बकरियों कच्चे-पक्के सब खा जाओ
बात उन दिनों की है जब हम लोग इलाहाबाद के म्योराबाद मोहल्ले मे रहते थे यही कोई चालीस -बयालीस साल पहले । तब का म्योराबाद आज के म्योराबाद जैसा नही था । उन दिनों वहां इतनी ज्यादा घनी आबादी नही थी। ज्यादातर ईसाइयों के घर थे और कुछ घर दूसरे लोगों के थे। अब चूँकि उन दिनों आबादी कम थी इसलिए पेड़-पौधे ज्यादा हुआ करते थे।और म्योराबाद मोहल्ला बहुत ही छोटा हुआ करता था बस जहाँ मुम्फोर्ड गंज ख़त्म वहां से सड़क पार करते ही म्योराबाद शुरू हो जाता था।हर घर के आगे बड़ा सा दालान होता था। सारे घर लाइन से बने थे और आगे की लाइन के पीछे एक औए लाइन मे घर बने होते थे। जिनमे खेलने मे बड़ा मजा आता था।
हम लोगों के घर से कोई दस कदम की दूरी पर एक परिवार रहता था जिसमे दक्कू ,टेरी ,टेरी कि पत्नी बीना आंटी उनके माता-पिता और और दक्कू की दादी रहती थी। दादी यूं तो बहुत अच्छी थी पर हम बच्चों से जरा गुस्सा रहती थी क्यूंकि हम सब उन्हें बहुत तंग जो करते थे।कभी आईस -पाईस खेलते तो उनके घर के बरामदे मे छिप जाते तो कभी उनके दालान से कूद कर भागते थे।अगर कभी हम लोग दादी की नजर मे आ जाते तो शामत ही आ जाती थी। हर किसी की मम्मी से वो शिक़ायत करती थी की हम बच्चे उन्हें परेशान करते है और दिन मे उन्हें आराम नही करने देते है। मम्मी लोग हम लोगों को मना करती थी पर हम सब मानते कहाँ थे।
द्क्कू के घर मे बेर के पेड़ थे।जो मौसम मे खूब फलते थे। और जिन्हें तोड़ने मे हम सब को खूब मजा आता था। दिन मे जब सब लोग सो जाते थे तो हम बच्चों की टोली मतलब हम, पुतुल ,चीनू और रीना उनके घर मे लगे बेर चुराने जाते थे। हम सब पूरी सावधानी बरतते थे की दादी को हम लोगों की आहट न मिले पर चूँकि बेर के पेड़ बड़े-बड़े थे और हाथ से तो हम लोग तोड़ नही पाते थे तो छोटे-छोटे पत्थर मारते थे और उन पत्थरों से फल तो कम टूटते थे पर उन पत्थरों की आवाज से दादी जरुर उठ जाती थी और जो चिल्लाना शुरू करती थी कि बकरियों कच्चे-पक्के सब खा जाओ। और ये कहते हुए छड़ी लेकर बाहर आती थी हम लोगों की पिटाई करने के लिए पर हम सब भी कहाँ उनके हाथ आते थे। :)
बेर तोड़ने का सिलसिला चलता रहा और दादी का हम लोगों को बकरी कहना और छड़ी लेकर हम लोगों को दौडाना भी चलता रहा ।मम्मी कहती कि खरीद कर खाओ पर हम लोग बाज नही आते थे। क्यूंकि जो मजा पेड़ से तोड़ कर चुपके से खाने मे आता था वो भला खरीद कर खाने मे कहाँ।
हम लोगों के घर से कोई दस कदम की दूरी पर एक परिवार रहता था जिसमे दक्कू ,टेरी ,टेरी कि पत्नी बीना आंटी उनके माता-पिता और और दक्कू की दादी रहती थी। दादी यूं तो बहुत अच्छी थी पर हम बच्चों से जरा गुस्सा रहती थी क्यूंकि हम सब उन्हें बहुत तंग जो करते थे।कभी आईस -पाईस खेलते तो उनके घर के बरामदे मे छिप जाते तो कभी उनके दालान से कूद कर भागते थे।अगर कभी हम लोग दादी की नजर मे आ जाते तो शामत ही आ जाती थी। हर किसी की मम्मी से वो शिक़ायत करती थी की हम बच्चे उन्हें परेशान करते है और दिन मे उन्हें आराम नही करने देते है। मम्मी लोग हम लोगों को मना करती थी पर हम सब मानते कहाँ थे।
द्क्कू के घर मे बेर के पेड़ थे।जो मौसम मे खूब फलते थे। और जिन्हें तोड़ने मे हम सब को खूब मजा आता था। दिन मे जब सब लोग सो जाते थे तो हम बच्चों की टोली मतलब हम, पुतुल ,चीनू और रीना उनके घर मे लगे बेर चुराने जाते थे। हम सब पूरी सावधानी बरतते थे की दादी को हम लोगों की आहट न मिले पर चूँकि बेर के पेड़ बड़े-बड़े थे और हाथ से तो हम लोग तोड़ नही पाते थे तो छोटे-छोटे पत्थर मारते थे और उन पत्थरों से फल तो कम टूटते थे पर उन पत्थरों की आवाज से दादी जरुर उठ जाती थी और जो चिल्लाना शुरू करती थी कि बकरियों कच्चे-पक्के सब खा जाओ। और ये कहते हुए छड़ी लेकर बाहर आती थी हम लोगों की पिटाई करने के लिए पर हम सब भी कहाँ उनके हाथ आते थे। :)
बेर तोड़ने का सिलसिला चलता रहा और दादी का हम लोगों को बकरी कहना और छड़ी लेकर हम लोगों को दौडाना भी चलता रहा ।मम्मी कहती कि खरीद कर खाओ पर हम लोग बाज नही आते थे। क्यूंकि जो मजा पेड़ से तोड़ कर चुपके से खाने मे आता था वो भला खरीद कर खाने मे कहाँ।
Comments
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी."
आप मेरे ब्लोग पर आयीं, धन्यवाद, कृपया अपना ई-मेल पता दें ताकि मैं सही तरीके से आप को धन्यवाद कह सकूं और आप को और जान सकूं।