ।
हाँ बचपन में करते थे ऐसा हम भी .यादे हैं अब तो बस :)
कुश said…
कहा फेंकते थे जी अड्रेस दो.. हम वहा से ले आते है..
लो सिक्का फेंकते थे.. हम तो वो मजा पत्थर ्फैक कर ले लेते थे..:)

हाँ, मज़ा तो बहुत आता था,
पर बाद में मैंने इसका विरोध करना शुरु कर दिया,
कारण किसी पोस्ट के लिये लम्बित है ।
Alpana Verma said…
haan bachpan mein hamari tayee ji fankwati thin ham se sikeey ganga ji mein!
annapurna said…
मैं कुश जी से सहमत हूँ :):):)
हम तो अब भी कर लेते हैं कानपुर जाते समय....! कुछ चीजों में तर्क आते ही नही...!
बवाल said…
अरे ममता जी डाला है सिक्का कई बार मगर कभी गंगाजी लौटाती नहीं है भाई क्या बतालावें ? हा हा। बहुत उम्दा लिखा आपने।
उस जमाने मे तो ट्रेन के सेकंड और first क्लास कम्पार्टमेंट मे चलने मे जो मजा आता था वो आजकल के a.c कम्पार्टमेंट मे कहाँ । :)

बचपन याद करवा दिया आपने...शुक्रिया...

नीरज
हम्ममम ... लोग फिल्मों के परदों पर भी सिक्के फेंकते हैं और गंगा में भी... दोनों ही बार मुझे समझ नहीं आता था... आस्था और विश्वास के मामले में हम बहुत भोले लोग हैं, शायद.
ओर रेल की पटरी पे सिक्का रखना ???
Abhishek Ojha said…
कभी फेंका तो नहीं पर ऐसा करते लोगों को खूब देखा है !
हां, हां! और रामचरित मानस की पुरानी न उपयोग की जाने वाली प्रतियां भी गंगाजी में समाहित की जाती थीं, पूरे आदर के साथ।
mehek said…
yaadon ke sikke khanake hai aaj:) waah,bahut achha lagta hai bachpan yaad karna.
admin said…
मैंने कई बार लोगों को ऐसा करते देखा है, पर अक्सर सिक्का नदी तक पहुंच नहीं पाया।
मैंने भी कई बार फेका है।
rachana said…
गंगा हमसे बहुत दूर है या फ़िर कहें कि हम गंगा से!:) हमने नर्मदा मे खूब डाले हैं....
अरे ट्रेन में सेकेंड क्लास तो अब भी लगता है जी। सिक्का के बारे में इत्ते लोग कह ही चुके!
मूलत: यहा आस्था का मामला है और है बडा प्रीतिकर. हम लोग गोरखपुर से निकलते हुए अकसर ऐस ही कुछ राप्ती और रोहिन में मरते हैं.
Arvind Mishra said…
फाफामऊ से फेका शायद ही मेरा कोई सिक्का सीधे गंगा तक जा पाया हो ! बस tann की एक आवाज आयी और किस्सा खतम !
और हम सोचा करते कि काश हम नीचे होते और इन सिक्कों को इकठ्ठा कर पाते. मजेदार पोस्ट. आभार.
ममता जी , कोन से पुल से फ़ेकते थे, बताईये जरा
देखा तो कई बार है मगर कभी सिक्का फैका नही।
खूब याद दिलाई आपने भी..
हम तो आज भी डालते हैं। किसी भी बहती नदी के पुल से गुज़रे तो गाड़ी रोक कर सिक्का डालते हैं और एक काल्पनिक पुण्य का भागी बनने की अनुभूति मन को शांत कर देती है.....
इसका कुछ अर्थ नहीं है, पर ऐसा करना अच्छा लगता है...
ममताजी , आपने एक ऐसी बात याद दिला दी जो हम भूल गए.
याद आता है जब पुल से ट्रेन गुजरती थी तो माँ हाथ में सिक्का पकड़ा देतीं थीं हम निशाना साध कर फेंकते थे कि कहीं सिक्का पुल के लेंटर से टकरा कर कहीं इधर उधर न गिर जाए...........हमको फ़िर से बचपन में पहुँचाने के लिए धन्यवाद्.
भारत के पेड, नदियाँ पहाड सभी पूजे जाते हैँ ..गँगा माई के दर्शन करने का पुण्य आज तक मिला नहीँ :-((
- लावण्या

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