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Showing posts from December, 2007

क्या वाकई ये साल भी बेकार गया।

अभी कुछ दिन पहले शास्त्री जी की एक पोस्ट पढ़ी थी जिसे पढ़कर हमने खूब सोचा कि क्या वाकई एक और साल बेकार गया। बहुत सोचने पर लगा कि नही इतना भी बेकार नही गया है । यूं तो आम तौर पर हर साल जीवन मे कुछ अच्छा तो कुछ बुरा होता है । २००७ मे और कुछ अच्छा भले ही न हुआ हो पर एक बात बहुत अच्छी हुई कि हम ने ब्लॉगिंग करना शुरू कर दिया । :) वैसे २००७ हमारे लिए बहुत मायने रखता है। हाँ ये जरुर है कि ये जो कुछ भी हुआ उसे लक्ष्य को पाना भले ही न कहें पर इन सबका हमारे जीवन मे महत्त्व जरुर है।यूं तो ये सब बहुत ही छोटी-छोटी बातें है पर फिर भी हम कुछ बातों का जिक्र यहां करना चाहेंगे। १)इस २००७ मे ही हमने कंप्यूटर चलाना सीखा। इससे पहले भी कई बार सीखा था पर हर बार कुछ दिन करने के बाद छोड़ देते थे। पर इस साल फरवरी से हमने कंप्यूटर पर जो काम करना शुरू किया तो अभी तक कर रहे है। :) २)आख़िर इसी २००७ मे हमने ब्लॉगिंग की दुनिया मे कदम रखा जहाँ शुरू मे तो सभी लोग अनजाने थे ,परिवार छोटा था पर धीरे-धीरे यही अनजाने लोग अपने होते गए और ये परिवार बड़ा होत

क्या सांप की आँख मे मारने वाले की तस्वीर उतर जाती है ?(एक और डरावनी पोस्ट )

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इस सवाल पूछने का एक कारण है वो ये कि ये सांप ( नाग का बच्चा जैसा कि हमारी झाडू लगाने वाली कह रही है )हमारे घर मे खाने के कमरे (dinning room )की बालकनी मे निकला था। क्यूंकि येसांप का बच्चा दरवाजे के पीछे छिपा हुआ था इसलिए झाडू वाली ने इसे पहले नही देखा और उसने जैसे ही दरवाजे के पीछे झाडू लगाई कि ये सांप का बच्चा बाहर आ गया ।झाडू वाली इसे देख कर डर कर जोर से चिल्लाई और जब हम वहां ये देखने को पहुंचे की झाडू वाली आख़िर चिल्लाई क्यूं तो हमारे भी होश उड़ गए इन छोटे मियां को देख कर। बिल्कुल काला ये बच्चा बार - बार अपना फन उठाता था और जीभ निकाल रहा था जिसे देखकर और भी डर लग रहा था । अब सवाल ये था कि इसे भगाया कैसे जाये क्यूंकि ये बच्चा अपने आप जा नही पा रहा था। बार - बार ये दीवार पर चढ़ता तो था पर दीवार ऊँची होने की वजह से बाहर नही जा पा रहा था ।और नाली से बाहर शायद ये जाना नही चाहता था। इसलिए कभी ऊपर कभी नीचे ये इधर-उधर घूमता रहा और इसी बीच हमने इसकी फोटो खींच ली। :) खैर हम लोगों की हिम्मत नही थी इसे भगाने या मारने की।चूँकि

सुनामी ना पहले कभी सुना और ना देखा

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२६ दिसम्बर२००४ को जब हम लोग अपनी गाड़ी मे भाग रहे थे ( ये वही सफ़ेद क्वालिस है जिसने उस दिन हम लोगों को पार लगाया था । )तो सामने हर तरफ पानी नजर आ रहा था और जिस रास्ते से हम लोग हमेशा जाते थे वहां पानी भर रहा था । और सामने के सीधे रास्ते पर गाड़ी ले जाने का मतलब था पानी की चपेट मे आना ।गाड़ी चलाते हुए पतिदेव ने पूछा किधर से चलें तो हमने बिना कुछ सोचे समझे कहा कि बाएँ से वो जो चडाई वाला रास्ता है । इस पर वो बोले रास्ता पता है तो हमने कहा रास्ता तो पता नही है पर जब इतने सारे लोग जा रहें है तो कहीं ना कहीं तो सड़क निकलेगी ही। और जैसे ही हम लोगों ने गाड़ी बायीं ओर मोड़ी तो जो दृश्य देखा कि बयाँ करना मुश्किल है। हर आदमी के चेहरे पर बदहवासी और डर का भाव और हम लोग भी इस भाव से अछूते नही थे।जो जिस तरह था पानी आता देख उसी हालत मे जान बचाने के लिए भाग रहा था। उस चडाई पर चढ़ते हुए लोगों का हुजूम किसी पिक्चर के सीन से कम नही था।उस समय ये तो अंदाजा लग गया था की कुछ गड़बड़ है पर इतनी ज्यादा तबाही ,कभी सोचा भी नही था। हमने उस से कहा कि कैमरा दो । कुछ फो

