टेसू के फूलों की होली
होली इस शब्द का जितना मजा बचपन मे लिया वो तो भुलाए नही भूलता है।होली का इंतजार होली के अगले दिन से ही शुरू हो जाता था ।अरे जिसने रंग ज्यादा लगाया या जिसको रंग कम लगा पाते थे उससे अगली होली मे निपटना जो होता था। :)
होली के आगमन का एहसास चिप्स की तैयारी से होता था। होली के हफ्तों पहले से मम्मी घर मे तरह-तरह की चिप्स बनाने लगती थी।अब उस ज़माने मे तो लोग घर की ही बनी स्वादिष्ट चिप्स खाते थे।होलिका दहन के दिन घर मे उपटन बनता और लगाया जाता और फ़िर होलिका मे डाला जाता इस विश्वास के साथ की सब बुराइयों का अंत हो।
हमेशा होली के एक दिन पहले दोपहर मे २ बजे से गुझिया बनने का कार्यक्रम शुरू होता था जो रात तक चलता था। साथ मे मठरी ,खुरमा भी बनाया जाता था।घर मे मम्मी के साथ हम सभी भाई-बहन मिल कर गुझिया बनवाते थे और भइया कई बार गुझिया तलने का काम करते थे।(क्यूंकि पापा को नौकरों के हाथ की बनी गुझिया पसंद नही आती थी। )क्या जोश और उत्साह होता था। अगले दिन होली की सुबह मालपुआ बनता और उसके बाद खाना बनाने का काम शुरू होता जिसमे मम्मी कबाब और मीट बनाती और बाकी खाना नौकर बनाते जिसमे पूड़ी,कुम्ह्डे की सब्जी, बैगन की कलौंजी ,कटहल की सब्जी चने की दाल की पूरी,उरद की दाल की कचोडी,और पुलाव बनता।(पहले मायके मे फ़िर ससुराल और अब हम भी ये सब बनाते है )
इलाहाबाद मे जिस मुहल्ले मे हम लोग रहते थे वहां हर घर मे कम से कम चार लड़कियां तो थी ही और किसी-किसी घर मे तो ५- ६ लड़कियां भी होती थी। (वो पहले लड़कियों को मारने का ज्यादा चलन जो नही था ) । घर मे सुबह नाश्ते के साथ ही होली शुरू हो जाती ।घर मे बड़े से ड्रम मे रंग और साथ ही रंग की अलग-अलग बाल्टियां ,सूखे मुंह मे लगाने वाले रंगों के अलग से पैकेट होते ,अबीर,गुलाल,पिचकारी । और घर के आँगन मे एक बड़े से हंडे मे गरम पानी मे टेसू के फूल भिगाये जाते। और चूँकि उस ज़माने मे होली मे हमेशा सफ़ेद कपड़े पहन कर खेलने का रिवाज था तो टेसू के फूल का पीला रंग बहुत ही अच्छा खिलता था। पापा और मम्मी की तो टेसू से ही होली होती थी।
नाश्ते के बाद तो हम लोग जो घर से निकलते तो २ बजे के पहले वापिस नही आते ।सबसे पहले हम लोग हर घर मे एक-एक करके जाते और चाची और चाचा (तब अंकल आंटी नही कहते थे)और बड़े-बुजुर्गों को शराफत से रंग लगाते और फ़िर सब बच्चा पार्टी जिसमे लड़के और लड़कियां होते थे खूब धूम कर होली खेलते।और उन्ही रंगे हाथों से किसी घर मे गुझिया,तो किसी मे दही बड़े,तो कहीं समोसे खाते घुमते । और धीरे-धीरे इसी तरह हर घर मे खेलने के बाद हम लोगों की टोली बड़ी होती जाती । आख़िर मे हमारे घर पूरी टोली आती और आँगन मे इतनी धमा-चौकडी होती की सारी रंग की बाल्टियां कम पड़ जाती। क्यूंकि बाल्टी का ज्यादा रंग तो एक-दूसरे पर डालने और बचने मे जमीन पर ही गिर जाता था।और सबकी शक्लें भूत जैसी कोई हरा तो कोई लाल तो कोई बैगनी और सबके सिर तो अलग-अलग रंग के अबीर-गुलाल से भरे होते।और एक काम हम लोग करते थे सबकी पीठ पर छापे मारने का । और ऐसे मे कई बार लोगों से बदला भी पूरा हो जाता था (अरे मारने का ) । :)
खेलने के बाद सबसे मजा रंग छुड़ाने मे आता। आँगन मे साबुन और शीशा लेकर लाइन से हम सभी भाई-बहन बैठ कर रंग छुड़ाने मे जूटते और तब होली खेलने का असली मजा मिलता था जब रंग छुटते नही थे ।फ़िर भी किसी तरह नहा धोकर (आधे रंगे हुए ) नए कपड़े पहनते और एक बार फ़िर से खाने की टेबल पर सभी एक -दूसरे को गुलाल से टीका करते और शाम को फ़िर से लोगों के घर मिलने-जुलने का कार्यक्रम शुरू हो जाता था जो रात तक चलता था।
आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएं।
नोट -- होली की एक और ख़ास बात होती थी पहले घर मे सबके कपड़े एक से होते थे। :)
क्यूं आपके यहां ऐसा नही था क्या।
तो अगले तीन दिनों तक छुट्टी अरे भाई होली है भाई होली है।
