आत्महत्या और शिक्षा प्रणाली

मार्च का महीना यानी दसवीं और बारहवीं के बोर्ड के इम्तिहान का समय । हर साल फरवरी और मार्च के महीने मे छात्र -छात्राओं द्वारा आत्महत्या की खबरें पढने -देखने को मिलती है। बच्चों के कोमल दिमागमे पढ़ाई के साथ-साथ मे बोर्ड और फ़ेल और पास होने को लेकर इतना भय रहता है की कई बार बच्चे ऐसी परिस्थितियों से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का सहारा ले लेते है। ऐसे कदम उठाने मे बच्चे का कोई दोष नही होता है बल्कि माँ-बाप और स्कूल वाले ही उन्हें एक तरह से ऐसा करने को उकसाते है।

आज के समय मे जहाँ हर कोई ९० %और १०० %की बात करता है वहां ६०-७०और ८० % वालों की कोई पूछ नही है। पर क्या हमारी शिक्षा प्रणाली इसके लिए जिम्मेदार है।अभी दो-तीन दिन पहले संसद मे भी इस विषय पर चर्चा हुई थी और ये कहा जा रहा है कि इम्तिहान का सिस्टम ही खत्म कर देना चाहिए।पर क्या इमिहान ख़त्म कर देने से सब समस्या हल जायेगी।
खैर अगर हम अपने समय की बात करें तब तो हम लोगों के पास(यू.पी.बोर्ड मे ) ओप्शन होता था आर्टस और साईंस का और अपनी पसंद के विषय पढने का।कोई भी पाँच विषय लिए जा सकते थे। उस समय ये नही होता था की सोशल साईंस मे चारों विषय पढो (his.geo.civ.eco.) और उस समय यानी सत्तर के दशक मे तो ६० % आना ही बहुत बड़ी बात मानी जाती थी और लोग ७५ %पर टॉप भी कर जाते थे। हमारे समय मे रिजल्ट फर्स्ट डिविजन,गुड सेकंड क्लास,सेकंड डिविजन,थर्ड डिविजन होता थाऔर उस समय डिविजन पूछी जाती थी % नहीपर अब तो बच्चों का रिजल्ट % से जाना जाता है


पर जब हमारा बेटा दसवीं मे पहुँचा तब समझ मे आया की दसवीं यानी सी.बी.एस.सी. बोर्ड क्या होता है। बेटे को १० विषय पढने पड़ते थे । सोशल साईंस के नाम पर चार अलग-अलग किताबें (his,geo,civ,eco)और साईंस के नाम पर तीन अलग-अलग किताबें (bio,chem,phy. )पढ़नी पड़ती थी। और हर किताब मे १५ से २० चैप्टर होते थे किसी किसी मे तो २५ चैप्टर होते थे । सभी को पढ़ना और याद रखना और फ़िर इम्तिहान देना कोई आसान नही था। history मे ७०-७० पन्ने के चैप्टर होते थे(ढेर सारी तारीखें और रेवोलुशन को याद रखना ) तो साईंस मे ढेरों दाइग्राम और maths तो लगता की जो कुछ बी.एस.सी.मे पढाया जाता था वही सब बेटा दसवीं मे पढ़ रहा था।साथ ही हिन्दी,इंग्लिश और एक और भाषा(second language) फ्रेंच,संस्कृत,या जर्मन भी पढ़नी पड़ती थी। बेटे की इतनी पढ़ाई देख कर लगता था की अगर हम बेटे की जगह होते तो शायद फ़ेल ही हो जाते। :)

और जब हमारा छोटा बेटा दसवीं क्लास मे पहुँचा (२००३-२००४ मे ) तो पढने तो उसे भी दस विषय थे पर second language का चक्कर नही था। पर छोटे बेटे का दसवीं का सिलेबस बड़े बेटे की तुलना मे बहुत कम हो गया था । छोटे की सोशल की चार किताबों की जगह अब एक किताब हो गई थी(सोशल मे चैप्टर छोटे हो गए थे। history मे बदलाव हो गया था , अब ढेर सारी तारीखों और रेवोलुशन की जगह आर्कियोलोजी पढ़ना पड़ता था)और साईंस की भी एक ही किताब हो गई थी।हिन्दी बहुत आसान हो गई थी।हाँ maths और इंग्लिश मे ज्यादा अन्तर नही आया था। पर मार्किंग स्कीम मे कुछ बदलाव आ गया था।