आजादी एक्सप्रेस एक झलक

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आजादी एक्सप्रेस जो दिल्ली से सितम्बर मे चली थी और कई राज्यों से होती हुई २३ दिसम्बर को गोवा के वास्को-डी-गामा स्टेशन पर तीन दिन के लिए आई थी। तो चलिए हमारे साथ आजादी एक्सप्रेस देखने।इस ट्रेन मे १८५७ से लेकर २००७ तक का भारत दिखाया गया है।किस तरह भारत आजाद हुआ और किस तरह भारत ने हर क्षेत्र मे तरक्की की है। आजादी एक्सप्रेस मे चढ़ने के पहले स्टेशन पर गोवा की आजादी की भी एक छोटी सी फोटो प्रदर्शनी लगाई गयी थी कि किस तरह गोवा १९६१ मे पुर्तगाल से मुक्त होकर भारत का हिस्सा बना था । अनिता जी और संजीत जी ने इसके बारे मे बहुत कुछ लिखा था। जिसने इस ट्रेन को देखने की चाहत जगा दी थी। सो जब ट्रेन गोवा आई तो हम पहुंच गए आजादी एक्सप्रेस देखने के लिए। अनिता जी की पोस्ट पढ़ने के बाद मन मे डर जरुर था की अगर कहीं मुम्बई की तरह यहां भी बहुत भीड़-भाड़ हुई तब तो देखना मुश्किल हो जाएगा। पर हमारी एक पोस्ट पर संजीत जी ने फाये जी का जिक्र किया था जिसके लिए हम संजीत जी का शुक्रिया करते है। खैर गोवा मे मुम्बई जैसी भीड़ नही थी और हमने बडे ही आराम से पूरी ट्रेन

२६ दिसम्बर की वो सुबह

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भला कैसे भूल सकते है अंडमान की २६ दिसम्बर २००४ की वो सुबह जिसने बहुतों की जिंदगी बदल दी।और कुछ हद तक हमारी भी। उस २६ दिसम्बर को हम लोग निकोबार जाने का प्रोग्राम बना रहे थे क्यूंकि निकोबार मे क्रिसमस और नया साल काफी जोश से मनाया जाता था। अब अंडमान मे थे तो सोचा कि निकोबार का क्रिसमस भीदेख लेना चाहिऐ। पर कहते है ना कि जो होता है अच्छे के लिए ही होता है । इसीलिए उस साल हम लोग क्रिसमस के लिए निकोबार न जाकर दो दिन के लिए एक दुसरे छोटे से द्वीप बाराटांग चले गए थे । क्यूंकि बेटा अपनी क्लास छोड़ना नही चाहता था । इसलिए २५ को ही घर वापिस आ गए थे । चूँकि हमारे बेटा जो कि उस समय दसवीं मे था उसने जाने से मना कर दिया था कि एक हफ्ते के लिए वो नहीं जाएगा ,इसलिए हम लोग निकोबार ना जाकर पोर्ट ब्लेयर मे ही थे। उन दिनों हम लोग पोर्ट ब्लेयर के जंगली घाट मे रहते थे।आज भी वो सारा मंजर बिल्कुल आंखों मे बसा हुआ है ,इतने सालों बाद भी कुछ भी नही भूले है। यूं तो उस दिन भी हम लोग सुबह ४.३० बजे उठे थे क्यूंकि हमारे बेटे को ५ बजे टियुशन के लिए जाना होता था (अ

