बिना टिकट यात्रा

आज सुबह -सुबह ज्ञानदत्त जी की पोस्ट पढ़कर हमे अपनी जिंदगी की पहली और आख़िरी बिना टिकट यात्रा याद आ गयी। पहली और आख़िरी इस लिए लिख रहे है क्यूंकि हम लोगों ने कभी भी बिना टिकट यात्रा नही की थी ।ना तो उससे पहले और ना ही कभी उसके बाद। यूं तो रेलगाडी के सफ़र के साथ ढेरों यादें है। पर बिना टिकट यात्रा का अपना ही मजा है अगर पकड़े ना जाएँ तो।वरना ......

ये बात तो काफी पुरानी है।गरमी की छुट्टियाँ हुई थी और हम सब भाई- बहन बच्चों सहित इलाहाबाद मे इकट्ठा थे बस हमारी मिर्जापुर वाली दीदी इलाहाबाद नही पहुंची थी क्यूंकि वो कुछ बीमार थी । तो हम सब ने की चलो अगर वो बीमार है और इलाहाबाद नही आ पा रही है तो क्या हम लोग ही मिर्जापुर हो आते है।अब इलाहाबाद से मिर्जापुर है ही कितनी दूर। बस इतना सोचना था कि फ़टाफ़ट मम्मी-पापा को हम लोगों ने अपना मिर्जापुर जाने का प्रोग्राम बताया और इससे पहले कोई कुछ कहे हम बहनेऔर भाभी मय बच्चों के चल दिए मिर्जापुर। हम सब छोटे-बडे मिलाकर दस लोग थे. बस भईया अपने किसी काम की वजह से नही जा पाए थे। शायद एक -डेढ़ घंटे मे हम लोग मिर्जापुर पहुंच गए।और दीदी के घर ख़ूब मस्ती हुई

जब हम लोग वापिस इलाहाबाद लौटने लगे तो हम लोगों ने अपनी बहन को भी साथ चलने को कहा। पहले तो वो तैयार नही हो रही थी पर फिर हम सबके जोर देने पर वो तैयार हो गयी। अब चुंकि वो अचानक तैयार हुई तो जाहिर है की पैकिंग मे थोडा समय तो लगेगा ही। तो पैकिंग करते-करते और घर से निकलते हुए हम लोगों को थोड़ी देर हो गयी। जैसे ही स्टेशन पहुंचे तो देखा की ट्रेन बिल्कुल जाने के लिए तैयार थी और चुंकि हम लोगों के साथ बच्चे भी थे तो ये सोचा गया की ट्रेन मे चढ़ जाते है । जब रास्ते मे कोई टी.टी.आयेगा तो उससे टिकट बनवा लेंगे। पर उस डेढ़ घंटे के सफ़र मे ना तो कोई टी.टी.आया और ना ही हम लोगों का टिकट बना। और सारा रास्ता यूं ही बीत गया और जब इलाहाबाद आने लगा तो हम लोगों को थोड़ी चिन्ता होने लगी की अगर टी.टी. ने पकडा तब तो बड़ी मुसीबत हो जायेगी और अगर घर मे पापा लोगों को पता चलेगा तो डांट पडेगी सो अलग।

पर उस समय सबसे बड़ा सवाल ये था की स्टेशन से कैसे बाहर निकला जायेट्रेन से उतर कर ये सोचा गया कि हम सभी अलग-अलग छोटे-छोटे ग्रुप मे स्टेशन से बाहर निकलेंगे और गेट पर टी. टी .को टिकट आगे है या टिकट पीछे है ये कहकर सब लोग बाहर निकलेंगेतो बस सबसे पहले हमारी मिर्जापुर वाली दीदी क्यूंकि वो बीमार थी एक बच्चे के साथ बाहर निकली ये कहकर की टिकट पीछे हैहम सभी धीरे-धीरे मन ही मन डरते हुए और बाहर से बिल्कुल निडर भाव से चलते हुए टिकट आगे है टिकट पीछे है ऐसा कहते हुए एक के बाद एक स्टेशन के गेट के बाहर निकलते गएऔर बाहर निकल कर पार्किंग मे जहाँ गाड़ी खडी थी वहां पहुंचकर पहले चैन की सांस लेते थे कि चलो बच गए और फिर जोरदार ठहाका लगते थे


