कपडे या मानसिकता क्या खराब है ...
दो दिन पहले हमने भी मुम्बई मे हुई घटना पर लिखा था और आज टिप्पणीकार ,महर्षि की पोस्ट पढ़कर हमने इस विषय पर फिर से लिखने की सोची है। ये जो घटना हुई है उसमे गलती किसकी है ऐसे कपडे पहनकर रात मे पार्टी करने वालों की या उन ७० लोगों की जिन्हों ने उन लड़कियों के साथ बदतमीजी की , इस बात का तो कभी फैसला ही नही हो सकता है।हाँ बहस जरुर हो सकती है।
पार्टी करना क्या इतना बड़ा गुनाह है की जिसकी इतनी बड़ी सजा मिले।
क्या इस घटना के पीछे सिर्फ लड़कियों के कपडे ही कारण थे ?
ऐसा हम नही मानते है क्यूंकि जहाँ तक कपडे की बात है तो जितनी भी फोटो इन लड़कियों की दिखाई गयी है उनमे उनके कपडे उतने भी खराब नही थे। अगर वो लड़कियां सलवार सूट या साडी पहनें होती तो क्या ये भीड़ उन्हें आदर पूर्वक जाने देती।(कुछ साल पहले दिल्ली मे भी ऐसी ही एक घटना नए साल के समय हुई थी जिसमे शायद महिला ने सलवार सूट पहना था ) अगर कपडे ही इस घटना की वजह थे तब फिर हमारे गावों मे इस तरह की घटनाएं तो कभी होनी ही नही चाहिऐ। पर वहां भी ऐसी घटनाएं क्यों होती है। जबकि वहां तो आम तौर पर लड़कियां और औरतें ज्यादातर साडी ही पहनती है।अगर कपडों की बात करें तो गोवा जैसी जगह पर तो लोगों का चलना ही मुश्किल हो जाये। जहाँ किसी भी तरह के कपडे पहन कर लोग घूमते रहते है. जहाँ आपको हर तरह के हर देश-प्रांत के लोग दिख जाते है।ना केवल नए साल के जश्न के समय बल्कि रोज मर्रा की जिंदगी मे भी।
रही बात मानसिकता की तो औरत को तो आज क्या सदियों से लोग भोग की वस्तु समझते आ रहे है।औरत चाहे जितना भी पढ़ लिख जाये ,आत्म निर्भर हो ,पर पुरुष की नजरों मे औरत की कोई वकत नही होती है। मुम्बई की घटना भी पुरुषों की इसी ओछी मानसिकता को ही दर्शाती है कि जहाँ औरत दिखी वहीं सारा पौरुष दिखाना चाहते है।इन लोगों ने तो इंसान क्या जानवर से भी बदतर काम किया है।इसे मानसिकता से ज्यादा वहशीपन ठीक होगा। मानसिकता की बात कर रहे है तो यहां हम ये भी कहना चाहते है कि इस तरह की मानसिकता वाले आदमी हर जगह होते है।
आख़िर मे हम एक बात कहना चाहते है की जब टी.वी.चैनल और अखबार इस खबर को सेंसर करके दिखा रहे है और हम सभी इस घटना को बुरा मान रहे है तो फिर हम लोग ब्लॉग पर इन्हें बिना सेंसर किये हुये क्यों दिखाते है। एक तरफ तो हम इसकी निंदा करते है और दूसरी तरफ खुद ही इसे प्रदर्शनी के तौर पर इस्तेमाल करते है।
पार्टी करना क्या इतना बड़ा गुनाह है की जिसकी इतनी बड़ी सजा मिले।
क्या इस घटना के पीछे सिर्फ लड़कियों के कपडे ही कारण थे ?