ऐसा नही था कि हम लोगों के समय मे बोर्ड का खौफ नही था पर तब माँ-बाप इतना ज्यादा बच्चों पर प्रेशर नही डालते थे।और ना ही % की इतनी मारा-मारी होती थी।जबकि उस समय छात्र-छात्राओं के पास बहुत ज्यादा ओप्शन नही होते थे की बारहवीं पास करने के बाद क्या करेंगे। ज्यादातर लोग इन्जीनिएरिंग या मेडिकल की परीक्षा देते थे और बी.ए -बी.एस.सी करते थे। पर आज वैसे हालत नही है आज बच्चों के पास बहुत सारे ओप्शन होते है। पर असली समस्या % की है क्यूंकि जब७०-८० % से बारहवीं मे पास होने वाले बच्चे को किसी अच्छे कोलेज (दिल्ली या मुम्बई )मे admission नही मिलता है तो जाहिर है कि बच्चे निराश होते है।( इसके लिए तो कोलेज की संख्या बढ़ानी चाहिए जिससे हर बच्चे को admission मिल सके। तो शायद कुछ सुधार हो)इतना अधिक कोम्पतीशन जो बढ़ गया है की बच्चे तो बच्चे माँ-बाप भी इस कोम्पतीशन की भाग-दौड़ मे शामिल हो जाते है ।

अगर सांसदों की बात मान ली जाए की दसवीं और बारहवीं के इम्तिहान नही होने चाहिए तो क्या बच्चे को आगे इम्तिहान देने मे कोई परेशानी नही होगी । दसवीं के इम्तिहान बच्चों के लिए नींव का काम करते है। जरुरत है तो स्कूल और घर मे बच्चों पर दबाव कम करने की। अगर माँ-बाप और स्कूल मे टीचर बच्चों की हौसला बढाये और बच्चों की परेशानी समझे क्यूंकि हर बच्चे की क्षमता अलग-अलग होती है।हर बच्चा ९० % नही ला सकता है।स्कूल मे बच्चे के मार्क्स जब कम आते है तो स्कूल की टीचर्स और प्रिंसिपल माता-पिता की क्लास लेती है और कई बार तो स्कूल धमकी भी देता है कि अगर बच्चा अच्छे नम्बर नही लाएगा तो उसे अगली क्लास मे नही भेजा जायेगा

और हाँ याद आया कि यहां गोवा मे बच्चों को फ़ेल करने का सिस्टम नही है। अगर बच्चा फ़ेल भी होता है तो उसे अगली क्लास मे प्रमोट कर दिया जाता है और इसी वजह से गोवा मे ड्राप-आउट रेट बहुत ज्यादा है।पर शायद ये भी ठीक नही है क्यूंकि बच्चे निश्चिंत रहते है कि उन्हें अगली क्लास मे तो प्रमोशन मिल ही जायेगा।

इसलिए हमारा तो यही मानना है की सिस्टम मे बदलाव से ज्यादा जरुरी है माँ-बाप को अपनी सोच बदलने की । स्कूल को अपने रिजल्ट की चिंता करने की बजाय उसमे पढने वाले छात्र-छात्राओं की ज्यादा चिंता करनी चाहिए। ये जरुरी नही है की सिर्फ़ ९० % लाने वाला बच्चा ही जिंदगी मे आगे बढ़ता है ५०% लाने वाला बच्चा भी आगे जिंदगी मे बहुत कुछ कर सकता हैअगर उसे मौका मिलेगा तो

Comments

Abhishek Ojha said…
बिल्कुल सही बात है, मार्क्स से किसी की बौद्धिक क्षमता का निर्धारण नहीं किया जा सकता.
छात्र जीवन ही नहीं, समग्र जीवन ही तनावपूर्ण हो गया है। हम सभी प्रसन्नता के कारकों की तलाश में निरर्थक भटकते हैं और हाथ लगता है तनाव! :(
बहुत सार गर्भित लेख लिखा है आप ने ममता जी, आज के बच्चे पर पड़ने वाले तनाव की कल्पना भी हम अपने वक्त में नहीं कर सकते थे. जीवन की इस आपाधापी में, दौड़ में आगे निकलने के प्रयास में, हम और हमारे बच्चे कितना कुछ गवां देते हैं शायद इसका अंदाजा ही नहीं है हमें. अब तो बच्चे पैदा होते ही सीधे व्यस्क हो जाते हैं बचपना शायद विगत की बात हो गयी है.
नीरज
बेबात के तनाव में जी रहे हैं बच्चे।
आपकी चिंताएं वाजिब हैं।
Tarun said…
sehmati hai, ise darwinvad ke najariye se bhi dekh sakte hain....

Happy Holi
दरअसल अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त यह शिक्षा प्रणाली है इसमें अपने देश के हिसाब से सुधार की जरूरत है.
दीपक भारतदीप
आपका लेख तो बहुत पहले ही पढ़ लिया था लेकिन ब्लॉगर डॉट कॉम बन्द होने के कारण टिप्पणी पहले न दे पाए.
आजकल हमारा बेटा भी बाहरवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा दे रहा है लेकिन सब कुछ सामान्य चल रहा है. दूसरी तरफ छठी सातवीं के बच्चों के माता-पिता ने सब कुछ बन्द करके रख दिया है. माता-पिता को बदलना सचमुच कठिन होता है.

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