डी एडिक्शन कैंप (ना कहना सीखो )

इधर कई दिनों से डी एडिक्शन पर लिखना छूट सा गया था पर आज अजित जी की पोस्ट ने हमे वापिस इस विषय पर लिखने के लिए प्रेरित किया।हमने पहले भी लिखा है कि कोई पीना क्यों शुरू करता है अंडमान मे जब हम लोग हॉस्पिटल मे लोगों की काउन्सेलिंग करते थे तो इस बात का ध्यान रखते थे कि जो भी क्लाइंट (मरीज ) है उसे हम लोगों से अपनी बात कहने मे कोई भी हिचकिचाहट नही होनी चाहिऐ क्यूंकि अगर वो शराब पीना छोड़ना चाहता है तभी हम लोग उसकी मदद कर सकते है और इसके लिए उसे हमे सही-सही जानकारी देनी होगी।इसके लिए हम सभी काउंसलर क्लाइंट के साथ कई सेशन करते थे । शुरुआत कुछ ऐसे होती थी।

काउन्सेलर सबसे पहली बात जो क्लाइंट से पूछते थे कि आपने पीना क्यों शुरू किया ?

जिसका जवाब हर कोई अलग-अलग देता था जैसे किसी ने दोस्तों के साथ तो किसी ने झगडे की वजह से वगैरा-वगैरा।

और दूसरी बात जो पूछते थे कि आपने पीना कब शुरू किया ?

इसका जवाब भी हर कोई अलग-अलग देता जैसे किसी ने ५ साल की उम्र से तो किसी ने ८ साल की उम्र से वगैरा-वगैरा ।

उसके बाद काउंसलर क्लाइंट के परिवार की जानकारी लेता जिससे उसके शराब पीने के कारण का सही-सही पता चल सके।

उसके बाद जो बात सबसे अहम होती है वो पूछी जाती थी कि तुमने शराब कैसे पी ?

और इसका बड़ा ही सीधा सा जवाब होता कि गिलास से पी।

और यही पर काउंसलर उससे एक और बात पूछता कि क्या किसी ने गिलास तुम्हारे मुँह से लगाया था या तुमने गिलास खुद उठाया था।

इस पर कई बार क्लाइंट कहते कि भला कोई क्यों गिलास मेरे मुँह से लगायेगा मैंने खुद ही गिलास उठाया और पिया था।

और यहीं से काउंसलर का काम शुरू होता था उसको ये अहसास दिलाने का कि अगर वो चाहे तो गिलास नही भी उठा सकता था ,शराब नही भी पी सकता था।

काउंसलर उससे एक और बात पूछता की क्या अगर शराब की जगह गिलास मे चाय या शरबत होता और उसका दोस्त उसे पीने के लिए कहेगा तो वो पिएगा या नही।

तो झट से उनका जवाब होता था की नही।

तब काउंसलर उससे कहता की जिस तरह आप चाय या और शरबत को पीने के लिए मना कर सकते हो उसी तरह शराब को भी ना कह सकते हो।

और यही पर सेशन ख़त्म हो जाता था और काउंसलर क्लाइंट को इस पर सोचने और ना कहना सीखने की आदत डालने को कहते थे ।

कुछ ज्यादा लम्बा सेशन हो गया है :)


Comments

बिल्कुल ठीक कहा आपने...अगर शर्बत चाय को इंकार किया जा सकता है तो शराब को क्यों नही?
annapurna said…
ममता जी आपकी इस पोस्ट से मुझे अपना एक कार्यक्रम याद आ गया।

लगभग 5 साल पहले मैनें दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण के लिए तम्बाक़ू निषेध दिवस के अवसर पर हैदराबाद के कैंसर से पीड़ित रोगियो से विभिन्न अस्पतालों में बातचीत की थी।

सभी रोगी भयंकर तकलीफ़ से गुज़र रहे थे। सभी ने एक ही संदेश दिया था कि हर तरह के तम्बाक़ू से दूर रहना चाहिए और मेरे पूछने पर ये भी माना कि तकलीफ़ झेलते हुए ही उन्हें ये बात समझ में आई कि काश... नहीं कहना पहले सीख लेते।
मुद्दे की बात यह है कि छोड़ने की इच्छा व्यक्ति में स्वयम में होनी चाहिये।
ममता जी,
बहुत ही सराहनीय प्रयास, उन परिवारों की ओर से धन्यवाद स्वीकारें,जिनको आपने विनाश से उबरने में सहायता की है ।
मैं तो अब तक समझता था कि आप केवल डाक्टरों के पोस्टमार्टम में ही माहिर हैं, किंतु अब धारणा बदलनी पड़ेगी ।
मेरा तो इतना साबका पड़ता है ऎसे रोगियों से ’ जो
सब कुछ लुटा कर होश में आने के लिये ' जबरन लाये जाते हैं । मैं बहुधा पहली सिटिंग में ही अपना मन्तव्य साध लेता हूँ, उनको इमोशनल बना कर, डर दिखा कर, और भी बहुत हथकंडे हैं । सफलता मिलती भी है ।
पहले शौकिया, फिर तलब, फिर वास्तविक जीवन के यथार्थ से पलायन की प्रवृति उनको डुबोती ही चली जाती है । अंत में अपने अपराधबोध को वह शराब से ही धोने लग पड़ते हैं । आप बारीकी से देखें
तो उनके स्वयं में ही कहीं न कहीं कोई बैरियर मिल ही जाता है, जो आप आराम से उन्हीं के सामने खड़ा कर सकती हैं ।
किंतु क्या सरकारों के दोहरे चरित्र पर आप कभी कुछ लिखना नहीं चाहेंगी, एक ओर तो अधिकाधिक
राजस्व अर्जित करने का लक्ष्य होता है और दूसरी तरफ़ मद्ध-निषेध विभाग की दुम भी मरोड़ी जाती है, इसी अर्जित राजस्व का कुछ प्रतिशत बैनरों ,होर्डिंग एवं अन्य प्रसहनों पर व्यय किया जाता है । इस पहलू पर भी विचार करियेगा और लिखें । मैं तो अभी डाक्टरों के विवश पक्ष को प्रस्तुत करने पर कार्यरत हूँ । इति ।

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