ना जाड़ा ना अंगीठी और ना ही मूंगफली :(
आजकल हर तरफ़ जाड़ा छाया हुआ है दिल्ली यू.पी. बिहार हो या चाहे अमेरिका ,लन्दन या कनाडा ही क्यूँ न हो पर हमारे यहाँ ..... । कभी-कभी कोस्टल एरिया मे रहने का खामियाजा भी भुगतना पड़ता है :) क्योंकि आम तौर पर ऐसी जगहों पर सारे साल गरमी के जैसा ही मौसम रहता है ।गोवा मे जाड़े का अनुभव बस २-४ दिन सुबह-सुबह होने वाले कोहरे को देख कर ही होता है । और सूरज देवता के ७ बजे के बाद उगने से पता चलता है की गोवा मे जाड़ा आ गया है । और या फ़िर वाईन टेस्टिंग फेस्टिवल से :) अब आज कल जहाँ आधे से ज्यादा भारत देश मे ठण्ड पड़ रही है वहीं गोवा मे अभी २ -३ दिन पहले जनवरी का सबसे गर्म दिन हुआ था । :( :)
जाडे के कुछ नफे (ज्यादा)और नुक्सान (कम) है ।अब नफ़ा ये है कि इस जाड़े के मौसम मे एक तरफ़ जहाँ मूंगफली और अमरुद खाने का मजा है वहीं दूसरी तरफ़ घुघरी खाने का भी अपना अलग ही मजा है । :) तो जाड़े का नुकसान है कि नल का पानी भी बिल्कुल बरफीला ठंडा हो जाता है और रजाई से बाहर निकलने पर दांत भी किटकिटाने लगते है ।अब यहाँ चूँकि जाड़ा पड़ता नही है तो इसलिए यहाँ पर जाड़े के नफे-नुकसान से कोई फर्क नही पड़ता है । :)
हो सकता है आप को लगे कि लो भाई यहाँ अपनी तो जाड़े के मारे मुसीबत है और एक ये है जिन्हें जाड़े की कमी महसूस हो रही है ।अब क्या करें इंसान की फितरत ही ऐसी है जो नही है उसे ही पाने की ख्वाहिश होती है । और हम भी उसी फितरत के मालिक है । :)
तो चलिए कुछ पुरानी बातें याद करके मन को खुश कर लिया जाए ।
आह वो भी क्या दिन थे (और इलाहाबाद की मूंगफली भी क्या गज़ब की दानेदार मूंगफली होती है) जब इलाहाबाद मे हम सब बहनें रजाई मे घुसकर मूंगफली खाने का कोम्पतीशन किया करते थे । एक पूरा अखबार रजाई पर फैलाया जाता था और फ़िर मूंगफली का पूरा पैकेट उसमे पलट दिया जाता था और साथ मे होती थी नमक ,हरी धनिया और मिर्चे की चटनी । फ़िर शुरू होता था मूंगफली खाने का कोम्पतीशन । और सबसे मजे की बात की छिलका अलग नही रखते थे क्यूंकि आख़िर मे जब मूंगफली खत्म होने लगती थी तब ही तो असली मजा आता था उसमे से मूंगफली ढूँढने का और खाने का । :)
और हाँ अगर आपने ऐसा मूंगफली खाने का कोम्पतीशन नही किया है तो करके देखिये यकीन जानिए बड़ा मजा आता है । यहाँ ना तो रजाई और ना ही वैसी मूंगफली मिलती है हाँ आज कल कभी कभार कच्ची मूंगफली सब्जी मंडी मे मिल जाती है (और फ़िर ख़ुद भूनो या उबालो और तब खाओ । उफ़ इतने मे तो सारा मजा ही खत्म हो जाता है । )पर उसमे वो भुनी हुई मूंगफली का स्वाद कहाँ ।
भूनने से याद आया जब तक हम लोग दिल्ली मे थे तो जब बेटों की जाड़े की छुट्टियों होती थी तो हम लोग अक्सर लखनऊ ( हमारी ससुराल ) जाते थे । और लखनऊ मे जाड़े के दिनों मे शाम को अंगीठी जलाई जाती थी और सब लोग उसके चारों ओर बैठ कर हाथ तापते थे । अब अगर खाली हाथ ही तापा जाया तो फ़िर अंगीठी जलाने का भला क्या फायदा । :)
अम्माजी (हमारी सास ) उसमे हरी मटर और आलू वगैरा भूनती थी और वहीं गरम-गरम भुना आलू और मटर खाने मे जो मजा और स्वाद आता था वो भला यहाँ कहाँ मिले । (वैसे इस एक महीने यहाँ हरी मटर जरुर मिल जाती है और हम निमोना और मटर की पूड़ी खा लेते है । :)
अब आख़िर हम ठहरे इलाहाबादी तो भला इलाहाबाद के पेड़े यानी अमरुद को कैसे भूल सकते है :)
पिछले कुछ सालों से दिल्ली से बाहर रहने के कारण इलाहाबाद के अमरूदों से भी वंचित है । अब दिल्ली मे तो इलाहाबाद से अमरुद आ जाते थे (हालाँकि उनका स्वाद कुछ अलग हो जाता था )पर यहाँ तक आते-आते तो अमरुद गल ही जाते है ।