पार्किंग मे खडे-खडे हम सब देख रहे थे कि जिज्जी को टी.टी.ने रोक लिया हैइसलिये ड्राइवर को हम लोगों ने कहा कि गाड़ी स्टार्ट कर के रखो और जैसे ही जिज्जी आएगी फौरन चल देनासबसे आख़िर मे हमारी जिज्जी थी पर जब उन्होने कहा कि टिकट तो आगे जो लोग गए है उनके पास थाऔर जैसे ही जिज्जी ने कहा की टिकट तो आगे वालों के पास थाये सुनते ही टी.टी.को थोडा शक हुआ कि जरूर कुछ गड़बड़ है

तो टी.टी.ने उनसे कहा की पहले वाले तो ये कहकर गए कि टिकट पीछे है और अब आप कह रही है की टिकट आगे है

तो जिज्जी ने बड़ी ही स्मार्टनेस से कहा कि अरे क्या उन लोगों ने टिकट नही दिया
तो टी.टी.ने कहा नही
इस पर जिज्जी बोली कि अच्छा मैं उन लोगों से टिकट लेकर आती हूँ
वो टी.टी.कुछ सीधा था इसलिये उसने जिज्जी को बाहर हम लोगों के पास टिकट लेने के लिए आने दिया

और उसके बाद क्या हुआ होगा ये तो आप अंदाजा ही लगा सकते हैअरे हम सभी सिर पर पैर रख कर भागे मतलब कार से भागेजैसे ही कार चली हम सभी ठहाका मार कर हंस पडेयूं तो हम लोग कार से भाग रहे थे पर फिर भी पीछे मुड़-मुड़ कर देखते जा रहे थे कि कहीं कोई पीछा तो नही कर रहा हैऔर घर पहुंच कर जब हम लोगों ने पापा-मम्मी और भैय्या को बिना टिकट यात्रा और स्टेशन से बाहर निकलने का किस्सा सुनाया तो वो डांट पडी कि कुछ पूछिये मतऔर पापा ने हम सबको ये ताकीद दी की आइन्दा ट्रेन भले ही छूट जाये पर बिना टिकट यात्रा कभी नही करना



Comments

बहुत अच्छा हुआ कि बच गये. यह और भी अच्छा हुआ कि डांट पड़ी. अन्यथा कई घरों में तो बेटिकट चलने को परम्परागत स्वीकृति मिली हुई है! :)
ePandit said…
रुचिकर स‌ंस्मरण। ये बाद में टिकट लेने के चक्कर में एक बार हमें भी बिना टिकट यात्रा करनी पड़ी। पूछिए मत पूरे रास्ते लगता रहा कि टीटी अब आया, अब आया।
Udan Tashtari said…
रोचक संस्मरण. कई बार जाने अनजाने मजबूरीवश कानून तोड़ कर बच जाने का कौतुहल रहता है. डांट पड़ी यह बहुत अच्छा हुआ. मगर आप हमारे रुट पर क्या कर रही हैं हमरी ससुराल भी मिर्जापुर में है और पत्नी के सारे रिश्तेदार इलाहाबाद. खूब शंटिंग की है इलाहाबाद-मिर्जापुर के बीच-मगर टिकिट के साथ. :)
mamta said…
समीर जी हमारी बहन मिर्जापुर मे दो साल रही है। और हम तो इलाहाबादी ही है।
हा हा, सही है!!
बढ़िया!!
अच्छा संस्मरण है।
Dharni said…
मज़ेदार पोस्ट। बेटिकट तो कभी नहीँ चला शायद, पर गलत टिकट लेकर एक बार ज़रूर चढ़ गया था..!

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