dev d यानी bold and beautiful

कल blogvani पर dev d के बारे मे अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियां पढने को मिली तो हमने सोचा कि इससे पहले हमें फ़िल्म के बारे मे और ज्यादा पता चले उससे अच्छा है कि हम भी इस फ़िल्म को फटाफट देख ले क्योंकि हमारे बेटों का कहना था कि आप रिव्यू ज्यादा मत पढिये क्यूंकि यहाँ के अखबार मे भी dev d ही छाया हुआ है । हमारे बेटों ने भी इस फ़िल्म की तारीफ की थी । और साथ ही ये भी कहा था कि कि आप कोई mind set करके मत जाइयेगा मतलब open mind से देखियेगा । :)

तो बस कल शाम हम भी चले गए dev d देखने । हमें तो लगा था कि हॉल पूरा नही तो कम से कम आधा तो भरा होगा पर हॉल मे बमुश्किल २० लोग रहें होंगे (वैसे दोस्ताना जैसी फ़िल्म मे हॉल पूरा भरा होता है ) और फ़िल्म का शो inox के सबसे बड़े ऑडी १ मे लगाया था । वैसे इस फ़िल्म के कई शो चल रहे है तो हो सकता है इसीलिए रात मे भीड़ कम थी ।

खैर चलिए बात करते है dev d फ़िल्म की । इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ढाई घंटे की फ़िल्म देखने के बाद कोई hang over यानी सिर भारी नही होता है और शुरू मे तो पिक्चर बहुत तेजी से आगे बढती है पर हाँ इंटरवल के बाद थोड़ा सा धीमी होती है पर इतनी नही कि आप बोर हो जाए ।

इस फ़िल्म कि ख़ास बात जो हमें लगी वो ये कि इस फ़िल्म मे डाइलोग बहुत ज्यादा न होकर गीतों के माध्यम से सीन को दरशाया गया है जो मेरे ख़्याल से नया एक्सपेरिमेंट है और चूँकि सभी गाने background मे है तो अखरते नही है वरना १८ गाने अगर हीरो-हीरोइन गाते तब तो पिक्चर के लिए इमोशनल अत्याचार कहना सही होता । :)

इस फ़िल्म मे कुछ बातें ऐसी दिखाई है जिन्हें कोई सोच भी नही सकता जैसे dev d के पिता का ,पारो का ,चंदा का और dev d का जो करेक्टर दिखाया है वो बिल्कुल ही अलग है और इसलिए फ़िल्म अलग लगती है ।पर हाँ इस फ़िल्म मे कुछ बहुत ही bold सीन भी है

acting मे तो अभय देओल ,माही और काल्की सभी अच्छे लगे , अभय देओल के face मे कुछ ऐसा है कि वो हर तरह के किरदार मे फिट बैठते है फ़िर वो चाहे manorama का इंजिनियर हो या oye lucky का lucky हो या फ़िर dev d का dev ही क्यों न हो । इस फ़िल्म मे जो सरदार जी टैक्सी ड्राईवर बने थे credits मे उनका नाम (डॉक्टर अवतार सिंह )पढ़कर तो हम चौंक ही गए थे ।

इस फ़िल्म का अंत बहुत पसंद आया क्योंकि वो बड़ा ही unexpected था और इसी लिए तो फ़िल्म बहुत पसंद आई । अनुराग कश्यप ने एक बहुत ही हट के फ़िल्म बनाई है और हम तो आप से भी यही कहेंगे कि आप अगर फ़िल्म देखने जायें तो आप भी open mind से देखने जाए वरना आपकी marji । :)

Comments

आप की बात से सहमत हूँ की फ़िल्म रिव्यू से पहले ही देख लेनी चाहिए...वरना आप मन में कुछ धार लेते हैं जो अधिक तर पूरा नहीं होता...फ़िल्म का अंत अच्छा है लेकिन जिस इंसान पर पाँच सात लोगों को कार से कुचलने का आरोप लगा हो वो कैसे अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत आराम से कर सकता है...अनुराग जी ने टुकडों में फ़िल्म क्लासिक बनाई है लेकिन असरदार नहीं...बहर हाल पसंद अपनी अपनी ख्याल अपना अपना...
नीरज
फिल्‍म के बारे में आवश्‍यकता के अधिक चर्चाएं सुनने को मिल रही हैं, अब तो इस संडे को इसे देखना ही पडेगा।
कुश said…
मैं तो रिव्यूस पढ़ने के बाद भी फिल्म देखता हू... आपके बिटो ने सही कहा.. ओपन माइंड से फिल्म देखी जाए तो बढ़िया रहेगी... फिर ये भारतीय सिनेमा की विडंबना ही है की दोस्ताना जैसी फ़िल्मो में हाल खचाखच भरा होता है.. जबकि देव डी या लकी ओए जैसे फ़िल्मो में कम ही दर्शक होते है..

मनोरमा का अभय देओल तो मेरा फ़ेवरेट है...
यहाँ हमने कंप्यूटर में ही सी.डी लगा कर देखा. अच्छी लगी. आपकी review तो उत्तम है. आभार...
Abhishek Ojha said…
हमने तो पहले दिन ही देख ली थी, आपके रिव्यू जैसा ही कुछ विचार है.
लगता है अब देखनी पड़ेगी।
अब तो जरुर ही जाना पडेगा।
Arvind Mishra said…
क्या यह फिल्म महिलाओं को सिर्फ़ इसलिए अच्छी लग रही है की उनकी विभीषिकाओं को यह मुखर करती है और पुरूष को नकारा साबित करती है -केवल पुरूष ही इमोशनल अत्याचारी है ? यह नारी एंगल को उभारती एक चालाक कोशिश है -पर कुछ दृश्य सचमुच सौन्दर्यबोध का कबाडा कर देते हैं पोर्नो को भीमात करते हैं !
अब क्या कहें? इस विषय में बहुत तैयारी के साथ ही टिप्पणी कर पायेंगे शायद।
अब तो यह फिल्म देखकर ही विस्तार से टिप्पणी देगे...
कौन सी फ़िल्म की बात हो रही है? हम तो फ़िल्म देखते ही नही.

रामराम.

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