सबसे सस्ती जिंदगी

आजकल जिंदगी से सस्ती तो शायद ही कोई चीज है इस दुनिया मे।जब जो भी जिसकी भी चाहे जिंदगी ले सकता है। वजह कोई भी हो सकती है दोस्त से नही पटी तो मार दो ,तनाव है तो मार दो,छुट्टी न मिले तो मार दो,भाई से गुस्सा तो मार दो ,पत्नी से अनबन तो मार दो,बेटियों को तो लोग बेमोल ही मारते रहते है।मारना भी कितना आसान हो गया है। और सजा मिलते-मिलते तो सालों बीत जाते है।सजा मिली तो ठीक वरना .... । जीवन जो भगवान की दी हुई एक नियामत है पर जिसे छीनने मे मनुष्य ज़रा भी नही झिझकता है।हर दिन ऐसी बातें सुननें और पढ़ने को मिल जाती है। जहाँ मन के खिलाफ बात हुई वहीं झट से जान ले ली। अरे जान ना हुई मानो सब्जी भाजी हो गयी ।पर सब्जी भाजी भी अगर पसंद की नही होती है तो एक बार को लोग छोड़ देते है पर ..... । आज के अखबार मे भी ऐसी ही कुछ खबर छपी थी (जिसने हमे सोचने पर मजबूर किया ) जिसमे एक पिता ने अपनी बेटी जो कि न बोल सकती थी और नाही कुछ समझती थी उसे नदी मे डूबाकर मार डाला ।क्यूंकि पिता का कहना था कि उसके चार बच्चे है और उसके पास कोई नौकरी नही है। ये तो हम सभी जानते

ताली बजाना

कल यूं ही हम सहारा वन चैनल पर संगीत पर आधारित कार्यक्रम देख रहे थे जिसमे कार्यक्रम की शुरुआत मे राहुल जो प्रोग्राम के संचालक है वो कोई गाना गा रहे थे और जनता को ताली बजाने का इशारा कर रहे थे। आम तौर पर हर कार्यक्रम वो चाहे टी.वी.का हो या स्टेज पर होने वाले प्रोग्राम चाहे बड़े-बड़े फिल्मी प्रोग्राम हों या कोई और प्रोग्राम हों , होस्ट हमेशा लोगों को ताली बजाने के लिए कहते है कि अब फलां स्टेज पर आ रहें है और फलां का स्वागत जोरदार तालियों के साथ कीजिए।और जनता भी ऐसी होती है कि होस्ट के कहने पर ही ताली बजाती है। कभी-कभी बेमन से तो कभी बडे ही जोरदार ढंग से । जनता के ताली बजाने और न बजाने के दो उदाहरण हमे अभी हाल मे ही हुए दो बड़े समारोह मे देखने को मिले । पहला समारोह एड्स अवएरनेस पर आधारित कार्यक्रम था जिसकी होस्ट बार-बार जनता से मंच पर आने वाले लोगों का जोरदार तालियों से स्वागत करने को कहती थी तभी लोग ताली बजाते थे।यहां तक कि जो कलाकार प्रोग्राम मे भाग लेने आये हुए थे( मुम्बई और लोकल कलाकार) वो लोग़ भी हर थोड़ी देर मे जनता को ताली बजाने का इशारा करते थे। दूसरा उदाहरण लिबरेशन डे के मौक़

शब्दों का फेर

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आज दोपहर डेढ़ बजे ज़ी न्यूज़ ने एक ताजा खबर दिखाई जिसमे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी बी.जे.पी.के द्वारा की गयी कल की घोषणा पर बोल रहे थे कि बी.जे.पी.को मोदी से खतरा है इसीलिए बी.जे.पी.ने कल लाल कृष्ण अडवानी को प्रधानमंत्री के पद का उम्मीदवार घोषित किया । ज़ी न्यूज़ मे कुछ इस तरह की ताजा खबर दिखाई जा रही थी। जरा गौर फरमाएं। अब बेचारे अडवानी जी प्रधानमंत्री बनते-बनते पीए बन गए। :) चलिए लगे हाथ एक और हिन्दी का नमूना दिखा देते है। ये बोर्ड बंगलोर के टीपू सुलतान के महल के बाहर बने बगीचे मे लगा है। यहां पर अगर हिन्दी गलत है तो एक बार को समझा भी जा सकता है पर ज़ी न्यूज़ पर गलती होना वो अभी ऐसी। पता नही अडवानी जी और बी.जे.पी के लोगों के दिलों पर क्या बीत रही होगी। :)

