माँ
ये एक ऐसा शब्द है जिसकी महत्ता ना तो कभी कोई आंक सका है और ना ही कभी कोई आंक सकता है। इस शब्द मे जितना प्यार है उतना प्यार शायद ही किसी और शब्द मे होगा। माँ जो अपने बच्चों को प्यार और दुलार से बड़ा करती है। अपनी परवाह ना करते हुए बच्चों की खुशियों के लिए हमेशा प्रयत्न और प्रार्थना करती है और जिसके लिए अपने बच्चों की ख़ुशी से बढकर दुनिया मे और कोई चीज नही है। जब् हम छोटे थे और हमारी माँ हम को कुछ भी कहती थी तो कई बार हम उनसे उलझ पड़ते थे कि आप तो हमको यूँही कहती रहती है कई बार माँ कहती थी कि जब तुम माँ बनोगी तब समझोगी और ये सुनकर तो हम और भी नाराज हो जाते थे। हम लोग कभी भी माँ को पलट कर जवाब नही देते थे हाँ कई बार बहस जरूर हो जाती थी।
हमारी दीदियों की शादी के बाद तो माँ हमारी सबसे अच्छी दोस्त बन गयी थी और बाद मे कुछ सालों के लिए हमारे पापा दिल्ली आ गए थे जिसकी वजह से हमारी और माँ की आपस मे ख़ूब छनती थी। हम दोनो बहुत चाय पीते थे पापा अक्सर कहते थे की तुम लोगों को बस चाय पीने का बहाना चाहिऐ । घर मे है तो चाय चाहिऐ बाहर से घूम कर आये है तो चाय चाहिऐ , बोर हो रहे है तो भी चाय चाहिऐ। सच मे जब् भी कोई नौकर दिख जाता हम लोग चाय की फरमाइश कर देते ।क्या मस्ती भरे दिन थे । हमारे दोस्त तो ये भी कहने लगे थे की अब तो ममता सबको भूल जायेगी क्यूंकि इसके मम्मी-पापा जो दिल्ली आ गए है। और हुआ भी वही जब् भी छुट्टी होती बस बच्चों को गाड़ी मे डाला और पहुंच गए मम्मी के यहाँ।
पर कई बार हम बच्चे ना चाहते हुए भी माँ को दुःख दे जाते है कुछ बातें ऐसी होती है जिन्हे हम चाहकर भी नही भूल पाते है। जैसे यहाँ पर हम जो वाक़या लिख रहे है वो इतना समय बीत जाने पर भी हम भूल नही पाए है क्यूंकि हमे हमेशा ये लगता है कि हमने माँ से इस तरह क्यों बात की ? ये बात दिसम्बर २००४ की है उन दिनों माँ की तबियत कुछ खराब चल रही थी। हमे अंडमान लौटने मे कुछ दस दिन ही बचे थे और इसलिये माँ हमसे मिलने दिल्ली आयी हुई थी। दिल्ली मे हमारी भतीजी भी होस्टल मे रहती थी और चुंकि हम अंडमान मे थे इसलिये हमारा बेटा भी अपने collage के होस्टल मे रहता था । एक दिन की बात है घर मे mutton बना था ,हमारा बेटा और हमारी भतीजी दोनो ही होस्टल से घर आये थे । हमारे बेटे को माँसाहारी खाना बहुत पसंद है । हम सभी खाने का मजा ले रहे थे आख़िर माँ ने जो बनाया था वो कहते है ना की माँ के हाथ के बने खाने का स्वाद ही अलग होता है हम लोग लाख कोशिश करे वैसा नही बना सकते। आख़िर मे एक पीस बचा था तो एक पीस क्या रखा जाये ये सोच कर माँ ने बेटे को कहा की तुम ले लो और हमने भतीजी को बोला और बाद मे हमने अपनी भतीजी को वो चावल के साथ खाने के लिए serve किया ये कहते हुए की बेटा तो आजकल घर मे ही है आप फिर बना दीजियेगा पर शायद हमारे कहने का अंदाज कुछ गलत था जो माँ को अच्छा नही लगा और बाद मे वो उठकर अन्दर कमरे मे चली गयी थी । जब् हम अन्दर कमरे मे गए तो हम हैरान रह गए उनको इतना दुःखी देखकर और हमने उनसे माफ़ी मांगी कि आइन्दा हम ऐसा कुछ नही करेंगे जिससे उन्हें दुःख हो। पर आज भी हम इस बात को भुला नही पाते है ,आज भी ये सोच कर हमे अपने पर ग़ुस्सा आता है की हमने माँ से ऐसे क्यों बात की थी।