अब जाड़ा ना सही जाड़े की यादें ही सही । :)
जाडे के कुछ नफे (ज्यादा)और नुक्सान (कम) है ।अब नफ़ा ये है कि इस जाड़े के मौसम मे एक तरफ़ जहाँ मूंगफली और अमरुद खाने का मजा है वहीं दूसरी तरफ़ घुघरी खाने का भी अपना अलग ही मजा है । :) तो जाड़े का नुकसान है कि नल का पानी भी बिल्कुल बरफीला ठंडा हो जाता है और रजाई से बाहर निकलने पर दांत भी किटकिटाने लगते है ।अब यहाँ चूँकि जाड़ा पड़ता नही है तो इसलिए यहाँ पर जाड़े के नफे-नुकसान से कोई फर्क नही पड़ता है । :)
हो सकता है आप को लगे कि लो भाई यहाँ अपनी तो जाड़े के मारे मुसीबत है और एक ये है जिन्हें जाड़े की कमी महसूस हो रही है ।अब क्या करें इंसान की फितरत ही ऐसी है जो नही है उसे ही पाने की ख्वाहिश होती है । और हम भी उसी फितरत के मालिक है । :)
तो चलिए कुछ पुरानी बातें याद करके मन को खुश कर लिया जाए ।
आह वो भी क्या दिन थे (और इलाहाबाद की मूंगफली भी क्या गज़ब की दानेदार मूंगफली होती है) जब इलाहाबाद मे हम सब बहनें रजाई मे घुसकर मूंगफली खाने का कोम्पतीशन किया करते थे । एक पूरा अखबार रजाई पर फैलाया जाता था और फ़िर मूंगफली का पूरा पैकेट उसमे पलट दिया जाता था और साथ मे होती थी नमक ,हरी धनिया और मिर्चे की चटनी । फ़िर शुरू होता था मूंगफली खाने का कोम्पतीशन । और सबसे मजे की बात की छिलका अलग नही रखते थे क्यूंकि आख़िर मे जब मूंगफली खत्म होने लगती थी तब ही तो असली मजा आता था उसमे से मूंगफली ढूँढने का और खाने का । :)
और हाँ अगर आपने ऐसा मूंगफली खाने का कोम्पतीशन नही किया है तो करके देखिये यकीन जानिए बड़ा मजा आता है । यहाँ ना तो रजाई और ना ही वैसी मूंगफली मिलती है हाँ आज कल कभी कभार कच्ची मूंगफली सब्जी मंडी मे मिल जाती है (और फ़िर ख़ुद भूनो या उबालो और तब खाओ । उफ़ इतने मे तो सारा मजा ही खत्म हो जाता है । )पर उसमे वो भुनी हुई मूंगफली का स्वाद कहाँ ।
भूनने से याद आया जब तक हम लोग दिल्ली मे थे तो जब बेटों की जाड़े की छुट्टियों होती थी तो हम लोग अक्सर लखनऊ ( हमारी ससुराल ) जाते थे । और लखनऊ मे जाड़े के दिनों मे शाम को अंगीठी जलाई जाती थी और सब लोग उसके चारों ओर बैठ कर हाथ तापते थे । अब अगर खाली हाथ ही तापा जाया तो फ़िर अंगीठी जलाने का भला क्या फायदा । :)
अम्माजी (हमारी सास ) उसमे हरी मटर और आलू वगैरा भूनती थी और वहीं गरम-गरम भुना आलू और मटर खाने मे जो मजा और स्वाद आता था वो भला यहाँ कहाँ मिले । (वैसे इस एक महीने यहाँ हरी मटर जरुर मिल जाती है और हम निमोना और मटर की पूड़ी खा लेते है । :)
अब आख़िर हम ठहरे इलाहाबादी तो भला इलाहाबाद के पेड़े यानी अमरुद को कैसे भूल सकते है :)
पिछले कुछ सालों से दिल्ली से बाहर रहने के कारण इलाहाबाद के अमरूदों से भी वंचित है । अब दिल्ली मे तो इलाहाबाद से अमरुद आ जाते थे (हालाँकि उनका स्वाद कुछ अलग हो जाता था )पर यहाँ तक आते-आते तो अमरुद गल ही जाते है ।
अब जाड़ा ना सही जाड़े की यादें ही सही । :)
Comments
Regards
मनीषा
कल देखते हैं।
मधुर यादोँ को
ममता जी आपने
अब ये भी बता देँ कि
"निमोना " क्या होता है ?
हमेँ पता ही नहीँ !
नीरज
निर्मला जी आपने बुलाया है तो हम अवश्य जाड़े का मजा लेने आयेंगे । :)
लावण्या जी हम सोच रहे है कि कल-परसों मे क्यों न दाल रोटी चावल पर निमोना की रेसिपी पोस्ट कर दे ।
सुब्रमनियन जी आपने ठीक कहा है कि गोवा कि जैसी बारिश इलाहाबाद या दिल्ली मे नही मिल सकती है ।खुश रहने के लिए ये भी अच्छा है । :)