रिची -रिच

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अब ये कुछ अजीब सा शीर्षक तो है पर बात ये है की अभी चंद रोज पहले हम बंगलोर गए थे । अब चूँकि बंगलोर हम करीब तीस साल बाद गए थे तो सोचा कि क्यों न बंगलोर घूम ही लिया जाये । और वहां घुमते हुए अचानक ही हम लोग एक सात सितारा होटल जो की अभी बन रहा है उसके सामने से गुजरे तो हम लोगों की गाड़ी के ड्राईवर ने बड़ी ही गर्मजोशी से बताया कि साब ये होटल विजय मालया का है । ये होटल भी शायद बीस मंजिल का है । और इसमे ऊपर हेलीपैड भी बना हुआ है । हमारे ड्राईवर ने ये बताया की चूँकि अब बंगलोर का नया एअरपोर्ट करीब ३० - ३५ कि . मी . की दूरी पर बन रहा है और बंगलोर मे ट्रैफिक बहुत बढ़ रहा है तो होटल से एअरपोर्ट जाने के लिए हेलिकॉप्टर की सुविधा रहेगी । जिससे कम समय मे एअरपोर्ट पहुँचा जा सके । जब तक उसने ये बताया और जब तक हम लोग होटल को देखते तब तक गाड़ी आगे बढ़ चुकी थी । पर फिर भी हमने कोशिश की उसकी फोटो लेने की । हेलीपैड से एक और बा

खुदा के लिए (In the name of god )

तीन दिसम्बर को ईफ्फी २००७ ख़त्म हो गया। यूं तो हमने पहली ही सोचा था की हम ईफ्फी मे देखी हुई कुछ फिल्मों के बारे मे यहां लिखेंगे फिर सोचा कि नही लिखेंगे कि कहीं आप लोग बोर न हो जाएँ । पर कल शास्त्री जी ने अपनी टिप्पणी मे हमे अच्छी फिल्मों के बारे मे लिखने के लिए कहा इसीलिए हम कुछ फिल्मों का जिक्र करेंगे । तेईस से तीन के बीच मे हमने करीब २०-२५ फिल्में देखी। ये तो जाहिर सी बात है कि इतनी फिल्मों मे से हर पिक्चर तो अच्छी हो नही सकती है पर फिर भी कुछ फिल्में बहुत पसंद आई(जिनका हम जिक्र करते रहेंगे) जिनमे से खुदा के लिए एक है । ये पिक्चर पाकिस्तान के डाइरेक्टर शोएब मंसूर ने बनाई है।इस फिल्म की खास बात ये है की इस फिल्म ने एक ऐसे विषय को उठाया है जिस पर आज तक किसी ने भी कुछ कहने की हिम्मत नही की है। की किस तरह एक साधारण लड़का संगीत और अपने परिवार को छोड़कर तालिबानी बन जाता है। फिल्म एक छोटे और सुखी पाकिस्तानी परिवार की है । परिवार मे सबको आजादी है कि वो अपनी जिंदगी अपने ढंग से जियें। परिवार मे दो बेटे है और दोनो गायक है।

ये कैसे डाक्टर ?

आजकल हर तरफ डॉक्टरों के चर्चे हो रहे है। दिल्ली मे डाक्टर A.I.I.M.S.के डाक्टर वेणुगोपाल को लेकर हड़ताल करते है तो कहीं गाँवों मे उनकी नियुक्ति न हो इसको लेकर हड़ताल करते है।पर ये हड़ताली डाक्टर कभी नही सोचते है कि उनके इस तरह बार-बार हड़ताल करने से अगर किसी का नुकसान होता है तो वो मरीजों का होता है ।A.I.I.M.s.मे तो अब आये दिन हड़ताल होने लगी है । जहाँ पर ना केवल दिल्ली अपितु दूर-दराज के शहरों -गाँवों से मरीज आते है।कुछ मरीज जिन्होंने महीनों पहले डाक्टर से समय लिया हुआ होता है तो कुछ जिन्हें इलाज कि सख्त जरुरत होती है उन्हें इस तरह की हड़ताल से कितनी परेशानी होती है इसका ख़याल क्या इन डॉक्टरों को कभी आता है। आजकल हर दो - चार महीने मे डाक्टर हड़ताल करते रहते है । कभी दिल्ली तो कभी तमिल नाडू तो कभी आन्ध्र प्रदेश मे तो कभी यू.पी. तो कभी बिहार मे। हड़ताल का कारण भले ही अलग हो पर भुगतना तो मरीज को ही पड़ता है। ये डाक्टर जिन्हें पढाई खत्म होने पर शपथ दिलाई जाती है कि वो निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करेंगे। उसका तो कोई अर्थ ही नही रह गया है। यूं तो इस शपथ को डॉक्टरो