ऐसा हम नही मानते है क्यूंकि जहाँ तक कपडे की बात है तो जितनी भी फोटो इन लड़कियों की दिखाई गयी है उनमे उनके कपडे उतने भी खराब नही थे। अगर वो लड़कियां सलवार सूट या साडी पहनें होती तो क्या ये भीड़ उन्हें आदर पूर्वक जाने देती।(कुछ साल पहले दिल्ली मे भी ऐसी ही एक घटना नए साल के समय हुई थी जिसमे शायद महिला ने सलवार सूट पहना था ) अगर कपडे ही इस घटना की वजह थे तब फिर हमारे गावों मे इस तरह की घटनाएं तो कभी होनी ही नही चाहिऐ। पर वहां भी ऐसी घटनाएं क्यों होती है। जबकि वहां तो आम तौर पर लड़कियां और औरतें ज्यादातर साडी ही पहनती है।अगर कपडों की बात करें तो गोवा जैसी जगह पर तो लोगों का चलना ही मुश्किल हो जाये। जहाँ किसी भी तरह के कपडे पहन कर लोग घूमते रहते है. जहाँ आपको हर तरह के हर देश-प्रांत के लोग दिख जाते है।ना केवल नए साल के जश्न के समय बल्कि रोज मर्रा की जिंदगी मे भी।
रही बात मानसिकता की तो औरत को तो आज क्या सदियों से लोग भोग की वस्तु समझते आ रहे है।औरत चाहे जितना भी पढ़ लिख जाये ,आत्म निर्भर हो ,पर पुरुष की नजरों मे औरत की कोई वकत नही होती है। मुम्बई की घटना भी पुरुषों की इसी ओछी मानसिकता को ही दर्शाती है कि जहाँ औरत दिखी वहीं सारा पौरुष दिखाना चाहते है।इन लोगों ने तो इंसान क्या जानवर से भी बदतर काम किया है।इसे मानसिकता से ज्यादा वहशीपन ठीक होगा। मानसिकता की बात कर रहे है तो यहां हम ये भी कहना चाहते है कि इस तरह की मानसिकता वाले आदमी हर जगह होते है।
आख़िर मे हम एक बात कहना चाहते है की जब टी.वी.चैनल और अखबार इस खबर को सेंसर करके दिखा रहे है और हम सभी इस घटना को बुरा मान रहे है तो फिर हम लोग ब्लॉग पर इन्हें बिना सेंसर किये हुये क्यों दिखाते है। एक तरफ तो हम इसकी निंदा करते है और दूसरी तरफ खुद ही इसे प्रदर्शनी के तौर पर इस्तेमाल करते है।
Comments
बात संस्कारो की है. असभ्य लोग और क्या कर सकते है?
बात संस्कारो की है. असभ्य लोग और क्या कर सकते है?
inko smaaj panaah kyo detaa haen
आज आप की पोस्ट पढ़ कर तनिक संतुष्टी हुई। वास्तविकता यह है कि हम एक पुरुष प्रधान समाज में जीते हैं। महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना, कानूनों में उन का समावेश भी पुरुष प्रधान समाज का एक ढोंग मात्र है। महिलाओं को बराबरी का दर्जा खुद प्राप्त करना होगा। कुछ परिवारों में कैसे महिलाऐं बराबरी का दर्जा प्राप्त कर लेती हैं? यह मैं ने देखा है। समाज में भी जब तक ऐसा नहीं होता ऐसी घटनाऐं दोहराई जाती रहेंगी।
जहाँ तक कम कपड़े पहनने का प्रश्न है। आज भी अनेक ऐसे प्रारंभिक समाज हैं जहाँ महिलाऐं पुरुषों की तरह केवल कमर पर ही वस्त्र पहनती हैं। लेकिन वहां तो ऐसा नहीं होता। क्यों कि उन समाजों में महिलाओं को बराबरी का अथवा उस से ऊंचा दर्जा हासिल है। वास्तव में महिलाओं को शरीर ढक कर रखने की सलाह देना या उस के लिए कोई सामाजिक या धार्मिक नियम बनाना पुरुषों द्वारा महिलाओं पर आधिपत्य स्थापित रखे रखने का ही एक तरीका है। अन्यथा ये नियम दोनों के लिये बराबरी के क्यों नहीं हैं। पुरुष इतना कमजोर है कि वह अपने फूहड़पन पर काबू नहीं रख सकता और समाज में अपने आधिपत्य का सहारा ले कर उस का दोष महिलाओं पर ही डालना चाहता है। वही पुरुष परिवार और परिचितों के बीच कैसे खुद को काबू में रख पाता है? खुद में अधिपति होने का बोध ही फूहड़पन को जन्म देता है।
आप को इतनी अच्छी पोस्ट के लिए साधुवाद।