होली के आगमन का एहसास चिप्स की तैयारी से होता था। होली के हफ्तों पहले से मम्मी घर मे तरह-तरह की चिप्स बनाने लगती थी।अब उस ज़माने मे तो लोग घर की ही बनी स्वादिष्ट चिप्स खाते थे।होलिका दहन के दिन घर मे उपटन बनता और लगाया जाता और फ़िर होलिका मे डाला जाता इस विश्वास के साथ की सब बुराइयों का अंत हो।
हमेशा होली के एक दिन पहले दोपहर मे २ बजे से गुझिया बनने का कार्यक्रम शुरू होता था जो रात तक चलता था। साथ मे मठरी ,खुरमा भी बनाया जाता था।घर मे मम्मी के साथ हम सभी भाई-बहन मिल कर गुझिया बनवाते थे और भइया कई बार गुझिया तलने का काम करते थे।(क्यूंकि पापा को नौकरों के हाथ की बनी गुझिया पसंद नही आती थी। )क्या जोश और उत्साह होता था। अगले दिन होली की सुबह मालपुआ बनता और उसके बाद खाना बनाने का काम शुरू होता जिसमे मम्मी कबाब और मीट बनाती और बाकी खाना नौकर बनाते जिसमे पूड़ी,कुम्ह्डे की सब्जी, बैगन की कलौंजी ,कटहल की सब्जी चने की दाल की पूरी,उरद की दाल की कचोडी,और पुलाव बनता।(पहले मायके मे फ़िर ससुराल और अब हम भी ये सब बनाते है )
इलाहाबाद मे जिस मुहल्ले मे हम लोग रहते थे वहां हर घर मे कम से कम चार लड़कियां तो थी ही और किसी-किसी घर मे तो ५- ६ लड़कियां भी होती थी। (वो पहले लड़कियों को मारने का ज्यादा चलन जो नही था ) । घर मे सुबह नाश्ते के साथ ही होली शुरू हो जाती ।घर मे बड़े से ड्रम मे रंग और साथ ही रंग की अलग-अलग बाल्टियां ,सूखे मुंह मे लगाने वाले रंगों के अलग से पैकेट होते ,अबीर,गुलाल,पिचकारी । और घर के आँगन मे एक बड़े से हंडे मे गरम पानी मे टेसू के फूल भिगाये जाते। और चूँकि उस ज़माने मे होली मे हमेशा सफ़ेद कपड़े पहन कर खेलने का रिवाज था तो टेसू के फूल का पीला रंग बहुत ही अच्छा खिलता था। पापा और मम्मी की तो टेसू से ही होली होती थी।
नाश्ते के बाद तो हम लोग जो घर से निकलते तो २ बजे के पहले वापिस नही आते ।सबसे पहले हम लोग हर घर मे एक-एक करके जाते और चाची और चाचा (तब अंकल आंटी नही कहते थे)और बड़े-बुजुर्गों को शराफत से रंग लगाते और फ़िर सब बच्चा पार्टी जिसमे लड़के और लड़कियां होते थे खूब धूम कर होली खेलते।और उन्ही रंगे हाथों से किसी घर मे गुझिया,तो किसी मे दही बड़े,तो कहीं समोसे खाते घुमते । और धीरे-धीरे इसी तरह हर घर मे खेलने के बाद हम लोगों की टोली बड़ी होती जाती । आख़िर मे हमारे घर पूरी टोली आती और आँगन मे इतनी धमा-चौकडी होती की सारी रंग की बाल्टियां कम पड़ जाती। क्यूंकि बाल्टी का ज्यादा रंग तो एक-दूसरे पर डालने और बचने मे जमीन पर ही गिर जाता था।और सबकी शक्लें भूत जैसी कोई हरा तो कोई लाल तो कोई बैगनी और सबके सिर तो अलग-अलग रंग के अबीर-गुलाल से भरे होते।और एक काम हम लोग करते थे सबकी पीठ पर छापे मारने का । और ऐसे मे कई बार लोगों से बदला भी पूरा हो जाता था (अरे मारने का ) । :)
खेलने के बाद सबसे मजा रंग छुड़ाने मे आता। आँगन मे साबुन और शीशा लेकर लाइन से हम सभी भाई-बहन बैठ कर रंग छुड़ाने मे जूटते और तब होली खेलने का असली मजा मिलता था जब रंग छुटते नही थे ।फ़िर भी किसी तरह नहा धोकर (आधे रंगे हुए ) नए कपड़े पहनते और एक बार फ़िर से खाने की टेबल पर सभी एक -दूसरे को गुलाल से टीका करते और शाम को फ़िर से लोगों के घर मिलने-जुलने का कार्यक्रम शुरू हो जाता था जो रात तक चलता था।
आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएं।
नोट -- होली की एक और ख़ास बात होती थी पहले घर मे सबके कपड़े एक से होते थे। :)
क्यूं आपके यहां ऐसा नही था क्या।
तो अगले तीन दिनों तक छुट्टी अरे भाई होली है भाई होली है।
Comments
आपको भी होली की बधाई व शुभकामना,
तीन दिन तक भंग नई उतरने वाली क्या ;)
http://ecoport.org/ep?SearchType=pdb&Subject=Butea&Caption=flowering&Author=oudhia&SubjectWild=CO&Thumbnails=Only&CaptionWild=CO&AuthorWild=CO
दीपक भारतदीप
कल बधाई दे नही पाई सभी लोगो को घर मेहमानो से भर गया था...:)