हमारी दीदियों की शादी के बाद तो माँ हमारी सबसे अच्छी दोस्त बन गयी थी और बाद मे कुछ सालों के लिए हमारे पापा दिल्ली आ गए थे जिसकी वजह से हमारी और माँ की आपस मे ख़ूब छनती थी। हम दोनो बहुत चाय पीते थे पापा अक्सर कहते थे की तुम लोगों को बस चाय पीने का बहाना चाहिऐ । घर मे है तो चाय चाहिऐ बाहर से घूम कर आये है तो चाय चाहिऐ , बोर हो रहे है तो भी चाय चाहिऐ। सच मे जब् भी कोई नौकर दिख जाता हम लोग चाय की फरमाइश कर देते ।क्या मस्ती भरे दिन थे । हमारे दोस्त तो ये भी कहने लगे थे की अब तो ममता सबको भूल जायेगी क्यूंकि इसके मम्मी-पापा जो दिल्ली आ गए है। और हुआ भी वही जब् भी छुट्टी होती बस बच्चों को गाड़ी मे डाला और पहुंच गए मम्मी के यहाँ।
पर कई बार हम बच्चे ना चाहते हुए भी माँ को दुःख दे जाते है कुछ बातें ऐसी होती है जिन्हे हम चाहकर भी नही भूल पाते है। जैसे यहाँ पर हम जो वाक़या लिख रहे है वो इतना समय बीत जाने पर भी हम भूल नही पाए है क्यूंकि हमे हमेशा ये लगता है कि हमने माँ से इस तरह क्यों बात की ? ये बात दिसम्बर २००४ की है उन दिनों माँ की तबियत कुछ खराब चल रही थी। हमे अंडमान लौटने मे कुछ दस दिन ही बचे थे और इसलिये माँ हमसे मिलने दिल्ली आयी हुई थी। दिल्ली मे हमारी भतीजी भी होस्टल मे रहती थी और चुंकि हम अंडमान मे थे इसलिये हमारा बेटा भी अपने collage के होस्टल मे रहता था । एक दिन की बात है घर मे mutton बना था ,हमारा बेटा और हमारी भतीजी दोनो ही होस्टल से घर आये थे । हमारे बेटे को माँसाहारी खाना बहुत पसंद है । हम सभी खाने का मजा ले रहे थे आख़िर माँ ने जो बनाया था वो कहते है ना की माँ के हाथ के बने खाने का स्वाद ही अलग होता है हम लोग लाख कोशिश करे वैसा नही बना सकते। आख़िर मे एक पीस बचा था तो एक पीस क्या रखा जाये ये सोच कर माँ ने बेटे को कहा की तुम ले लो और हमने भतीजी को बोला और बाद मे हमने अपनी भतीजी को वो चावल के साथ खाने के लिए serve किया ये कहते हुए की बेटा तो आजकल घर मे ही है आप फिर बना दीजियेगा पर शायद हमारे कहने का अंदाज कुछ गलत था जो माँ को अच्छा नही लगा और बाद मे वो उठकर अन्दर कमरे मे चली गयी थी । जब् हम अन्दर कमरे मे गए तो हम हैरान रह गए उनको इतना दुःखी देखकर और हमने उनसे माफ़ी मांगी कि आइन्दा हम ऐसा कुछ नही करेंगे जिससे उन्हें दुःख हो। पर आज भी हम इस बात को भुला नही पाते है ,आज भी ये सोच कर हमे अपने पर ग़ुस्सा आता है की हमने माँ से ऐसे क्यों बात की थी।
Comments
-आप यह भावना दिल से अलग कर दें.
माँ तो माँ है ही मगर एक बात सोचनीय है कि वो भी हमारी तरह आम है मगर कई अर्थों में पार भी!!