माघ मेला और कल्पवास और कुम्भ

आजकल इलाहाबाद यानि प्रयागराज में कुम्भ की ज़ोर शोर से तैयारी चल रही है । ऐसी ख़बरें तो हम लोग अक्सर टी.वी. और अखबार में देख और पढ़ रहे है । पर हम तब के माघ मेले की बात कर रहें है जब टी.वी. नहीं था । माघ मेला मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिव रात्रि को आख़िरी नहान होता है । इस दौरान पूरे शहर में बस लोग ही लोग दिखाई देते है ।

जब से हमें याद है हर साल माघ मेले में खूब तैयारी होती थी । और जब कुम्भ या अर्ध कुम्भ होता था तब तो और भी अधिक तैयारी होती थी । चूँकि पूरा संगम का इलाक़ा रेतीला है तो वाहनों के चलने के लिये पूरे इलाक़े में बड़े बड़े लोहे की पट्टियों से एक तरह की सड़क बनाई जाती थी ताकि कार वग़ैरा बालू में धँस ना जाये । पूरे एरिया में खूब पानी का छिड़काव होता था और हर तरफ़ डी.डी.टी. का छिड़काव भी किया जाता था ताकि लोग बीमारी से बचे रहें ।

जब हम लोग छोटे थे तो हमारी दादी हर साल माघ मेले में एक महीने के लिये कल्पवास करती थी ।हम लोगों के पंडितजी श्याम सुंदर पाण्डे भी अपना टेंट लगवाते थे और हमारी दादी वहीं रहती थी । हम लोग बीच बीच में उनके पास जाते तो वो आलू की सब्ज़ी और पराँठा खिलाती थी जिसका स्वाद लाजवाब होता था ।

कल्पवास मे श्रद्धालु किसी ना किसी अखाड़े के बने टेंट में रहते थे । अखाड़े का मतलब पहलवानी अखाड़ा क़तई नहीं है । 😊

और तब एक या दो नहीं बहुत सारे अखाड़े अपने लोगों के लिये टेंट लगाते थे । और हर अखाड़े की एक तम्बू या रस्सी से बनी बाउंड्री सी होती थी जो एक दूसरे को अलग करती थी । हर अखाड़े का नाम और झंडा होता था । हर एक का मुख्य द्वार अलग तरह का होता था । हालाँकि सारे द्वार लकड़ी या बम्बू के बने होते थे । अब सोचकर लगता है कि क्या तब टेंट में रहने वालों को जाड़ा नहीं लगता था । क्योंकि तब ज़्यादातर टेंट साधारण से होते थे ।

इस्कॉन मन्दिर का काफ़ी अच्छा टेंट लगता था । और तब इलाहाबाद हाई कोर्ट और बड़े ऑफ़िस और कुछ कम्पनियाँ भी अपने टेंट लगवाती थी । जो सुख सुविधा पूर्ण होते थे ।

माघ मेले के दौरान पूरा शहर श्रद्धालुओं से भर जाता था । दूर दराज़ के गाँवों और शहरों से लोग माघ मेले में स्नान करने और घूमने आते थे । उस ज़माने में भी विदेशी लोग काफ़ी आते थे । पर तब कार से भी पूरे मेले में घूमा जा सकता था । संगम से लेकर झूँसी और दारागंज जहाँ देखो बस लोग ही लोग दिखाई देते थे ।

माघ मेले में लोग खोते भी बहुत थे और ज़्यादातर समय लाउड स्पीकर पर एनाउंसमेंट होते रहते थे किसी की बीबी ,तो किसी का बेटा या बेटी अपने परिवार से बिछड़ गये है और उनका नाम एनाउंस किया जाता था पर कभी कभी ये भी एनाउंसमेंट होता था कि खोने वाला अपना नाम नहीं बता पा रहा है पर बच्ची ने लाल रंग की फ़्राक या लड़के ने नीले रंग की शर्ट पहनी हुई है ।

शाम को पूरा संगम और गंगा जी पर बने एक तरह का शहर लाइट से जगमगा उठता था । सुबह और शाम हर तरफ़ लाउड स्पीकर पर भजन और साधु संतों के उपदेश चलते रहते । बड़े बड़े स्टेज बने होते थे और इन साधू संतों को सुनने के लिये कल्पवास करने वाले और बाहर से आने वालों की अच्छी खासी भीड़ होती थी ।

उस समय एक देवरहा बाबा होते थे जो हमेशा एक मचान पर बैठते थे और लोग उनके दर्शन के लिये उमड़ पड़ते थे । एक मौनी बाबा भी थे जो बोलते नहीं थे पर श्रद्धालुओं की वहाँ भी भीड़ होती थी ।एक खडेशवरी बाबा भी थे जो हमेशा एक पैर पर खड़े रहते थे ।

पूरे मेले में बड़ी बड़ी जटाधारी साधू कहीं धूनी रमाये तो कहीं कोई साधू समाधि लगाये दिखते थे । खूब सारी दुकानें भी होती थी जहाँ तरह तरह की ज्वैलरी जैसे माला ,अँगूठी ,कपड़े जो बहुत कम दाम के होते थे । साथ ही जगह जगह मूँगफली , रामदाने और लईया ( मुरमुरा ) पट्टी और लड्डू मिलते थे ।

नहान में भी शाही स्नान होता है जिसमें सबसे पहले नागा साधू बाबा लोग बक़ायदा जुलूस लेकर निकलते थे पर उन्हें देखना मना होता था और पूरा संगम तक का रास्ता उनके लिये ख़ाली होता था क्योंकि वो सिर्फ़ भभूत अपने शरीर पर लगाते है । उनके स्नान के बाद ही बाक़ी लोग स्नान करते थे ।

हमने भी मकर संक्रान्ति ,अमावस्या और कुम्भ कई बार नहाया है । वो नाव से संगम तक जाना डुबकी लगाना और नाव पर ही फटाफट कपड़े बदलना । और घर आकर गरमागरम तैहरी खाना साथ ही काले तिल के लड्डू , सफ़ेद तिल की पट्टी और मेवे का चाशनी में बनी पट्टी ।

उफ़्फ़ क्या क्या लिखें । आप लोग इतनी लम्बी पोस्ट पढ़ते पढ़ते थक गये होगें पर हम लिखते हुये नहीं थके ।

माघ मेले की इतनी सारी यादें है कि क्या बतायें ।









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