मकर संक्रान्ति यानी माघ मेले की शुरुआत
१४ जनवरी से इलाहाबाद मे हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है। १४ दिसम्बर से १४ जनवरी का समय खरवांस के नाम से जाना जाता है। और उत्तर भारत मे तो पहले इस एक महीने मे किसी भी अच्छे कार्य को अंजाम नही दिया जाता था।मसलन शादी-ब्याह नही किये जाते थे पर अब तो समय के साथ लोग काफी बदल गए है। १४ जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से अच्छे दिनों की शुरुआत होती है । माघ मेला पहला नहान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्री तक यानी आख़िरी नहान तक चलता है। संक्रान्ति के दिन नहान के बाद दान करने का भी चलन है। और आज के दिन बाक़ी जगह का तो पता नही पर हम लोगों के घर मे उरद की दाल की खिचड़ी जरुर बनती है।और इसी लिए कई जगह इस दिन को खिचड़ी के नाम से भी जाना जाता है।इस त्यौहार मे सफ़ेद और काले तिल के लड्डू और मेवे की पट्टी का घर मे बनायी जाती है।
माघ मेले से कई यादें जुडी हुई है। अब पिछले पच्चीस सालों से तो माघ मेले मे हम नियमित रुप से नही जा पाते है पर जब तक इलाहाबाद मे रहे साल दर साल माघ मेले मे घूमने जाना ,वहां संगम पर स्नान करना,कलब्बासियों के टेंट मे रहना (क्यूंकि हमारी दादी जब तक जिंदा थी हर साल पूरे माघ मेले के दौरान कलब्बास करती थी।)।सोंधी-सोंधी रेत की खुशबू और चारों और डी.डी.टी.की महक पूरे वातवरण को शुद्ध करती हुई।अब तो बस महा कुम्भ जो हर बारह साल मे आता है उसी मे अगर संभव होता है तो ही नहाने जा पाते है।
गंगा किनारे एक अलग दुनिया और एक अलग ही शहर बसा हुआ लगता है।पंडितों और साधुओं के अलग -अलग अखाड़े और हर अखाड़े का झंडा अलग रंग का जिसे दूर से देख कर ही लोग पहचान लेते थे। और भीड़ तो इतनी की ७० और ८० के दशक मे अगर किसी ऊँचे स्थान पर खडे होकर देखें तो सिर्फ सिर ही सिर दिखाई देते है।हर साल मेले मे कितने ही लोग खो जाते थे।गांववाले पूरी एक टोली की तरह आते थे और हर कोई एक-दूसरे का हाथ थामे मेले मे घूमता था।जहाँ टोली मे किसी का हाथ छूटा की बस समझो कि वो व्यक्ति खो गया। चारों तरफ भक्ति पूर्ण माहौल ,कहीं भजन तो कहीं यज्ञ ,कहीं कोई साधू समाधि लगाए हुए तो कही कोई पूजा करता हुआ।दुकाने बाजार जहाँ से हर प्रकार की सामग्री खरीदी जा सकती थी ।
खैर अब तो भीड़ की संख्या बहुत ही ज्यादा बढ गयी है।अब तो पैदल चलना भी मुश्किल हो जाता है।पर फिर भी माघ मेले का अपना ही महत्त्व और आकर्षण है ।
माघ मेले से कई यादें जुडी हुई है। अब पिछले पच्चीस सालों से तो माघ मेले मे हम नियमित रुप से नही जा पाते है पर जब तक इलाहाबाद मे रहे साल दर साल माघ मेले मे घूमने जाना ,वहां संगम पर स्नान करना,कलब्बासियों के टेंट मे रहना (क्यूंकि हमारी दादी जब तक जिंदा थी हर साल पूरे माघ मेले के दौरान कलब्बास करती थी।)।सोंधी-सोंधी रेत की खुशबू और चारों और डी.डी.टी.की महक पूरे वातवरण को शुद्ध करती हुई।अब तो बस महा कुम्भ जो हर बारह साल मे आता है उसी मे अगर संभव होता है तो ही नहाने जा पाते है।
गंगा किनारे एक अलग दुनिया और एक अलग ही शहर बसा हुआ लगता है।पंडितों और साधुओं के अलग -अलग अखाड़े और हर अखाड़े का झंडा अलग रंग का जिसे दूर से देख कर ही लोग पहचान लेते थे। और भीड़ तो इतनी की ७० और ८० के दशक मे अगर किसी ऊँचे स्थान पर खडे होकर देखें तो सिर्फ सिर ही सिर दिखाई देते है।हर साल मेले मे कितने ही लोग खो जाते थे।गांववाले पूरी एक टोली की तरह आते थे और हर कोई एक-दूसरे का हाथ थामे मेले मे घूमता था।जहाँ टोली मे किसी का हाथ छूटा की बस समझो कि वो व्यक्ति खो गया। चारों तरफ भक्ति पूर्ण माहौल ,कहीं भजन तो कहीं यज्ञ ,कहीं कोई साधू समाधि लगाए हुए तो कही कोई पूजा करता हुआ।दुकाने बाजार जहाँ से हर प्रकार की सामग्री खरीदी जा सकती थी ।
खैर अब तो भीड़ की संख्या बहुत ही ज्यादा बढ गयी है।अब तो पैदल चलना भी मुश्किल हो जाता है।पर फिर भी माघ मेले का अपना ही महत्त्व और आकर्षण है ।
Comments
yahaa khichadi ka daan kiya jata hai aur bhojan main chaaval (naye) ke saath sabhi sabjiyaa milaa kar pakaate hai aur mithai main til ke laddu.
Ghar main rangoli banai jaati hai, darvaaze par ganne ke tukade, ber aur hare chane rakhe jaate hai jisase ghar main samraddhi aatii hai.
Apko aur chithe se jude sabhi ko sankranti aur pongal ki shibhakaamnaaye.
कभी मौका लगा तो देखेंगे!
हमने तो दो रेलगाड़ियों के रेक तैयार कर रखे हैं - अगर भीड़ हुयी तो चलायेंगे मेलहरूओं के लिये।
ज्ञान जी बाद मे पता चला की नहान १५ को है।