खुदा के लिए (In the name of god )

तीन दिसम्बर को ईफ्फी २००७ ख़त्म हो गया।यूं तो हमने पहली ही सोचा था की हम ईफ्फी मे देखी हुई कुछ फिल्मों के बारे मे यहां लिखेंगे फिर सोचा कि नही लिखेंगे कि कहीं आप लोग बोर हो जाएँपर कल शास्त्री जी ने अपनी टिप्पणी मे हमे अच्छी फिल्मों के बारे मे लिखने के लिए कहा इसीलिए हम कुछ फिल्मों का जिक्र करेंगे। तेईस से तीन के बीच मे हमने करीब २०-२५ फिल्में देखी। ये तो जाहिर सी बात है कि इतनी फिल्मों मे से हर पिक्चर तो अच्छी हो नही सकती है पर फिर भी कुछ फिल्में बहुत पसंद आई(जिनका हम जिक्र करते रहेंगे) जिनमे से खुदा के लिए एक है । ये पिक्चर पाकिस्तान के डाइरेक्टर शोएब मंसूर ने बनाई है।इस फिल्म की खास बात ये है की इस फिल्म ने एक ऐसे विषय को उठाया है जिस पर आज तक किसी ने भी कुछ कहने की हिम्मत नही की है। की किस तरह एक साधारण लड़का संगीत और अपने परिवार को छोड़कर तालिबानी बन जाता है।

फिल्म एक छोटे और सुखी पाकिस्तानी परिवार की है । परिवार मे सबको आजादी है कि वो अपनी जिंदगी अपने ढंग से जियें। परिवार मे दो बेटे है और दोनो गायक है। माता-पिता को तो नही पर दादी को बेटों का गाना गाना पसंद नही आता क्यूंकि दादी का कहना था कि इस्लाम मे गाना गाना वर्जित है।फिर छोटा बेटा एक मौलवी के सम्पर्क मे आता है और धीरे-धीरे मौलवी साब उसे संगीत से दूर कर देते है।पर बड़ा बेटा अमेरिका के स्कूल मे आगे संगीत की शिक्षा के लिए जाता है । पर वहां ९/११ के हादसे के बाद उसे अमेरिका मे कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है । इस सबको बहुत ही संजीदगी से फिल्माया गया है।

लड़कों के चाचा जो अमेरिका मे रहते है उन्हें यूं तो अमेरिका बहुत पसंद है । और खुद वो दो बार अमेरिकन औरत से शादी करते है पर उन्हें अपनी बेटी का किसी अमेरिकन लड़के से शादी करना पसंद नही क्यूंकि तब उन्हें अपने मुल्क और धर्म की याद आ जाती है।


फिल्म ने एक बहुत ही संवेदन शील विषय को लिया है कि धर्म (इस्लाम ) के नाम पर किस तरह से कट्टरपंथी और फंडा मेंतालिस्ट मौलवी युवा लड़कों का ऐसा ब्रेन वाश करते है कि उन्हें मौलवी साब के अलावा और किसी की बात ही समझ मे नही आती है। और जब तक बात समझ मे आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।


फिल्म मे जितने भी कलाकार है उन सभी ने बहुत अच्छी एक्टिंग की है।यूं तो इसमे सभी पाकिस्तानी कलाकार है पर इसमे एक भारतीय अभिनेता नसीरुद्दीन शाह भी है । फिल्म थोडी लंबी है करीब-करीब तीन घंटे की । पर फोटोग्राफी वगैरा काफी अच्छी है।

Comments

एक अच्छी फ़िल्म की कहानी बताने के लिए धन्यवाद. मौका मिला तो देख भी लूँगा. कहानी बताने से बचपन की एक बात याद आ गई जब कभी कोई यार दोस्त फ़िल्म देखकर आता था और कहानी सुनाने का प्रयास करता था तो उससे झगडा कर लेते थे कि सब तुम बता ही दोगे तो हम देखेंगे क्या? पर अब तो बस प्रायः कहानियाँ सुनकर ही काम चला लेते है.
फिल्म के बारे पढ़ कर अच्छा लगा। फिल्मोत्सव गोआ में ही क्यों होता है? पाकिस्तानी फिल्म बिना चोरी के नहीं दिखायी जातीं?
mamta said…
बालकिशन जी हमने तो सिर्फ पृष्ठ भूमि बताई है।

अफलातून जी पहले तो फिल्म महोत्सव दिल्ली मे और बाद मे मुम्बई मे होता था। पर पिछले चार सालों से गोवा मे ही आयोजित हो रहा है। शायद दिल्ली और मुम्बई की भीड़-भाड़ के की तुलना मे गोवा शांत और बेहतर जगह है। और सबसे बड़ी बात दूरियां कम है। कहीं भी आसानी से पहुँचा जा सकता है।

पाकिस्तानी फिल्म geo चैनल ने बनाई है।
मुझे मुसलमान के मानस की सही सही जानकारी नहीं; पर यह जरूर लगता है कि वे अजीब तनाव के सन्क्रमण से गुजर रहे होंगे। कभी कभी लगता है कि एक अंतरंग मुसलमान मित्र होता तो लम्बी बात करते।
आप ने यह सोचना उद्वेलित कर दिया फिल्म के बारे में चर्चा कर।
शुक्रिया!!

खुब सारी फ़िल्में देखी मतलब आपने, बढ़िया है जी!!
dpkraj said…
ममता जी
आपके लेख वाकी बहुत प्रशंसनीय और संग्रहणीय होते हैं, उनको देखकर एक ख्याल आता है की आप उनको विकिपीडिया पर भी रख दें बढिया रहेगा. आप अगर कर सकें तो अच्छा रहेगा क्योंकि विकिपीडिया पर हिन्दी की रचनाएं बहुत कम हैं और मैंने देखा है की लोग उसे खोल कर देखते हैं. मैं भी अपनी कुछ रचनाएं पहले उस पर रख चूका हूँ पर वह बहुत अच्छे स्तर की नहीं थी, और जब कोई ऐसी रचना होगी तो मैं भी उस पर रखूंगा. अगर आप वहाँ लिखतीं है तो फिर बहुत अच्छी बात है.

दीपक भारतदीप
वैसे तो इस प्रस्ठभूमि पर और भी कुछ फिल्में हैं पर आपके बताये हिसाब से कुछ नयापन लगता है. मुद्दा तो ऐसा है की जब जब जहाँ जहाँ उठाया जाए, हमेशा नया ही लगेगा. फ़िल्म हम लोग भी देख पाये, इसका कोई तरीका भी बताइये.

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